Monday, April 16, 2012

क्षणिकाएँ-

1-
बस ज़रा सा
चश्म ख़म
ता'उम्र क़ैद।
2-
हुस्न था
बेपर्दगी थी
चुक गया।
3-
रास्ता
पुरख़ार था
डग सध गये।
4-
आशिक़ पे थूका!
शुक़्र है
इंसाँ पे नहीं।
5-
उफ़्‌! ये
रूहानी आहें?
उश्शाक़-वार्ड है।

(उश्शाक़=आशिक़ का बहुबचन, ढेर सारे आशिक़)
                                                                         -ग़ाफ़िल

Thursday, April 12, 2012

है अभी रात मगर हम भी सहर देखेंगे

देखने वाले कभी गौर से, गर देखेंगे
इश्क़ के सामने ख़म हुस्न का सर देखेंगे

हैं अभी दूर हमें पास तो आने दे ज़रा
तेरे आरिज़ पे भी अश्क़ों के गुहर देखेंगे

इस तेरी हिक़्मते-फ़ुर्क़त का गिला क्या करना
इश्क़ हमने है किया हम ही ज़रर देखेंगे

लोग देखे हैं, फ़क़त हम ही रहे हैं महरूम
आज तो हम भी मुहब्बत का असर देखेंगे

गो के हैं और भी ग़म याँ पे मुहब्बत के सिवा
पर अभी आए हैं तो हम भी ये दर देखेंगे

तू जो ग़ाफ़िल है मुहब्‍बत से हमारी यूँ सनम
है अभी रात मगर हम भी सहर देखेंगे

(आरिज़=गाल, हिक्मते फ़ुर्क़त=ज़ुदा होने की तर्क़ीब, ज़रर=नुक्‍़सान)

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, April 05, 2012

घर का न घाट का

आजकल पता नहीं क्यों लिखने से
मन कतराता है...घबराता है
फिर उलझ-उलझ कर रह जाता है
समझ नहीं आता कि
क्या लिखूँ!
कहां से शुरू करूँ और कहां ख़त्म
विचारों का झंझावात जोशोख़रोश से
उड़ा ले जा रहा है
और मैं उड़ता जा रहा हूँ
अनन्त में दिग्भ्रमित सा
न कहीं ओर, न कहीं छोर
पता नहीं है भी कोई
जो पकड़े हो इस पतंग की डोर
यह भी नहीं पता कि मैं कट गया हूँ
या उड़ाया जा रहा हूँ किसी को काटने के लिए
ख़ैर!
जो भी हो
ऊँचाइयां तो छू ही रहा हूँ
और ऊँचे गया तो लुप्त हो जाऊँगा
अनन्त की गहराइयों में
अवन्यभिमुखता पहुँचा तो देगी
अपनी धरती पर जहां हमारी जड़ है
हाँ अगर किसी खजूर पर अटका तो!
वह स्थिति भयावह होगी
फट-फट के टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा
यह दिल वाला पतंग
काल के हाथों नुचता-खुचता खो जाएगा।
घर का न घाट का
ग़ाफ़िल है बाट का
पर यही तो चालोचलन है
आवारापन का उत्कृष्टतम प्रतिफलन है
चलो यही सही
यारों का आदेश सर-आँखों पर
तो
बताओ जी! यह कैसी रही?
बेशिर-पैर, बिना तुक-ताल की कविता
कुछ आपके समझ में आयी!
या आपने अपना अनमोल वक्त और
अक्ल दोनों गंवाई!
मुआफ़ी!
आपका दिमाग़ी ज़रर हो
ऐसा मेरा इरादा भी न था
और याद रहे!
एक ख़ूबसूरत कविता सुनाने का
मेरा वादा भी न था।