Thursday, June 14, 2012

छुपा ख़ंजर नही देखा

बहुत दिन बाद आप क़द्रदानों की ख़िदमत में पेश कर रहा हूँ छोटी सी एक ताज़ा ग़ज़ल मुलाहिजा फ़रमाएं!

जो हर सर को झुका दे ख़ुद पे ऐसा दर नहीं देखा।
जो झुकने से रहा हो यूँ भी तो इक सर नहीं देखा।।

मज़ा मयख़ाने में उस रिन्द को आए तो क्यूँ आए,
जो साक़ी की नज़र में झूमता साग़र नहीं देखा।

लुटेरा क्यूँ कहें उनको चलो यूँ जी को बहला लें
वो मुफ़लिस हैं कभी आँखों से मालोज़र नहीं देखा।

क़यामत है के रुख़ भी और निगाहे-लुत्फ़ेे जाना भी,
मेरी जानिब ही हैंं गोया जिन्हें अक्सर नहीं देखा।

ज़रा सी चूक हाए बेसबब मारा गया ग़ाफ़िल
तेरी मासूम आँखों में छुपा ख़ंजर नही देखा।।

-‘ग़ाफ़िल’

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