Sunday, August 25, 2013

फिर क़यामत के प्यार लिख डाला

फिर क़यामत के प्यार लिख डाला।
और फिर ऐतबार लिख डाला।।

लिखना चाहा उसे जभी दुश्मन,
न पता कैसे यार लिख डाला।

उसने क़ातिल निगाह फिर डाली,
उसको फिर ग़मगुसार लिख डाला।

याद आती न अब उसे मेरी,
मैंने तो यादगार लिख डाला।

लिखते लिखते न लिख सका कुछ तो,
तंग आ करके दार लिख डाला।

मैं हूँ ग़ाफ़िल यूँ ग़फ़लतन ये ग़ज़ल,
देखिए क़िस्तवार लिख डाला।।

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