1.
ख़िज़ाँ की कैफ़ियत बेहतर बहारें फिर भी आती हैं,
मगर उजड़े हुए गुलशन में फिर क्यूँकर बहार आए।
2.
अलसाई सी आँखों और अंगड़ाई लेती बाहों को क्या,
के एक मुसाफ़िर देख नज़ारा अपना रस्ता भूल गया।
3.
क्या तबस्सुम था उनके लब पे जब मैं रोया था,
आज सरका के कफ़न मेरा वे बहुत रोए।
4.
इक़रार और इन्कार का पहरा भी तो बालुत्फ़ है,
हुस्न के ज़िन्दाँ से ग़ाफ़िल हो रिहा भी किस तरह।
5.
कोई मेरी निगाहों से ज़रा दुनिया को तो देखे,
ये दुनिया जल रही होगी वो ग़ाफ़िल हो रहा होगा।
6-
बेशक ही ज़िन्दगी में लुत्फ़ बे-हिसाब हैं,
तूफ़ान में साहिल के मिस्ल घिर तो जाइए।
7.
कितना भी जानो मगर ख़ाक ही जानोगे मियाँ,
लाख सर मार लो ग़फ़लत ही नज़र आएगी।
8.
दिल में ही तो रक्खा था बड़े एहतियात से,
ग़फ़लत में दर-ब-दर मैं तुझे खोजता रहा।
9.
फ़र्क़ मग़रूर और मजबूर में बस यह ग़ाफ़िल,
इक सरेआम तो इक छुपके नुमा होते हैं।
10.
गुल को तो ख़ुश्बू-ए-ख़ुद तक का भी एहसास कहाँ,
जो के भौंरे की तड़प का मुलाहज़ा कर ले।
ख़िज़ाँ की कैफ़ियत बेहतर बहारें फिर भी आती हैं,
मगर उजड़े हुए गुलशन में फिर क्यूँकर बहार आए।
2.
अलसाई सी आँखों और अंगड़ाई लेती बाहों को क्या,
के एक मुसाफ़िर देख नज़ारा अपना रस्ता भूल गया।
3.
क्या तबस्सुम था उनके लब पे जब मैं रोया था,
आज सरका के कफ़न मेरा वे बहुत रोए।
4.
इक़रार और इन्कार का पहरा भी तो बालुत्फ़ है,
हुस्न के ज़िन्दाँ से ग़ाफ़िल हो रिहा भी किस तरह।
5.
कोई मेरी निगाहों से ज़रा दुनिया को तो देखे,
ये दुनिया जल रही होगी वो ग़ाफ़िल हो रहा होगा।
6-
बेशक ही ज़िन्दगी में लुत्फ़ बे-हिसाब हैं,
तूफ़ान में साहिल के मिस्ल घिर तो जाइए।
7.
कितना भी जानो मगर ख़ाक ही जानोगे मियाँ,
लाख सर मार लो ग़फ़लत ही नज़र आएगी।
8.
दिल में ही तो रक्खा था बड़े एहतियात से,
ग़फ़लत में दर-ब-दर मैं तुझे खोजता रहा।
9.
फ़र्क़ मग़रूर और मजबूर में बस यह ग़ाफ़िल,
इक सरेआम तो इक छुपके नुमा होते हैं।
10.
गुल को तो ख़ुश्बू-ए-ख़ुद तक का भी एहसास कहाँ,
जो के भौंरे की तड़प का मुलाहज़ा कर ले।
सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (03-02-2015) को बेटियों को मुखर होना होगा; चर्चा मंच 1878 पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
फ़र्क़ मग़रूर और मजबूर में बस यह ग़ाफ़िल,
ReplyDeleteइक सरेआम तो इक छुपके नुमा होते हैं।
क्या बात है!बहुत खूब!
कितना भी जानो मगर ख़ाक ही जानोगे मियाँ,
ReplyDeleteलाख सर मार लो ग़फ़लत ही नज़र आएगी।
बहुत खूब।
क्या तबस्सुम था उनके लब पे जब मैं रोया था,
ReplyDeleteआज सरका के कफ़न मेरा वे बहुत रोए।
वाह, वाह बहुत खूब-बहुत खूब ....
मेरे ब्लॉग पर आप सभी का हार्दिक स्वागत है
क्या तबस्सुम था उनके लब पे जब मैं रोया था,
ReplyDeleteआज सरका के कफ़न मेरा वे बहुत रोए...शानदार शेर...बधाई