Tuesday, February 03, 2015

कुछ अलाहदा शे’र : वस्ल की रूह थरथराती है

1.
वक़्त के ताबे आफ़्ताबी निभाई हँसके,
वर्ना ग़ाफ़िल तो चाँदनी से भी जला अक्सर।
2.
आज बरसात हो रही जमकर जल रहा दिल का यह नगर फिर भी,
है सरे राह कोहे दुश्वारी गुज़र रही है पर उमर फिर भी।
3.
ऐ ग़ाफ़िल इश्क़ से उकता गये सब,
गोया के हाशिए पर आ गये सब।
4.
तू जो दूर हो तो भी होश गुम, तू जो पास है तो भी होश गुम,
ऐ शराब सी मेरी ज़िन्दगी तेरे साथ कैसे सफ़र करूँ?
5.
हिज़्र ने इस क़दर सताया के
वस्ल की रूह थरथराती है।
6.
जो तलाशोगे तो दिल में ही ख़ुद के पाओगे,
ये हम उश्शाक़ सरे राह नहीं मिलते हैं।
7.
वफ़ादारी निभाने में ही करता उम्र क्यूँ गश्ता,
जफ़ाओं की जो ऐसी यादगारी का पता होता।
8.
अपनों ने जनाज़े को तो रुख़्सत था कर दिया,
पल भर को सही रोक लिया राह का पत्थर।
9.
जिसने मेरे जिगर को किया था लहूलुहान,
आती है याद फिर वो तेरी सैफ़-ए-नज़र।
10.
फ़र्क़ क्या पड़ता है कोई ख़ुश है के नाराज़ है,
है यही क्या कम के अब भी चल रहा है सिलसिला।

3 comments:

  1. बहुत ही उम्दा शेर।फुर्सत के समय में मेंरे ब्लाग rajeshkavya.blogspot.com पर आप का स्वागत है।

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  2. बहुत अच्छे लगे आपके ये अशआर।
    आपके वस्ल और जुदाी वाले शेर ने मुझे एक इसी तरह का पर
    उलट शेर याद दिला दिया। शायर का नाम शायद आपको पता हो।

    वस्ल में होश उड गये मेरे,
    क्या जुदाई को मुँह दिखाऊंगा।

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  3. अपनों ने जनाज़े को तो रुख़्सत था कर दिया,
    पल भर को सही रोक लिया राह का पत्थर।
    बहुत खूब।

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