Thursday, July 02, 2015

भड़कता है कभी शोला किसी के मुस्कुराने से

नहीं चैनो क़रार आए है तेरे रूठ जाने से।
सनम तू लौट के आ जा भले झूठे बहाने से।।

ख़ुतूतों का वो लम्बा सिलसिला जाता रहा तो क्या?
महक़ते हैं किताबों में अभी तक ख़त पुराने से।

लिखा करता था जिसको ख़त पढ़ा करता था जिसका ख़त,
बड़ी तक़लीफ़ होती है उसी के भूल जाने से।

भड़कना ही रही फ़ित्रत तो सीने में भड़क जाता,
शरारा क्या हुआ हासिल मिरे घर को जलाने से।

कोई मुस्कान सीने की अगन पल में बुझा देवै,
भड़कता है कभी शोला किसी के मुस्कुराने से।

निराला फ़न ग़ज़लगोई जो चाहे बात कह ग़ाफ़िल,
ग़ज़ब का लुत्फ़ आता है ग़ज़ल इक गुनगुनाने से।।

3 comments:

  1. भड़कना ही जो है फ़ित्रत भड़कता उसके सीने में,
    शरारा क्या हुआ हासिल मिरे घर को जलाने से।

    कोई मुस्कान सीने की अगन पल में बुझा देवै,
    भड़कता है कभी शोला किसी के मुस्कुराने से।
    खूबसूरत ग़ज़ल ग़ाफ़िल साब

    ReplyDelete