Friday, September 18, 2015

शा'इरी ज़िन्दगी हुई अपनी

है यही बेश्तर कमी अपनी
शा'इरी ज़िन्दगी हुई अपनी

ख़ूँ रगों में रवाँ तो है लेकिन
ज़िन्दगी ज़ूँ ठहर गयी अपनी

आशिक़ी का ग़ज़ब करिश्मा है
अब न ढूँढे मिले हँसी अपनी

बीच सहरा सराब सी है वो
और ग़ज़ाला है तिश्नगी अपनी

बज़्म में जो तमाम रौनक़ है
रक्स करती है बेख़ुदी अपनी

क्या ख़बर थी वो झूठ की ख़ातिर
क़स्म खाएगी वाक़ई अपनी

चीख उठती है रोज़ पानी से
साँस ख़ुद घोटती नदी अपनी

यार ग़ाफ़िल ज़रा न ख़्वाब आया
के वो शौकत नहीं रही अपनी

-‘ग़ाफ़िल’

1 comment:

  1. बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...सभी अशआर बहुत उम्दा...

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