Sunday, September 06, 2015

फ़र्ज़ निस्बत का भला कुछ तो अदा कर जाते

दोस्ती निभ न सकी बैर निभा कर जाते
फ़र्ज़ निस्बत का भला कुछ तो अदा कर जाते

इक तक़ाज़ा था नहीं तुमने ज़रा ग़ौर किया
बात बन जाती अगर बात बना कर जाते

दूर जाना ही रहा दिल से तो आए थे क्यूँ
और गर आ ही गए थे तो बता कर जाते

एक अर्से से किसी ने तो न छेड़ा दिल को
तुमसे उम्मीद जगी थी तो सता कर जाते

रू-ब-रू था तो मगर कुछ भी नहीं बोल सका
तुमपे यह फ़र्ज़ रहा मुझको बुला कर जाते

एक ग़ाफ़िल से भला इस भी क़दर शर्माना
मुस्कुरा करके कभी आँख मिला कर जाते

-‘ग़ाफ़िल’

3 comments:

  1. बहुत ही उम्दा भावाभिव्यक्ति....
    आभार!
    इसी प्रकार अपने अमूल्य विचारोँ से अवगत कराते रहेँ।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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  2. सुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .

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