Sunday, October 11, 2015

तुम कहो ग़ाफ़िल इसे ज़िंदादिली कैसे कहूँ

हिस नहीं उसमें ज़रा भी है अभी कैसे कहूँ
दी उसे मुस्कान की क्यूँ पेशगी कैसे कहूँ

बह्र से जब बुझ नहीं सकती किसी की प्यास तो
हौसिला-ए-बह्र को दरियादिली कैसे कहूँ

आशिक़ी जब मर्तबे को देखकर होवै जवाँ
फिर निगोड़ी को भला मैं आशिक़ी कैसे कहूँ

शख़्स जो बदनीयती की हर हदों को तोड़कर
मुस्कुराए भी उसी को आदमी कैसे कहूँ

इश्क़ करता हूँ बताओ आप ही इस हाल में
आदते आतिशजनी को आपकी कैसे कहूँ

इश्क़ करते हो मगर इज़हार कर सकते नहीं
तुम कहो ग़ाफ़िल इसे ज़िंदादिली कैसे कहूँ

हिस=संवेदना शक्ति
बह्र=समन्दर
मर्तबा=ओहदा

-‘ग़ाफ़िल’

2 comments:

  1. बह्र से जब बुझ नहीं सकती किसी की प्यास तो
    हौसिला-ए-बह्र को दरियादिली कैसे कहूँ
    \..बहुत खूब!

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