Tuesday, October 31, 2017

लेकिन शराबे लब की ख़ुमारी है आज भी

वह सिलसिला-ए-मात जो जारी है आज भी
उसमें सुना है मेरी ही बारी है आज भी

शर्मा के मेरे पहलू से उठ जाना बार बार
तेरी अदा ये वैसी ही प्यारी है आज भी

कौंधी थी वर्क़ सी जो कसक दरमियाने दिल
यारो सुरूर उसका ही तारी है आज भी

इज़्हारे इश्क़ की ये मेरी शोख़ तमन्ना
तेरे ग़ुरूरे ख़ाम से हारी है आज भी

गोया के हाले दौर में जाता रहा चलन
तलवार मेरी फिर भी दुधारी है आज भी

इतिहास हो चुका है गो भूगोल जिस्म का
लेकिन शराबे लब की ख़ुमारी है आज भी

ग़ाफ़िल वो मुस्कुरा के तेरा टालना मुझे
हर इक अदा-ए-शोख़ पे भारी है आज भी

-‘ग़ाफ़िल’

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (01-11-2017) को
    गुज़रे थे मेरे दिन भी कुछ माँ की इबादत में ...चर्चामंच 2775
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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