Thursday, December 28, 2017

फिर मेरा तब्सिरा करे कोई

दिल्ली और आगरा करे कोई
किस तरह फैसला करे कोई

ख़ुद तो ख़ुद का न ग़मगुसार हुआ
अब जो चाहे भी क्या करे कोई

अपनी ही तू करेगी ऐ किस्मत
क्यूँ तेरा आसरा करे कोई

गुफ़्तगू का न गर सलीका हो
अपनी ज़द में रहा करे कोई

ख़ूबी वह पहले ख़ुद में लाए तो
फिर मेरा तब्सिरा करे कोई

पूछे क्यूँ क्या है आतिशे उल्फ़त
पावँ उसमें ज़रा करे कोई

आह! ग़ाफ़िल नज़र के तीरों से
बोलिए क्या गिला करे कोई

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, December 26, 2017

नज़ारा भी तो अब है बदला हुआ

अरे! यह भी घाटे का सौदा हुआ
जो अपना था वह दूसरे का हुआ

न इक ठौर ठहरे न इक रह चले
मुसाफ़िर लगे है वो पहुँचा हुआ

उसी के है पास अपना जेह्नो जिगर
उसे इश्क़ में भी मुनाफ़ा हुआ

ये अच्छा है, देता है जो दर्दो ग़म
वही पूछता है भला क्या हुआ

हमेशा नज़र पर ही इल्ज़ाम क्यूँ
नज़ारा भी तो अब है बदला हुआ

न सोच! आएगा उसमें तूफ़ाँ कोई
वो दर्या है वह भी है ठहरा हुआ

भला क्यूँ न उसको हरियरी दिखे
जो सावन में ग़ाफ़िल जी अंधा हुआ

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, December 15, 2017

ग़ाफ़िल जी आप दिल से हमारे अगर गए

लम्बी कोई तो कोई रहे मुख़्तसर गए
लेकिन तुम्हारे ठौर ही सारे सफ़र गए

अपना मक़ाम दिल के तेरे बीचो बीच था
मुश्क़िल हमें था जाना वहाँ तक मगर गए

हो उस निगाहे लुत्फ़ की तारीफ़ किस तरह
जिसकी बिनाहे शौक नज़ारे सँवर गए

जाँबर सभी थे जान बचाकर लिए निकल
हम ही थे इक जो तेरी अदाओं पे मर गए

तो फिर नहीं बुलाएँगे ता’उम्र आपको
ग़ाफ़िल जी आप दिल से हमारे अगर गए

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, December 12, 2017

सुना है जैसे को तैसा मिलेगा

न सोच इस बज़्म में अब क्या मिलेगा
मिलेगा जो बहुत उम्दा मिलेगा

तू चल तो दो क़दम उल्फ़त की रह पर
जिसे देखा न वो सपना मिलेगा

फ़ज़ीहत के सिवा क़ूचे में तेरे
पता है और भी क्या क्या मिलेगा

ज़रा उस वक़्त की तारीफ़ तो कर
किसी भौंरे से जब गुञ्चा मिलेगा

बनेगी ही नहीं क़िस्मत से अपनी
हमें हर हाल में सहरा मिलेगा

रहे कितना भी उसका क़ाफ़िया तंग
मगर हर शख़्स इतराता मिलेगा

नहीं तू मिल सका पर है यक़ीं यह
कोई तो इक तेरे जैसा मिलेगा

रक़ीबों से हसद क्यूँ हो भला जब
हमें प्यार अपने हिस्से का मिलेगा

हुआ ग़ाफ़िल है मासूम इसलिए भी
सुना है जैसे को तैसा मिलेगा

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, December 09, 2017

मगर कल आज सा सस्ता नहीं था

नहीं शबनम था या शोला नहीं था
पता सबको है तू क्या क्या नहीं था

तुझे हम जानते हैं जाने कब से
तू रुस्वा था तो पर इतना नहीं था

भले खोटा हो लेकिन चल न पाए
यूँ कल तो एक भी सिक्का नहीं था

थीं गो बेबाकियाँ रिश्तों में फिर भी
कोई नासूर दिखलाता नहीं था

बिका तो कल भी था ग़ाफ़िल कुछ ऐसे
मगर कल आज सा सस्ता नहीं था

-‘ग़ाफ़िल’

इससे तो अच्छा है झगड़ा करिए

करिए तारीफ़ के शिक़्वा करिए
जो भी करिए ज़रा अच्छा करिए

न रहा आपसे अब इत्तेफ़ाक़
अब ख़यालों में न आया करिए

आपको कर तो दूँ रुस्वा लेकिन
जी नहीं कहता है ऐसा करिए

हुस्न इज़्ज़त का है तालिब इसका
न सरे राह तमाशा करिए

आप करते हैं तग़ाफ़ुल ग़ाफ़िल
इससे तो अच्छा है झगड़ा करिए

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, December 05, 2017

जाने दे

ढल चुकी रात, है आग़ाज़े सहर, जाने दे!
राह पुरख़ार है माना के, मगर जाने दे!!

तुझसे तो होगा ही इक दिन ऐ नसीब इत्तेफ़ाक़
रुक मेरे जज़्बों को थोड़ा तो ठहर जाने दे

कुछ तो थी बात के आते ही मेरे पहलू में
नाज़ो अंदाज़ से बोला था क़मर, जाने दे!!

होश में आऊँगा फिर घर भी चला जाऊँगा
पी जो मय होंटों की उसका तो असर जाने दे

आतिशे इश्क़ में ग़ाफ़िल! न कहीं जल जाए
ख़ूबसूरत सा मेरे दिल का नगर, ...जाने दे!!

-‘ग़ाफ़िल’