Monday, February 26, 2018

तू आई तो साँस आखि़री बनके आई

लगे है के तू ज़िन्दगी बनके आई
पै पुड़िया कोई ज़ह्र की बनके आई

बग़ावत पे जाँ भी थी दौराने हिज़्राँ
न तू राबिता आपसी बनके आई

तुझे कब मिली ग़ैर से बोल फ़ुर्सत
मेरी भी ख़ुशी क्या कभी बनके आई

तू मुझको है प्यारी मेरी जान से भी
तू ही दुश्मने जाँ मेरी बनके आई

मैं चाहूँगा बेशक़ के इक बार डूबूँ
है तू जो उफ़नती नदी बनके आई

थी साँसों में रफ़्तारगी थी न तू जब
तू आई तो साँस आखि़री बनके आई

तलब तेरे होंटों के मय की थी ग़ाफ़िल
मगर जाम तू शर्बती बनके आई

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, February 14, 2018

मिल जाए इश्क़ हुस्न का सौदा किए बग़ैर

हालाकि डॉ. मिर्ज़ा हादी ‘रुस्वा’ की इस ज़मीन पर कहना कठिन है... फिर भी एक कोशिश अपनी भी-

वह रात हाए! आरज़ू उसका किए बग़ैर
आता है कोई ख़्वाब में वादा किए बग़ैर

मुझको पता है दिल में मेरे अब जो आ गए
जाओगे यूँ न आप तमाशा किए बग़ैर

हिक़्मत कोई भी कर लो मगर बात है ये तै
अच्छा न कुछ भी पाओगे अच्छा किए बग़ैर

जलता जिगर है डूबके दर्या-ए-इश्क़ में
सहता है नाज़ हुस्न का चर्चा किए बग़ैर

मुश्ताक़ इस क़दर हूँ के जाने ग़ज़ल तेरा
आती कहाँ है नींद नज़ारा किए बग़ैर

नख़रे तमाम और भी तीरे नज़र का वार
क्या क्या सितम सहा हूँ मैं शिक़्वा किए बग़ैर

क्या इस सिफ़त का ठौर है ग़ाफ़िल कहीं जहाँ
मिल जाए इश्क़ हुस्न का सौदा किए बग़ैर

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, February 12, 2018

या चले तो तीर सीनःपार होना चाहिए

आपको मुझसे भी थोड़ा प्यार होना चाहिए
और है तो प्यार का इज़्हार होना चाहिए

या चलाया ही न जाए तीर सीने पर कभी
या चले तो तीर सीनःपार होना चाहिए

फ़ासिले पनपे हैं अक़्सर वस्ल के साए में ही
हिज़्र का एहसास भी इक बार होना चाहिए

हो नहीं गर जिस्म में चल जाएगा फिर भी जनाब
आपकी बातों में लेकिन भार होना चाहिए

वह ख़बर जिससे सुक़ून आए उसे भी छापता
ऐसे पाए का भी तो अख़बार होना चाहिए

कब तलक ग़ैरों के बाग़ों से चलेगा अपना काम
क्या चमन अपना नहीं गुलज़ार होना चाहिए

राय यह कायम हुई ख़ुद के लिए ग़ाफ़िल जी आज
यार हो मक्कार तो मक्कार होना चाहिए

-‘ग़ाफ़िल’