Saturday, December 14, 2019

आँखों के तीर और सँभाले न जाएँगे

है कोढ़ गर तो कोढ़ के छाले न जाएँगे
जो जो भी कारनामें हैं काले न जाएँगे

आएगा वक़्त जाने का जब मैक़दे से घर
हम कोई भी हों साथ ये प्याले न जाएँगे

अब तो हुज़ूर आइए मैदाने जंग में
आँखों के तीर और सँभाले न जाएँगे

रखना है बज़्म में तो मिले तौर की जगह
कहना फ़क़त है क्या के निकाले न जाएँगे

ग़ाफ़िल जी जा चुके हैं जो करते हैं जी की बात
अश्आर मगर बेचने वाले न जाएँगे

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, November 19, 2019

ये ज़िन्दगी

नाच गर आए न तो आँगन को टेढ़ा क्यूँ कहें
क्यूँ कहें तलवार की सी धार है ये ज़िन्दगी
देखिए तो ज़िन्दगी बस चार दिन का खेल है
सोचिए तो जिस्म के भी पार है ये ज़िन्दगी

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, November 16, 2019

जिसे आँख भर देखते हो

जिगर देखते हो यक़ीनन
मेरे सिम्त अगर देखते हो
ज़रा ग़ुफ़्तगू भी हो उससे
जिसे आँख भर देखते हो

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, November 07, 2019

सीने के आर पार है के नहीं

जी में थोड़ा ग़ुबार है के नहीं
यानी अब ऐतबार है के नहीं

रात ढलती है शम्स उगता है
आदमी ख़ुशगवार है के नहीं

शब की लज़्ज़त भी जान लोगे सुब
देख लेना ख़ुमार है के नहीं

कोई भी तौर नाम अपना रक़ीब
उसके ख़त में शुमार है के नहीं

और ग़ाफ़िल जी! तीर नज़रों का
सीने के आर पार है के नहीं

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, October 16, 2019

अब किधर है वो गली याद नहीं

कोई नाज़ुक सी कली याद नहीं
कब थी पुरवाई चली याद नहीं

हुस्न ये सच है तेरी ख़्वाहिश कब
मेरी आँखों में पली याद नहीं

जब गुज़रता रहा वक़्त और था वह
अब किधर है वो गली याद नहीं

हिज्र तो याद है पर वस्ल की रात
आई कब और ढली याद नहीं

गो मैं ग़ाफ़िल हूँ नहीं इश्क़ की पर
आग थी कैसे जली याद नहीं

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, August 13, 2019

या के जज़्बातों में उलझे हुए हालात कहूँ

रोज़ क्यूँ वो ही कहा जाए जो भाए सबको
है बुरा क्या जो कभी रात को मैं रात कहूँ
आप कहिए! के कहूँ आप जो कहने को कहें
या के जज़्बातों में उलझे हुए हालात कहूँ

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, August 11, 2019

हाँ रहा मैं भी और आईना भी रहा

मैं तो था ही मेरा हौसिला भी रहा
ग़म के सौदे में अपने ख़ुदा भी रहा

एक था वक़्त ऐसा के मैं ख़ुद मेरी
जब नज़र में भी था गुमशुदा भी रहा

किर्चें सपनों की मेरे उड़ीं ता’फ़लक़
हाँ रहा मैं भी और आईना भी रहा

मेरी बर्बादी में मेरी जाने ग़ज़ल
हाथ जो भी थे उनमें तेरा भी रहा

जीत अपनी मुक़म्मल हुई यूँ के मैं
दौड़ता तो रहा हारता भी रहा

मह के मानिन्द ही मेरा महबूब है
कुछ नुमा भी रहा कुछ निहा भी रहा

बाबते हिज्र ग़ाफ़िल जी कुहराम क्यूँ
अब तसव्वुर में वो जबके आ भी रहा

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, August 02, 2019

मुस्कुराते गो ज़माना हो गया है

अब तो जाने का बहाना हो गया है
बज़्म में हर गीत गाना हो गया है

शर्म आँखों को न आई तो न आई
मुस्कुराते गो ज़माना हो गया है

आगे था पीने पिलाने का मज़ा और
अब तो बस पीना पिलाना हो गया है

हुस्न की ताबानी जाने हुस्न क्या जो
कह रहा मौसम सुहाना हो गया है

ज़ख़्म देने की नयी तर्क़ीब सोच अब
तीर नज़रों का चलाना हो गया है

लोग देते हैं मुझे तरज़ीह फिर भी
इश्क़ मुझको जब के माना हो गया है

रच नया उल्फ़त का अफ़साना ओ ग़ाफ़िल!
किस्सा-ए-मजनू पुराना हो गया है

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, July 30, 2019

तेरा अंदाज़े बयाँ औरों से कुछ और ही हो

तेरे ही पीछे ज़माना न चले तो कहना
हाँ मगर जाए जहाँ औरों से कुछ और ही हो

बात जो भी हो सुनी जाएगी लेकिन ग़ाफ़िल
तेरा अंदाज़े बयाँ औरों से कुछ और ही हो

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, July 29, 2019

कोई शख़्स अफ़साना मेरा न जाने

मेरे ही लिए क्यूँ के रस्ता न जाने
मैं हूँ वह के जो आबलो पा न जाने

तेरे सिम्त होता है अल्लाह क्या क्या
यहाँ पे तो होता है क्या क्या न जाने

नज़र की तेरी हो इनायत है ख़्वाहिश
तू मुझ पर से लेकिन हटाना न जाने

हिजाब इसलिए मेरे मुँह पर नहीं है
के तू ज़िश्तरू चाँद जैसा न जाने

नहीं गीत गाता हूँ मैं ताके ग़ाफ़िल
कोई शख़्स अफ़साना मेरा न जाने

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, July 23, 2019

🌙

इसके भी हाथ में उसकी भी छत पर चलता फिरता रहता चाँद
इश्क़ ने कितना चाँद रचा है सबका अपना अपना चाँद

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, July 20, 2019

बोली लगा रहे हो सभी बेज़ुबान की

आदाब दोस्तो! कल दिनांक 19-07-2019 को शाइर व कवि परम् आदरेय स्वर्गीय गोपालदास ‘नीरज’ जी की प्रथम् पुण्यतिथि के अवसर पर उनकी मशहूर ग़ज़ल, ‘‘ख़ुश्बू सी आ रही है इधर ज़ाफ़रान की, खिड़की कोई खुली है फिर उनके मक़ान की’’, की ज़मीन पर अपने हुए चंद अश्आर बतौर श्रद्धांजलि शाइर शिरमौर को समर्पित-

जो कर न पाए आज तक अपने मक़ान की
कैसे हो फ़िक़्र ऐसों को दुनिया जहान की

जिसके ज़ुबाँ हो उसकी लगाओ तो अस करूँ
बोली लगा रहे हो सभी बेज़ुबान की

कुछ भी न कह सकूँगा कभी उनके बरखि़लाफ़
उल्फ़त में जाग जाग के जिसने बिहान की

इसका नहीं भरम है के दुश्मन हुआ जहाँ
मुझको पड़ी है अपनी मुहब्बत के शान की

सूरज नहीं जो चाँद तो होगा ही ज़ेरे पा
ग़ाफ़िल अगर उड़ान रही आसमान की

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, July 19, 2019

तेरी उल्फ़त में क्या न कर गुज़रे

गर मुहब्बत भरा सफ़र गुज़रे
या ख़ुदा फिर तो उम्र भर गुज़रे

हो किसी ख़ुल्द की किसे ख़्वाहिश
तेरी सुह्बत में वक़्त अगर गुज़रे

एक तूफ़ान हमसे टकराया
हाँ उसी ठौर हम जिधर गुज़रे

जी गँवाया था जाँ गँवाई अब
तेरी उल्फ़त में क्या न कर गुज़रे

फूल की हो के राह काँटों की
ग़ाफ़िल आशिक़ हर एक पर गुज़रे

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, July 13, 2019

हाँ हूँ मैं शाद मुझे क्या ग़म है
आँख नम है तो मगर कम कम है
ढलकी रुख़सार पे फिर अश्क की बूँद
उट्ठा फिर ग़ुल के यही शबनम है

-‘ग़ाफ़िल’
(चित्र गूगल से साभार)

Wednesday, July 10, 2019

मेरी आँखों में लहराता समंदर देख सकता था

निग़ाहे लुत्फ़ गर होता न क्यूँकर देख सकता था
तू दामन में छुपा चुपके से नश्तर देख सकता था

तेरी मंज़िल निग़ाहों में तेरी होती अगर उसदम
यक़ीनन तू पड़े रस्तों के पत्थर देख सकता था

मेरा दीदार ही करना तुझे था तो, मेरी जानिब
नहीं थी रोशनी गर, दिल जलाकर देख सकता था

नहीं समझा ज़ुरूरी यार वरना बारिशों में भी
तू बेहतर मेरे जलते जी का मंजर देख सकता था

ज़ुबान अपनी रही पर्दे में अक़्सर क्यूँकि बेमतलब
कोई भी हुस्न उसका अदबदाकर देख सकता

जो होता लुत्फ़ तुझको तो ज़रा कोशिश पे ही ग़ाफ़िल
मेरी आँखों में लहराता समंदर देख सकता था

-‘ग़ाफ़िल’
(चित्र गूगल से साभार)

Tuesday, July 09, 2019

आपका मुस्कुराना मगर हो

हिज्र ही क्यूँ नहीं हमसफ़र हो
आपसे इश्क़ अल्लाह पर हो

और कुछ भी न हो तो चलेगा
आपका मुस्कुराना मगर हो

एक क़त्अ-

इक झलक देखना देखना क्या
देखना गर नहीं आँख भर हो
जी करे है मेरे जी के मालिक
आपके सिम्त अब रहगुज़र हो

खुल्द हो या के दोज़ख हो मंज़िल
आपका नाम ही राहबर हो

मेरे जैसे हज़ारों हैं ग़ाफ़िल
आपकी हर किसी पर नज़र हो

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, July 02, 2019

चाँद का देखना तो बहाना हुआ

हिज्र की धूप सर पे है जब जब चढ़ी
दर्द बढ़कर मेरा शामियाना हुआ
तेरा चेहरा ही देखा किए रात भर
चाँद का देखना तो बहाना हुआ

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, July 01, 2019

आपकी सुह्बत में रहकर हो गए

ख़्वाहिश ऐसी थी नहीं पर हो गए
शम्अ क्या देखी हम अख़्गर हो गए

है तसल्ली सब न तो कुछ ही सही
देवता राहों के पत्थर हो गए

चाहत अपनी थी के समझे जाएँ पर
शे’र ग़ालिब के हम अक़्सर हो गए

काम आईं हैं मुसल्सल कोशिशें
यूँ नहीं दर्या समन्दर हो गए

गो फ़क़त ग़ाफ़िल थे हम शाइर जनाब
आपकी सुह्बत में रहकर हो गए

(अख़्गर=पतिंगा)

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, May 31, 2019

अरे ग़ाफ़िल अभी ज़िंदादिली जैसी की तैसी है

अभी भी जो ये जी की बेख़ुदी जैसी की तैसी है
अभी भी शायद अपनी आशिक़ी जैसी की तैसी है

कभी शोले भड़क उट्ठे कभी पुरनम हुईं आँखें
निगाहों की मगर आवारगी जैसी की तैसी है

लगाता हूँ मैं गोता रोज़ उल्फ़त के समन्दर में
न जाने क्यूँ मगर तश्नालबी जैसी की तैसी है

बहुत जी को सँभाला कोशिशें कीं यूँ के अब शायद
बदल जाए ज़रा पर ज़िन्दगी जैसी की तैसी है

खुबी जाती हैं निश्तर सी तेरी बातें मेरे जी में
अरे ग़ाफ़िल अभी ज़िंदादिली जैसी की तैसी है

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, May 10, 2019

आजकल

क्या लहू में है रवानी आजकल
है कहाँ आँखों का पानी आजकल

आते हैं उड़ जाते हैं पर फुर्र से
ख़्वाब जो हैं आसमानी आजकल

नाम तो अपना है लेकिन ज़िन्दगी
लिख रही किसकी कहानी आजकल

मैं हवाओं की ज़ुबानी वक़्त की
सुन रहा हूँ लन्तरानी आजकल

गुंचों की फ़ित्रत है ग़ाफ़िल फूल हों
उसमें भी है आनाकानी आजकल

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, May 08, 2019

क्या हुआ जो आदमी जैसा हुआ

जबसे रू-ए-हुस्न पे पर्दा हुआ
पूछिए मत आशिक़ी का क्या हुआ

मैं बयाँ करता भी कितना दर्दे दिल
शब हुई पूरी चलो अच्छा हुआ

और भी जबके हैं रिश्तेदारियाँ
क्यूँ फ़क़त अपनी का ही चर्चा हुआ

कल हवा आई थी जानिब से तेरी
आज भी है जी मेरा बहका हुआ

अपने कुछ हो जाएँ होती है ख़ुशी
ठीक है जो बेवफ़ा अपना हुआ

शह्र में इतने रफ़ूगर हैं तो फिर
दिल तेरा है क्यूँ फटा टूटा हुआ

कितने दर्या ख़ुद में लेता है उतार
क्या समन्दर सा कोई प्यासा हुआ

आदमी तो हो नहीं पाया तू फिर
क्या हुआ जो आदमी जैसा हुआ

तेरे हिस्से में हूँ मैं पर जाने क्यूँ
मेरे हिस्से मेरा ही साया हुआ

हैं तेरे ही दम पर एहसासों के फूल
फ़ख़्र कर तू अश्कों का क़तरा हुआ

और ग़ाफ़िल की कहानी कुछ नहीं
इक सिवा इसके के है खोया हुआ

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, May 01, 2019

हुज़ूर आप क्यूँ इस क़दर देखते हैं

वो इन्कार करते हैं गो फिर भी मुझको
बचाकर नज़र भर नज़र देखते हैं
जो क़ातिल हैं कैसा गिला उनसे लेकिन
हुज़ूर आप क्यूँ इस क़दर देखते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, April 29, 2019

हुज़ूर इस बार कैसा वार होगा

शबो रोज़ इल्म का व्यापार होगा
तो कब उल्फ़त का कारोबार होगा

एक क़त्अ-

मुझे लगता है शायद मेरा जीना
अब आगे और भी दुश्वार होगा
चलाकर वो नज़र का तीर मुझपर
कहे जाते हैं यूँ ही प्यार होगा

चला था तीर आगे नीमकश पर
हुज़ूर इस बार कैसा वार होगा

हर इक चलता रहे गर लीक पर ही
तमाशा ख़ाक मेरे यार होगा

अगर ग़ाफ़िल मुसन्निफ़ हो गए सब
ज़माना शर्तिया लाचार होगा

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, April 27, 2019

हर कोई बेगाना है

बातें ज़ेह्न की हों के जिगर की लुत्फ़ हो जिसमें पूछो सब
इस दुनिया से उस दुनिया तक अपना आना जाना है
जी कुछ और तो दस्तो पा करते रहते हैं और ही कुछ
ग़ाफ़िल जी ऐसे भी जो देखो हर कोई बेगाना है

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, April 22, 2019

बस तुझसे कभी प्यार का चर्चा नहीं होता

इश्क़ इस भी क़दर दोस्तो रुस्वा नहीं होता
आँखों पे ज़माने के जो पर्दा नहीं होता

दुनिया से हम उश्शाक़ जो पा जाते हक़ अपने
होता तो बहुत कुछ हाँ तमाशा नहीं होता

आया था तो कर लेता हमेशा के लिए घर
इक बार भी या दिल में तू आया नहीं होता

हो जाती हैं वर्ना तो हर इक तर्ह की बातें
बस तुझसे कभी प्यार का चर्चा नहीं होता

मिल जाता जो धोखे से ही ग़ाफ़िल से कभी तू
दावा है के फिर देखता क्या क्या नहीं होता

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, April 18, 2019

बयाँ हो चश्म से जो बन्दगी है

भले तू कह के ये आवारगी है
रवानी है अगर तो ही नदी है

हुज़ूर अपनी भी जानिब ग़ौर करिए
इधर भी तो बहारे ज़िन्दगी है

यही तो वक़्त की है ख़ासियत अब
कभी जो था ग़लत वो सब सही है

ज़माने की हसीं चिकनी सड़क पर
न फिसले जो वो कैसा आदमी है

ज़ुबाँ से हो बयाँ है बात भर वो
बयाँ हो चश्म से जो बन्दगी है

है क्या तू भी समन्दर कोई ग़ाफ़िल
जो तेरी इस क़दर तिश्नालबी है

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, April 17, 2019

कुछ ऐसी बात फ़ानी कह रहा है

इन अब्रों की ज़बानी कह रहा है
ये चाँद अपनी कहानी कह रहा है
मिटेगी प्यास तेरी भी ज़मीं अब
कुछ ऐसी बात फ़ानी कह रहा है

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, April 13, 2019

आप ही का

साहिल हैं आपके ही दर्या है आप ही का
सैलाबो मौज सारा जलसा है आप ही का

मेरा के आपका है ये है सवाल ही क्यूँ
हूँ मैं जब आपका तो मेरा है आप ही का

कैसे लगाई आतिश कितने जलाए जज़्बे
जो सुन रहे हो मुझसे किस्सा है आप ही का

कर लीजिए गुलाबी कालिख के पोत लीजे
हैं रंग आपके ही चेहरा है आप ही का

रुस्वाइयों से आख़िर ग़ाफ़िल जी उज़्र क्यूँ है
चर्चा भी तो ज़ियादः होता है आप ही का

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, April 08, 2019

बात में कुछ तो लहर पैदा कर

होए कैसे भी मगर पैदा कर
तीरगी से तू सहर पैदा कर

क्या कही, बात कही सीधे से जो
बात में कुछ तो लहर पैदा कर

लुत्फ़ आएगा जवाँ होगा वो जब
जी में उल्फ़त का शरर पैदा कर

जिससे, बेबस सी तमन्ना-ए-इश्क़
कर ले परवाज़ वो पर पैदा कर

तो फ़ना होगा असर ज़ह्रों का
ज़ह्र तू भी कुछ अगर पैदा कर

क्या है जुम्बिश ही फ़क़त पावों की
बाबते जी भी सफ़र पैदा कर

ज़िन्दगी जोड़-घटाना ही नहीं
ग़ाफ़िल इक भाव-नगर पैदा कर

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, March 11, 2019

हाय किस्मत! कू-ए-जाना में न अपना घर हुआ

बाबते इश्क़ इतना समझाया गया था पर हुआ
उसपे तुर्रा यह के जिसको भी हुआ जी भर हुआ

जाँसिताँ ने जिस्म से जब खेंच ली है जान फिर
सोचना क्या यह के आख़िर क्यूँ न मैं जाँबर हुआ

रोज़ अपना चाँद खिड़की पर उतर आता मगर
हाय किस्मत! कू-ए-जाना में न अपना घर हुआ

कुछ गुलाब अपने चमन में मैंने रोपा था मगर
आस्तीं का साँप कोई कोई तो निश्तर हुआ

आग लग जाए है ग़ाफ़िल होए है जिस ठौर इश्क़
शुक्रिया कहिये के अपने शह्र के बाहर हुआ

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, March 01, 2019

हम प्यार की बारिश के आसार समझते हैं

हम प्यार समझते हैं व्यापार समझते हैं
तुझको तो हर इक सू से ऐ यार! समझते हैं

समझेगी भी ये दुनिया क्या ख़ाक ख़लिश दिल की
समझो तो ये हर बातें दिलदार समझते हैं

इक पल को ठहर जाएँ है इतने को ही दुनिया
हम हैं के इसे अपना घर-बार समझते हैं

कुछ और नहीं समझें मुम्क़िन है ये जाने जाँ
पर ज़ीस्त में हम अपना किरदार समझते हैं

पुरवाई का आलम है जुल्फ़ों के हैं अब्र उड़ते
हम प्यार की बारिश के आसार समझते हैं

ग़ाफ़िल जी ज़रा सोचो ख़ुश्बूओं की लज़्जत को
गर फूल नहीं तो फिर क्या ख़ार समझते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, January 25, 2019

वसीला

खिलेंगे फूल के गुंचे ही सूख जाएँगे
ख़ुदा की मर्ज़ी है हम तो फ़क़त वसीला हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, January 05, 2019

लग रहे दोज़ख़ में सारे चेहरे पहचाने हुए

आइए देखें के कैसे कैसे अफ़साने हुए
किस तरह कितने बशर अपनो से बेगाने हुए

मंज़िले उल्फ़त उन्हें हासिल नहीं हो पाई गो
हाँ मगर इतना हुआ कुछ अपने दीवाने हुए

हर कोई ले लुत्फ़ यूँ सबका मुक़द्दर तो नहीं
आतिशे उल्फ़त की बाबत कुछ ही परवाने हुए

शुक्र है, गोया नहीं उम्मीद थी हमको मगर
लग रहे दोज़ख़ में सारे चेहरे पहचाने हुए

अक्स उल्टा ही दिखाएँगे है ज़िद ये कैसी ज़िद
ग़ाफ़िल ऐसे जाने क्यूँ हर आईनाख़ाने हुए

-‘ग़ाफ़िल’