Wednesday, February 26, 2020

चलूँ कहाँ से मेरा रास्ता कहाँ निकले

न यूँ हुआ है के घर हर कोई मक़ाँ निकले
के गर हो आग यक़ीनन वहाँ धुआँ निकले

तभी कहूँगा के आया है लुत्फ़ मुझको भी गर
ज़मीन खोदूँ मैं और उससे आसमाँ निकले

किसी भी दौर में कोई कहीं भी कैसी भी
पढ़े किताब तेरी मेरी दास्ताँ निकले

कुछ ऐसी बात है मुझमें के है नसीब मेरा
पहुँच गया तो बियाबाँ भी गुलसिताँ निकले

न इल्म होगा ख़ुदा को भी यह के मैं ग़ाफ़िल
चलूँ कहाँ से मेरा रास्ता कहाँ निकले

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, February 20, 2020

ग़ाफ़िल अपनी डाल पे ही पर चलाना सीख ले

ख़ुश है रहना गर तरीक़ा हर पुराना सीख ले
या कोई सूरत निकाल और आज़माना सीख ले

गा न वह जो ठीक है ग़ाफ़िल नहीं अब यह चलन
जो सभी को भाए वो ही गीत गाना सीख ले

मंज़िल उल्टी सीधी हो ग़ाफ़िल ही हो गर हमसफ़र
फिर तू उल्टी सीधी रह पर आना जाना सीख ले

बात नखरों से भी बन जाती है ग़ाफ़िल आजकल
ऐसे जैसे तैसे नखरा ही दिखाना सीख ले

धूल के इस आसमाँ में भर नहीं सकता उड़ान
ग़ाफ़िल अपनी डाल पे ही पर चलाना सीख ले

-‘ग़ाफ़िल’
(चित्र गूगल से साभार)

Tuesday, February 18, 2020

या तेरे सीने में ग़ाफ़िल आग भर है

शम्स है सिरहाने या छत पर क़मर है
फ़र्क़ है क्या रोज़ो शब सोना अगर है

क्यूँ नहीं उठ सकती आह आख़िर ज़माने!
जो कटा शब्जी नहीं है एक सर है

नींद अगर आए न तो क्यूँकर न आए
मैं हूँ बिस्तर में ही यार और अपना घर है

गुफ़्तगू बेबाक होनी चाहिए थी
किसलिए शरमा रहा था इश्क़ अगर है

मुस्कुरा दे कुछ के जी में आए ठंढक
या तेरे सीने में ग़ाफ़िल आग भर है

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, February 12, 2020

सोचता हूँ के इधर ज़िन्‍दगी कैसी होगी

हिज्र के साथ कभी वस्ल अगर अपनी होगी
जानता हूँ ये मुलाक़ात भी अच्छी होगी

वो है एहसान फ़रामोश मैं एहसान शनास
उसकी दुनिया में मेरी पैठ ही कितनी होगी

जी रहा शौक से जी हाँ ये मगर याद रहे
ज़ीस्त के साथ चली मौत भी आती होगी

अच्‍छा ख़ासा था अभी हो जो गया मैं शाइर
सोचता हूँ के इधर ज़िन्‍दगी कैसी होगी

एक ग़ाफ़िल पे ये एहसाने क़रम हो के न हो
लोग कहते हैं कभी जानेमन अपनी होगी

-‘ग़ाफ़िल’

गाँव का बूढ़ा वो पीपल का शजर आता है

बाबते ज़िक़्र ही सच है के वो घर आता है
किसके कोठे पे भला रोज़ क़मर आता है

करता रहता है वो एहसान सभी पर बेशक
उसको एहसान जताना भी मगर आता है

वक़्त के पार चले जाते हैं वे लोग अक़्सर
जिनको थोड़ा सा भी जीने का हुनर आता है

बेवफ़ाई का गिला मुझको भला क्यूँ हो जब
वह तसव्वुर में मेरे शामो सहर आता है

झूठे ही हैं वो जो भी क़त्ल का इल्ज़ाम अपने
कहते रहते हैं के बस उनके ही सर आता है

दर्दे उल्फ़त से है आँखों में ये सैलाब ओफ्फो!!
मैं भी देखूँगा उसे मुझ तक अगर आता है

पेड़ भी चलते हैं ग़ाफ़िल जी! मेरे ख़्वाबों में
गाँव का बूढ़ा वो पीपल का शजर आता है

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, February 11, 2020

कुछ भी करो तुम उसका मेरी जान ही तो है

फैली है कम भी होगी कभी शान ही तो
निकलेगा रह भी जाएगा अरमान ही तो है

रहने दो वह जहाँ है के उसको निकाल दो
कुछ भी करो तुम उसका मेरी जान ही तो है

बोलो तो छोड़ ही दूँ मैं उल्फ़त का सिलसिला
मेरे ख़ुशी से जीने का सामान ही तो है

जी में ही गर उठा है तो इतना बुरा भी क्या
उट्ठा है बैठ जाएगा तूफ़ान ही तो है

ग़ाफ़िल अगर पढ़ा तो वफ़ा की बस इक किताब
इसको कहाँ है अक़्ल परेशान ही तो है

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, February 07, 2020

हाँ मगर पल्लू सरक जाए ज़ुरूरी तो नहीं

कोई जब गाए ग़ज़ल गाए ज़ुरूरी तो नहीं
मैं कहूँ वह जो तुझे भाए ज़ुरूरी तो नहीं

फूल महकाता है पूरा गुलसिताँ बस इस सबब
वो मेरा दामन भी महकाए ज़ुरूरी तो नहीं

यह ज़ुरूरी है के रो लें रोने का जब जी हो पर
आँख से आँसू निकल जाए ज़ुरूरी तो नहीं

अच्छे दिन का हम सभी को इंतिज़ार इतना है पर
कोई दिन वह सामने आए ज़ुरूरी तो नहीं

ठीक है ग़ाफ़िल हूँ मैं रफ़्तारे हवा भी ठीक है
हाँ मगर पल्लू सरक जाए ज़ुरूरी तो नहीं

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, February 04, 2020

पर लोग समझते हैं के गाने के लिए है

आदाब! ये लीजिए मतला, शे’र और मक़्ता गरज़ यह के ग़ज़ल मुक़म्मल हुई-

है सच के ये दुनिया तो दीवाने के लिए है
कुछ लोगों का आना फ़क़त आने के लिए है

तू देख ज़माना ही है इस ज़ीस्त की बाबत
मत सोच के यह ज़ीस्त ज़माने के लिए है

मेरी ये ग़ज़ल जीने का गो तौर है ग़ाफ़िल
पर लोग समझते हैं के गाने के लिए है

-‘ग़ाफ़िल’
(पृष्‍ठभूमि चित्र गूगल से साभार)

Monday, February 03, 2020

मेरी रात आज भी कँवारी है

ये जो उल्फ़त है तेरी मेरे लिए
बस ज़रा सी है या के सारी है?
इश्क़बाजी के फेर में ग़ाफ़िल!!
मेरी रात आज भी कँवारी है

-‘ग़ाफ़िल’
(चित्र गूगल से साभार)