Friday, September 11, 2020

वो अगर चाहे मक़ाँ मेरा अभी घर कर दे

है क़ुबूल आज मुझे मोम से पत्थर कर दे
मुझपे रब उसकी मुहब्‍बत की नज़र पर कर दे

मेरे अल्‍लाह मुझे भी तो तसल्ली हो कभी
उसके शाने पे कभी भी तो मेरा सर कर दे

वो जो आतिश है जलाती है मुझे शामो सहर
कोई उसको तो मेरे जिस्‍म से बाहर कर देे

मेरे इज़्हारे मुहब्बत पे लगा अपनी मुहर
वो अगर चाहे मक़ाँ मेरा अभी घर कर दे

ऐ ख़ुदा कैसी है उलझी ये डगर उल्‍फ़त की
अपने ग़ाफ़िल के लिए कोई तो रहबर कर दे

-‘ग़ाफ़िल’

6 comments:

  1. बहुत सुंदर ग़ज़ल,

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  2. सुन्दर ग़ज़ल

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  3. वह जो आतिश है जला देती मुझे शामो सहर
    कोई उसको तो मेरे जिस्‍म से बाहर कर देे

    वाह, बहुत ख़ूब

    हार्दिक शुभकामनाएं ग़ाफ़िल जी 💐🙏💐

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  4. सारे शेर सुन्दर लिखे गए

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  5. ऐ ख़ुदा कैसी है उलझी ये डगर उल्‍फ़त की
    अपने ग़ाफ़िल के लिए कोई तो रहबर कर दे...
    बेहतरीन अश़आर..
    सादर..

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