Monday, October 25, 2021

मैं वो चाहूँ ही भला क्यूँ जो ज़माना चाहे (2122 1122 1122 22)

जान चाहेगा नहीं जान सा माना चाहे
चाहिए चाहने देना जो दीवाना चाहे

दिल का दरवाज़ा हमेशा मैं खुला रखता हूँ
कोई आ जाए अगर शौक से आना चाहे

मैं नहीं बोलूँगा उसको के बहाए न कभी
अश्क उसके हैं बहा दे जो बहाना चाहे

रोक तो सकता हूँ दर्या की रवानी मैं अभी
रोकूँ पर कैसे उसे जी से जो जाना चाहे

अपनी चाहत भी निराली है जहाँ से ग़ाफ़िल
मैं वो चाहूँ ही भला क्यूँ जो ज़माना चाहे

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, October 01, 2021

नाक भी बाकी रहे मै भी उड़ा ली जाए (2122 1122 1122 22)

थोड़ी शिक़्वों की शराब आपसे पा ली जाए
क्यूँ नहीं ऐसे भी कुछ बात बना ली जाए

आप तो वैसे भी मानेंगे नहीं अपनी कही
क़स्म ली जाए भी तो आपकी क्या ली जाए

कोई तरक़ीब तो निकलेगी ही गर सोचेंगे
नाक भी बाकी रहे मै भी उड़ा ली जाए

इश्क़ की जंग में ऐसा हो तो क्या हो के अगर
तीर चल जाए मगर वार ही खाली जाए

ज़िन्दगी चार ही दिन की है भले ग़ाफ़िल जी
क्यूँ मगर दर से कोई खाली सवाली जाए

-‘ग़ाफ़िल’