Wednesday, October 07, 2015

के ली जाँ आदमी ने आदमी की

इनायत गर नहीं होती किसी की
तो बदकारी न मर जाती कभी की

तेरी ख़ुदग़र्ज़ियां मुझको पता हैं
सबब यह है, नहीं जो बतकही की

तू होता संग, संगे-दिल न होता
नहीं होती फ़ज़ीहत बंदगी की

नज़रअंदाज़ उसको भी किया लो
जो हैं ग़ुस्ताखि़याँ तेरी अभी की

अजी मैंने ग़मों की स्याह शब में
जलाया दिल भले, पर रौशनी की

अँधेरी रात के पिछले पहर में
सुनी क्या चीख तूने भी नदी की

खड़ी है आदमी के बरमुक़ाबिल
कली वह एक मुरझाई तभी की

करे अफ़सोस ग़ाफ़िल इसलिए क्या
के ली जाँ आदमी ने आदमी की

-‘ग़ाफ़िल’

7 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार 08 अक्टूबर 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  2. करे अफ़सोस ग़ाफ़िल इसलिए क्या
    के ली जाँ आदमी ने आदमी की
    ..बहुत सस्ती लगती है किसी की जान आज के समय में ... संवेदनहीन होता इंसान गूंगा बहरा होता जा रहा है ..
    बहुत बढ़िया सटीक चिंतन

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