Saturday, February 06, 2016

मुफ़्त का खाया मगर पचता नहीं

सच है यह, तुझसे कोई रिश्ता नहीं
जी तेरे बिन पर कहीं लगता नहीं

है तस्सवुर ही ठिकाना वस्ल का
इश्क़ मुझसा भी कोई करता नहीं

ये भी है तीरे नज़र का ही कमाल
दिल है घाइल उफ़्‌ भी कर सकता नहीं

दर्द है गर तो दवा भी इश्क़ है
इश्क़ सा कुछ और हो सकता नहीं

क्या करोगे आस्तीनों के सिवा
साँप अब दूजी जगह पलता नहीं

घूमता हूँ शह्र की गलियों में पर
मुझको तेरे सा कोई जँचता नहीं

दाद तो ग़ाफ़िल को मिल जाएगी मुफ़्त
मुफ़्त का खाया मगर पचता नहीं

-‘ग़ाफ़िल’

2 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 07 फरवरी 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (08-02-2016) को "आयेंगे ऋतुराज बसंत" (चर्चा अंक-2246) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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