Saturday, June 21, 2014

चाँद खिला है बस्ती बस्ती मेरे छत पर काली रात

चाँद खिला है बस्ती बस्ती मेरे छत पर काली रात।
मैं क्या जानूं कैसी होती है कोई मतवाली रात।।

अपने हिस्से की लेते तो मुझको उज़्र नहीं होता,
पर यह क्या तुमने तो ले ली मेरे हिस्से वाली रात।

रात चुराकर ऐ तारे जो तीस मार खाँ बनते हो,
दूजा आसमान रच दूँगा होगी जहाँ उजाली रात।

अब के मेरी रात सुहाने सच्चे सपनों वाली है,
तारों! सुबह जान जाओगे हुई तुम्हारी जाली रात।

ग़ाफ़िल को चकमा देकर जो दिल का सौदा करते हो,
दिल के सौदागर क्या जानो क्या होती दिलवाली रात।।

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, June 05, 2014

चाँद धरती पे ला सको तो जिओ!

चाँद धरती पे ला सको तो जिओ!
दाग़ उसका मिटा सको तो जिओ!
राह में गुल हैं और काँटे भी
गर गले से लगा सको तो जिओ!!

-‘ग़ाफ़िल’