Thursday, August 31, 2017
Tuesday, August 29, 2017
Thursday, August 24, 2017
ज़ुर्अत क्यूँ नहीं करते
हमें उनसे शिक़ायत थी, शिक़ायत है, रहेगी भी
के वे मुझसे मेरी कोई शिक़ायत क्यूँ नहीं करते
भले घुट घुट के ही जीना पड़े पर मैं न पूछूँगा
के मुझको अब सताने की वो ज़ुर्अत क्यूँ नहीं करते
-‘ग़ाफ़िल’
के वे मुझसे मेरी कोई शिक़ायत क्यूँ नहीं करते
भले घुट घुट के ही जीना पड़े पर मैं न पूछूँगा
के मुझको अब सताने की वो ज़ुर्अत क्यूँ नहीं करते
-‘ग़ाफ़िल’
Saturday, August 19, 2017
ख़्वाहिश अपनी जाके मैख़ाने लगी
जिस अदा से आ मेरे शाने लगी
मुझको रुस्वाई भी रास आने लगी
अब क़यामत मुझपे आने को है, वो
सुन रहा मेरी ग़ज़ल गाने लगी
बाद उसके क्या बताऊँ किस तरह
ख़्वाहिश अपनी जाके मैख़ाने लगी
वस्ल की शब का ज़रा आ पाए लुत्फ़
उसके पहले ही वो क्यूँ जाने लगी
हो कभी शायद ही अब दीदारे गुल
जब कली ही यार मुरझाने लगी
होश में आए भी ग़ाफ़िल किस तरह
फिर वो पल्लू अपना सरकाने लगी
-‘ग़ाफ़िल’
मुझको रुस्वाई भी रास आने लगी
अब क़यामत मुझपे आने को है, वो
सुन रहा मेरी ग़ज़ल गाने लगी
बाद उसके क्या बताऊँ किस तरह
ख़्वाहिश अपनी जाके मैख़ाने लगी
वस्ल की शब का ज़रा आ पाए लुत्फ़
उसके पहले ही वो क्यूँ जाने लगी
हो कभी शायद ही अब दीदारे गुल
जब कली ही यार मुरझाने लगी
होश में आए भी ग़ाफ़िल किस तरह
फिर वो पल्लू अपना सरकाने लगी
-‘ग़ाफ़िल’
Friday, August 18, 2017
किस्सा गुलाब का
कोठी भी जा चुकी है न कोठे की बात कर
होगा बुरा अब और भी क्या मह्वेख़्वाब का
काँटों से अट चुका है मुसल्सल मेरा लिबास
फ़ुर्सत मिली तो लिक्खूँगा किस्सा गुलाब का
-‘ग़ाफ़िल’
होगा बुरा अब और भी क्या मह्वेख़्वाब का
काँटों से अट चुका है मुसल्सल मेरा लिबास
फ़ुर्सत मिली तो लिक्खूँगा किस्सा गुलाब का
-‘ग़ाफ़िल’
Wednesday, August 16, 2017
तुझपे इल्ज़ाम लगाएँ तो लगाएँ कैसे
तू ही तो बाइसे रुस्वाई है लेकिन ग़ाफ़िल
तुझपे इल्ज़ाम लगाएँ तो लगाएँ कैसे
-‘ग़ाफ़िल’
तुझपे इल्ज़ाम लगाएँ तो लगाएँ कैसे
-‘ग़ाफ़िल’
मेरा सम्मान अब होने लगा है
ज़रा नुक़्सान अब होने लगा है
कोई नादान अब होने लगा है
किसी के प्यार की बारिश बिना दिल
जूँ रेगिस्तान अब होने लगा है
न जाने क्यूँ, जो आँसू आईना था
वो बेईमान अब होने लगा है
सिफ़त मेरी है या है मर्तबे की
मेरा सम्मान अब होने लगा है
रिवाज़े डांस है, गाना-बज़ाना
बिना सुर-तान अब होने लगा है
ख़याल उम्दा ही ये होगा बरहना
अगर इंसान अब होने लगा है
तसव्वुर से ही तेरे वक़्त ग़ाफ़िल
अहा! आसान अब होने लगा है
-‘ग़ाफ़िल’
कोई नादान अब होने लगा है
किसी के प्यार की बारिश बिना दिल
जूँ रेगिस्तान अब होने लगा है
न जाने क्यूँ, जो आँसू आईना था
वो बेईमान अब होने लगा है
सिफ़त मेरी है या है मर्तबे की
मेरा सम्मान अब होने लगा है
रिवाज़े डांस है, गाना-बज़ाना
बिना सुर-तान अब होने लगा है
ख़याल उम्दा ही ये होगा बरहना
अगर इंसान अब होने लगा है
तसव्वुर से ही तेरे वक़्त ग़ाफ़िल
अहा! आसान अब होने लगा है
-‘ग़ाफ़िल’
Monday, August 14, 2017
भला मैं किस तरह ज़िन्दा रहूँगा
मुझे लगता नहीं अच्छा रहूँगा
यूँ तेरे कू में गर आता रहूँगा
अड़ा है तू न मिलने की ही ज़िद पर
न जानूँ मैं के अब कैसा रहूँगा
तू यूँ ही तैरने आता रहे मैं
क़सम से उम्र भर दर्या रहूँगा
भले ही जाम टकराता हूँ शब् भर
मैं तेरी दीद का प्यासा रहूँगा
नसीब अब हो ही जाए हाथ इक दो
तू है बादिश तो मैं इक्का रहूँगा
रहा महरूम गर शिक़्वों से तेरे
भला मैं किस तरह ज़िन्दा रहूँगा
सँवारूँगा मैं किस्मत तेरी ग़ाफ़िल
भले टूटा हुआ तारा रहूँगा
-‘ग़ाफ़िल’
यूँ तेरे कू में गर आता रहूँगा
अड़ा है तू न मिलने की ही ज़िद पर
न जानूँ मैं के अब कैसा रहूँगा
तू यूँ ही तैरने आता रहे मैं
क़सम से उम्र भर दर्या रहूँगा
भले ही जाम टकराता हूँ शब् भर
मैं तेरी दीद का प्यासा रहूँगा
नसीब अब हो ही जाए हाथ इक दो
तू है बादिश तो मैं इक्का रहूँगा
रहा महरूम गर शिक़्वों से तेरे
भला मैं किस तरह ज़िन्दा रहूँगा
सँवारूँगा मैं किस्मत तेरी ग़ाफ़िल
भले टूटा हुआ तारा रहूँगा
-‘ग़ाफ़िल’
Saturday, August 12, 2017
क़ुद्रतन गोया मैं गंगाजल रहा हूँ
जिस तरह उल्फ़त में तेरी जल रहा हूँ
क्या कभी इस तर्ह भी बेकल रहा हूँ
ख़ुश हुआ जिसने भी ओढ़ा या बिछाया
हर जनम मैं मख़मली कम्बल रहा हूँ
तू तो इस दर्ज़ा ख़फ़ा है आह मुझसे!
एक पल नज़रों से क्या ओझल रहा हूँ
आग हो सब दूर हट जाओ ऐ जज़्बो
बर्फ़ के मानिन्द मैं अब गल रहा हूँ
तू किसी भी तर्ह मेरा हो न पाया
गो तेरी आँखों का मैं काज़ल रहा हूँ
काश! तुझको इल्म हो जाता के मैं ही
तुझमें उल्फ़त का वो कल बल छल रहा हूँ
पीने वाले पी रहे ज्यूँ आबे अह्मर
फ़ित्रतन गोया मैं गंगाजल रहा हूँ
नब्ज़ अपनी की शुरू क्या जाँच करनी
लोग बोले कबका मैं पागल रहा हूँ
वक़्त ने पकड़ाई है जो राह उस पर
रोते हँसते गिरते उठते चल रहा हूँ
भूल जाए लाख तू पर हर दफा मैं
खुरदुरे प्रश्नो का तेरे हल रहा हूँ
देना तो होगा सुबूत अब तुझको ग़ाफ़िल
मैं हूँ सोना क्यूँ कहा पीतल रहा हूँ
-‘ग़ाफ़िल’
क्या कभी इस तर्ह भी बेकल रहा हूँ
ख़ुश हुआ जिसने भी ओढ़ा या बिछाया
हर जनम मैं मख़मली कम्बल रहा हूँ
तू तो इस दर्ज़ा ख़फ़ा है आह मुझसे!
एक पल नज़रों से क्या ओझल रहा हूँ
आग हो सब दूर हट जाओ ऐ जज़्बो
बर्फ़ के मानिन्द मैं अब गल रहा हूँ
तू किसी भी तर्ह मेरा हो न पाया
गो तेरी आँखों का मैं काज़ल रहा हूँ
काश! तुझको इल्म हो जाता के मैं ही
तुझमें उल्फ़त का वो कल बल छल रहा हूँ
पीने वाले पी रहे ज्यूँ आबे अह्मर
फ़ित्रतन गोया मैं गंगाजल रहा हूँ
नब्ज़ अपनी की शुरू क्या जाँच करनी
लोग बोले कबका मैं पागल रहा हूँ
वक़्त ने पकड़ाई है जो राह उस पर
रोते हँसते गिरते उठते चल रहा हूँ
भूल जाए लाख तू पर हर दफा मैं
खुरदुरे प्रश्नो का तेरे हल रहा हूँ
देना तो होगा सुबूत अब तुझको ग़ाफ़िल
मैं हूँ सोना क्यूँ कहा पीतल रहा हूँ
-‘ग़ाफ़िल’
Tuesday, August 08, 2017
हमारे चश्म में अब भी लचक है
न यह समझो के बस दो चार तक है
रसूख़ अपना ज़मीं से ता’फ़लक़ है
नशा तारी है पीए बिन यहाँ जो
फ़ज़ाओं में हमारी ही महक़ है
बिछे हैं गुल जो आने की हमारे
हो जैसे भी बहारों को भनक है
तुम्हारी सिम्त हैं नज़रें हमारी
रक़ीबों का तुम्हारे चेहरा फ़क है
एक क़त्आ-
गई दुनिया बदल बस इस सबब ही
हमारे होने में अब हमको शक है
वगरना हम वही हैं थे कभी जो
हमें तो याद अब तक हर सबक है
फ़तह ब्रह्माण्ड हो सकता है ग़ाफ़िल
हमारे चश्म में अब भी लचक है
-‘ग़ाफ़िल’
रसूख़ अपना ज़मीं से ता’फ़लक़ है
नशा तारी है पीए बिन यहाँ जो
फ़ज़ाओं में हमारी ही महक़ है
बिछे हैं गुल जो आने की हमारे
हो जैसे भी बहारों को भनक है
तुम्हारी सिम्त हैं नज़रें हमारी
रक़ीबों का तुम्हारे चेहरा फ़क है
एक क़त्आ-
गई दुनिया बदल बस इस सबब ही
हमारे होने में अब हमको शक है
वगरना हम वही हैं थे कभी जो
हमें तो याद अब तक हर सबक है
फ़तह ब्रह्माण्ड हो सकता है ग़ाफ़िल
हमारे चश्म में अब भी लचक है
-‘ग़ाफ़िल’
Thursday, August 03, 2017
तू मेरा है मुझे लगता नहीं है
जो पहले था बस वो बच्चा नहीं है
न देख अब और मुझमें क्या नहीं है
तेरे दिल की ज़मीं पर इश्क़ हर दिन
मैं बोता हूँ मगर उगता नहीं है
न टपका ख़ूँ न झेला संग इक भी
तू आशिक़ है तो पर मुझसा नहीं है
तसव्वुर में गुज़ारी उम्र पर अब
तू मेरा है मुझे लगता नहीं है
तबस्सुम पर तेरे क़ुर्बां थीं रातें
वो तब जूँ था ये अब वैसा नहीं है
उधर रुख़ है तेरे तीरे नज़र का
तू क़ातिल है तो पर मेरा नहीं है
अरे ग़ाफ़िल तग़ाफ़ुल का तेरे अब
मुझे कोई गिला शिक़्वा नहीं है
-‘ग़ाफ़िल’
न देख अब और मुझमें क्या नहीं है
तेरे दिल की ज़मीं पर इश्क़ हर दिन
मैं बोता हूँ मगर उगता नहीं है
न टपका ख़ूँ न झेला संग इक भी
तू आशिक़ है तो पर मुझसा नहीं है
तसव्वुर में गुज़ारी उम्र पर अब
तू मेरा है मुझे लगता नहीं है
तबस्सुम पर तेरे क़ुर्बां थीं रातें
वो तब जूँ था ये अब वैसा नहीं है
उधर रुख़ है तेरे तीरे नज़र का
तू क़ातिल है तो पर मेरा नहीं है
अरे ग़ाफ़िल तग़ाफ़ुल का तेरे अब
मुझे कोई गिला शिक़्वा नहीं है
-‘ग़ाफ़िल’
Wednesday, August 02, 2017
क्या पता दिन है कहाँ रात किधर होती है
तेरे अश्कों की कहाँ मुझको ख़बर होती है
लाख मैं कहता रहूँ बात ये पर होती है
मैं लगा डालूँगा फिर अपने हर इक इल्मो फ़न
ये तेरी ज़ुल्फ़ किसी तर्ह जो सर होती है
तज़्किरा आज ही क्यूँ फ़र्च बयानी पे मेरी
ऐसी नादानी तो याँ शामो सहर होती है
सोचता हूँ के मेरा हाल भला क्या होगा
नाज़नीना तू अगर ज़ेरे नज़र होती है
एक बंजारे का मत पूछ ठिकाना, अपना
क्या पता दिन है कहाँ रात किधर होती है
ख़ाक तो डाल दिया मैंने ज़फ़ाई पे तेरी
दिल में रह-रहके मेरे टीस मगर होती है
होनी तो है ही किसी रोज़ फ़ज़ीहत अपनी
फ़र्क़ क्या आज ही ग़ाफ़िल जी अगर होती है
-‘ग़ाफ़िल’
लाख मैं कहता रहूँ बात ये पर होती है
मैं लगा डालूँगा फिर अपने हर इक इल्मो फ़न
ये तेरी ज़ुल्फ़ किसी तर्ह जो सर होती है
तज़्किरा आज ही क्यूँ फ़र्च बयानी पे मेरी
ऐसी नादानी तो याँ शामो सहर होती है
सोचता हूँ के मेरा हाल भला क्या होगा
नाज़नीना तू अगर ज़ेरे नज़र होती है
एक बंजारे का मत पूछ ठिकाना, अपना
क्या पता दिन है कहाँ रात किधर होती है
ख़ाक तो डाल दिया मैंने ज़फ़ाई पे तेरी
दिल में रह-रहके मेरे टीस मगर होती है
होनी तो है ही किसी रोज़ फ़ज़ीहत अपनी
फ़र्क़ क्या आज ही ग़ाफ़िल जी अगर होती है
-‘ग़ाफ़िल’
Tuesday, August 01, 2017
आशिक़ी
आदाब दोस्तो!
मैं हूँ आशिक़ शे’र लिखना शाइरों का है शगल
मैंने तो बस वह लिखा है जो लिखाई आशिक़ी
पास होना था, हुआ, पर कैसे बतलाऊँ मुझे,
कब, कहाँ, किस तर्ह, कितना आज़माई आशिक़ी
-‘ग़ाफ़िल’
मैं हूँ आशिक़ शे’र लिखना शाइरों का है शगल
मैंने तो बस वह लिखा है जो लिखाई आशिक़ी
पास होना था, हुआ, पर कैसे बतलाऊँ मुझे,
कब, कहाँ, किस तर्ह, कितना आज़माई आशिक़ी
-‘ग़ाफ़िल’
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