Thursday, December 28, 2017

फिर मेरा तब्सिरा करे कोई

दिल्ली और आगरा करे कोई
किस तरह फैसला करे कोई

ख़ुद तो ख़ुद का न ग़मगुसार हुआ
अब जो चाहे भी क्या करे कोई

अपनी ही तू करेगी ऐ किस्मत
क्यूँ तेरा आसरा करे कोई

गुफ़्तगू का न गर सलीका हो
अपनी ज़द में रहा करे कोई

ख़ूबी वह पहले ख़ुद में लाए तो
फिर मेरा तब्सिरा करे कोई

पूछे क्यूँ क्या है आतिशे उल्फ़त
पावँ उसमें ज़रा करे कोई

आह! ग़ाफ़िल नज़र के तीरों से
बोलिए क्या गिला करे कोई

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, December 26, 2017

नज़ारा भी तो अब है बदला हुआ

अरे! यह भी घाटे का सौदा हुआ
जो अपना था वह दूसरे का हुआ

न इक ठौर ठहरे न इक रह चले
मुसाफ़िर लगे है वो पहुँचा हुआ

उसी के है पास अपना जेह्नो जिगर
उसे इश्क़ में भी मुनाफ़ा हुआ

ये अच्छा है, देता है जो दर्दो ग़म
वही पूछता है भला क्या हुआ

हमेशा नज़र पर ही इल्ज़ाम क्यूँ
नज़ारा भी तो अब है बदला हुआ

न सोच! आएगा उसमें तूफ़ाँ कोई
वो दर्या है वह भी है ठहरा हुआ

भला क्यूँ न उसको हरियरी दिखे
जो सावन में ग़ाफ़िल जी अंधा हुआ

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, December 15, 2017

ग़ाफ़िल जी आप दिल से हमारे अगर गए

लम्बी कोई तो कोई रहे मुख़्तसर गए
लेकिन तुम्हारे ठौर ही सारे सफ़र गए

अपना मक़ाम दिल के तेरे बीचो बीच था
मुश्क़िल हमें था जाना वहाँ तक मगर गए

हो उस निगाहे लुत्फ़ की तारीफ़ किस तरह
जिसकी बिनाहे शौक नज़ारे सँवर गए

जाँबर सभी थे जान बचाकर लिए निकल
हम ही थे इक जो तेरी अदाओं पे मर गए

तो फिर नहीं बुलाएँगे ता’उम्र आपको
ग़ाफ़िल जी आप दिल से हमारे अगर गए

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, December 12, 2017

सुना है जैसे को तैसा मिलेगा

न सोच इस बज़्म में अब क्या मिलेगा
मिलेगा जो बहुत उम्दा मिलेगा

तू चल तो दो क़दम उल्फ़त की रह पर
जिसे देखा न वो सपना मिलेगा

फ़ज़ीहत के सिवा क़ूचे में तेरे
पता है और भी क्या क्या मिलेगा

ज़रा उस वक़्त की तारीफ़ तो कर
किसी भौंरे से जब गुञ्चा मिलेगा

बनेगी ही नहीं क़िस्मत से अपनी
हमें हर हाल में सहरा मिलेगा

रहे कितना भी उसका क़ाफ़िया तंग
मगर हर शख़्स इतराता मिलेगा

नहीं तू मिल सका पर है यक़ीं यह
कोई तो इक तेरे जैसा मिलेगा

रक़ीबों से हसद क्यूँ हो भला जब
हमें प्यार अपने हिस्से का मिलेगा

हुआ ग़ाफ़िल है मासूम इसलिए भी
सुना है जैसे को तैसा मिलेगा

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, December 09, 2017

मगर कल आज सा सस्ता नहीं था

न कहना यह के यार ऐसा नहीं था
किया हमने जो था धोखा नहीं था

तुझे तो बारहा हम जानते हैं
तू रुस्वा था तो पर इतना नहीं था

भले खोटा हो लेकिन चल न पाए
यूँ कल तो एक भी सिक्का नहीं था

थीं गो बेबाकियाँ रिश्तों में फिर भी
कोई नासूर दिखलाता नहीं था

बिका तो कल भी था ग़ाफ़िल कुछ ऐसे
मगर कल आज सा सस्ता नहीं था

-‘ग़ाफ़िल’

इससे तो अच्छा है झगड़ा करिए

करिए तारीफ़ के शिक़्वा करिए
जो भी करिए ज़रा अच्छा करिए

न रहा आपसे अब इत्तेफ़ाक़
अब ख़यालों में न आया करिए

आपको कर तो दूँ रुस्वा लेकिन
जी नहीं कहता है ऐसा करिए

हुस्न इज़्ज़त का है तालिब इसका
न सरे राह तमाशा करिए

आप करते हैं तग़ाफ़ुल ग़ाफ़िल
इससे तो अच्छा है झगड़ा करिए

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, December 05, 2017

जाने दे

ढल चुकी रात, है आग़ाज़े सहर, जाने दे!
राह पुरख़ार है माना के, मगर जाने दे!!

तुझसे तो होगा ही इक दिन ऐ नसीब इत्तेफ़ाक़
रुक मेरे जज़्बों को थोड़ा तो ठहर जाने दे

कुछ तो थी बात के आते ही मेरे पहलू में
नाज़ो अंदाज़ से बोला था क़मर, जाने दे!!

होश में आऊँगा फिर घर भी चला जाऊँगा
पी जो मय होंटों की उसका तो असर जाने दे

आतिशे इश्क़ में ग़ाफ़िल! न कहीं जल जाए
ख़ूबसूरत सा मेरे दिल का नगर, ...जाने दे!!

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, November 29, 2017

स्वाती की इक बूँद

अब न चातक को रही स्वाती की इक बूँद की आस
था पता किसको ज़माना यूँ बदल जाएगा

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, November 24, 2017

हम अक़्सर देखे हैं

दर पर तेरे रोज़ रगड़ते पेशानी
हुस्न! हम कई शाह कलन्दर देखे हैं

संगमरमरी ताज की दीवारों पर भी
दाग़ खोजते लोग हम अक़्सर देखे हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, November 21, 2017

देखिए लेके कहाँ जाती है उल्फ़त मेरी

सच कहूँ जाऊँगा हर हाल नहीं छोड़ ये दर
पर दिखे इक भी तो जिसको हो ज़ुरूरत मेरी
मैं न घर का ही रहा और न ही घाट का अब
देखिए लेके कहाँ जाती है उल्फ़त मेरी

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, November 18, 2017

घर अपना

चाहता है हर कोई शह्र में हो घर अपना
पर हम आओ सहरा में आशियाँ बनाते हैं

-‘ग़ाफ़िल’
(चित्र गूगल से साभार)

Tuesday, November 14, 2017

इतना भी ग़ुरूर इश्क़ में अच्छा नहीं होता

होती न ख़लिश जी में तेरे तीरे नज़र की
पक्का है मेरी जान मैं ज़िन्दा नहीं होता
फिर भी न बहुत पाल भरम हुस्न के बाबत
इतना भी ग़ुरूर इश्क़ में अच्छा नहीं होता

-‘ग़ाफ़िल’
(चित्र गूगल से साभार)

Thursday, November 09, 2017

अपना वह रोज़गार अच्छा था

ख़ैर अब शे’र भी हैं मुट्ठी में
जब था ग़ाफ़िल शिकार अच्छा था
मरना शामो सहर हसीनों पर
अपना वह रोज़गार अच्छा था

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, November 07, 2017

तू न अब ऐसे लगे जैसे लगे लत कोई

जोर क्या दिल में मेरे आए भी गर मत कोई
जी करे गर तो करे मुझसे मुहब्बत कोई

नाम की उसके ही क्यूँ माला जपूँ रोज़ो शब
जो न महसूस करे मेरी ज़ुरूरत कोई

मैं भी देखूँ तो कोई रहता है मुझ बिन कैसे
कर दे हाँ आज अभी कर दे बग़ावत कोई

याद है लुत्फ़ का आलम वो के बरसात की रात
हम थे और हमपे टपकती थी टँगी छत कोई

रोज़ो शब जिसके तसव्वुर में गुज़ारी मैंने
हुस्न सी तेरे थी ऐ दोस्त वो आफ़त कोई

मैं भी रह लूँगा मेरी जाने ग़ज़ल तेरे बग़ैर
तू न अब ऐसे लगे जैसे लगे लत कोई

अब नहीं आती है ग़ाफ़िल जी मेरे जी में ये बात
के कभी मुझको लिखे मेरा सनम ख़त कोई

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, November 03, 2017

मगर इंसान डरकर बोलता है

नहीं मालूम क्यूँकर बोलता है
ये जो मेढक सा टर टर बोलता है

न थी चूँ करने की जिस दिल की हिम्मत
वो अब ज़्यादा ही खुलकर बोलता है

जवानी की तो किर्चें भी हैं ग़ायब
नशा फिर भी चढ़ा सर बोलता है

क़फ़स में शर्तिया है देख लो जा
परिंदा मेरे सा गर बोलता है

नहीं हैं तोप फिर भी बीवियों से
हर इक इंसान डर कर बोलता है

मज़ाक़ इससे भला क्या होगा अच्छा
तू कैसा है सितमगर बोलता है

करम फूटा था जो ग़ाफ़िल हुआ था
सुख़नवर मुझसा अक़्सर बोलता है

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, October 31, 2017

लेकिन शराबे लब की ख़ुमारी है आज भी

वह सिलसिला-ए-मात जो जारी है आज भी
उसमें सुना है मेरी ही बारी है आज भी

शर्मा के मेरे पहलू से उठ जाना बार बार
तेरी अदा ये वैसी ही प्यारी है आज भी

कौंधी थी वर्क़ सी जो कसक दरमियाने दिल
यारो सुरूर उसका ही तारी है आज भी

इज़्हारे इश्क़ की ये मेरी शोख़ तमन्ना
तेरे ग़ुरूरे ख़ाम से हारी है आज भी

गोया के हाले दौर में जाता रहा चलन
तलवार मेरी फिर भी दुधारी है आज भी

इतिहास हो चुका है गो भूगोल जिस्म का
लेकिन शराबे लब की ख़ुमारी है आज भी

ग़ाफ़िल वो मुस्कुरा के तेरा टालना मुझे
हर इक अदा-ए-शोख़ पे भारी है आज भी

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, October 25, 2017

ज़रा सा मुस्कुरा देते मेरा इन्आम हो जाता

तुम्हारा दर मेरे आना जो सुब्हो शाम हो जाता
क़सम अल्लाह की यह एक उम्दा काम हो जाता

नशीला हूँ सरापा गो मगर इक बार मुझको तुम
अगर नज़रों छू देते छलकता जाम हो जाता

नहीं उल्फ़त अदावत ही सही तुम कुछ तो कर लेते
तुम्हारे नाम से जुड़कर मेरा भी नाम हो जाता

मेरे पास आ गए होते अगर तुम मिस्ले चारागर
हरारत थी मुहब्बत की ज़रा आराम हो जाता

निगाहे लुत्फ़ मेरे सिम्त होता और तुम ग़ाफ़िल
ज़रा सा मुस्कुरा देते मेरा इन्आम हो जाता

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, October 23, 2017

शाइरी इस तरह भी होती है

बन्द आँखों में रोशनी सी है
जैसे जी में ही शम्अ जलती है

उसने पूछा के ख़्वाब कैसा था
कह न पाया हसीं तू जितनी है

अपने घर में ही मिस्ले मिह्माँ हूँ मैं
लब तो हँसते हैं आँख गीली है

इसकी फ़ित्रत में जब है तारीकी
पूछते क्यूँ हो रात कैसी है

और कितना उघार दूँ ख़ुद को
जिस्म पर अब फ़क़त ये बंडी है

एक अर्सा हुआ सताए हुए
किसकी जानिब निग़ाह तेरी है

इश्क़ और पत्थरों का रिश्ता है गर
हुस्न की शब् भी करवटों की है

क़त्ल हो जाए कोई देखे से ही
शाइरी इस तरह भी होती है

कुछ भी कह दे के आए कल ग़ाफ़िल
वर्ना यह वस्ल आख़िरी ही है

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, October 13, 2017

कौन है वह क़िस्मतवर

गर नहीं मैं हूँ तो फिर कौन है वह क़िस्मतवर
रात जिसके ही तसव्वुर में गुज़रती है तेरी

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, October 10, 2017

तीरे नज़र

सोचा था शब कटेगी सुक़ूँ से के उसने फिर
तीरे नज़र जिगर के मेरे पार कर दिया

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, October 04, 2017

कोर्ट से जबरन जमानत हो गयी

चाहता मैं रह गया ज़िंदाने ज़ुल्फ़
कोर्ट से जबरन जमानत मिल गयी

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, October 03, 2017

तो वह भाँग अपनी भी खाई हुई है

न धेले की यारो कमाई हुई है
जो दौलत है अपनी वो पाई हुई है

किसी तर्ह भी अब न होगा बराबर
मेरे जेह्न की यूँ खुदाई हुई है

हक़ीक़त यही है के जब हम मिले हैं
ज़ुदाई तलक बस लड़ाई हुई है

मेरा शौक जलने का है इसलिए भी
के आतिश तेरी ही लगाई हुई है

कहाँ तुझसे पाना निज़ात अब है मुम्क़िन
तू नागन जो इक चोट खाई हुई है

गई मर्ज़ तब ही मरीज़ उठ गया जब
कुछ इस ही सिफ़त की दवाई हुई है

अगर तुझको ग़ाफ़िल गुरूर इश्‍क़ का है
तो वह भाँग अपनी भी खाई हुई है

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, September 30, 2017

बेआवाज़ की बातें करो

पहले ही अंज़ाम? उफ़्!!! आग़ाज़ की बातें करो!
कर रहे हो आज तो फिर आज की बातें करो!!
रोज़ तो करते ही हो आवाज़ की बातें तुम आज,
टूटते इस दिल की बेआवाज़ की बातें करो!!

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, September 27, 2017

सब रोज़गार अपने चलते ही ख़्वाब पर हैं

जी! हौसले हमारे पूरे शबाब पर हैं
डूबेंगे हम न हर्गिज़ माना के आब पर हैं

हमको पता है क्या है अंज़ाम होने वाला
फिर भी हमारी नज़रें अब आफ़ताब पर हैं

हम मह्वेख़्वाब को हो क्यूँ नींद से जगाते
सब रोज़गार अपने चलते ही ख़्वाब पर हैं

गोया कभी भी हमने उनको नहीं बुलाया
दिल में हमारे अक़्सर आए जनाब पर हैं

अच्छे गुलाब हैं पर ग़ाफ़िल जी क्या करोगे
उनका भला जो सारे काँटे गुलाब पर हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, September 23, 2017

उस शख़्स पर से तीरे नज़र यूँ फिसल गया

मानिंदे बर्फ़ कोह सा पत्थर पिघल गया
हाँ! शम्स दोपहर था चढ़ा शाम ढल गया

छलने की मेरी बारी थी पर वह छला मुझे
मेरा नसीबे ख़ाम वो यूँ भी बदल गया

मुझको पता नहीं है मगर कुछ तो बात है
जो चाँद आज दिन के उजाले निकल गया

साबुन लगे से जिस्म से फिसला हो जैसे दस्त
उस शख़्स पर से तीरे नज़र यूँ फिसल गया

रुख़ उसका मेरी सू था मगर लुत्फ़ ग़ैर सू
वक़्ते अजल मेरा यूँ कई बार टल गया

कहते हैं लोग वह भी तो शाइर है बाकमाल
क्यूँ मुझको यूँ लगा के वही ज़ह्र उगल गया

ग़ाफ़िल जी आप करते रहे शाइरी उधर
तीरे नज़र रक़ीब का जाना पे चल गया

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, September 15, 2017

तो वादाखि़लाफ़ी का फ़न लेके लौटा

बताओ! गया जो भी उल्फ़त के रस्ते
कहाँ वह सुक़ूनो अमन लेके लौटा
अरे!! लौटा भी दिल जो सुह्बत से उनकी
तो वादाखि़लाफ़ी का फ़न लेके लौटा

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, September 13, 2017

आस्तीं का साँप

मैं पाल तो लूँ शौक से इक आस्तीं का साँप
लेकिन यक़ीन तो हो के है ज़ह्र से तिही

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, September 11, 2017

पागलों की क्या कमी है आजकल

प्यास की शिद्दत बढ़ी है आजकल
जबके आँखों में नदी है आजकल

मुस्कुराए बिन चले जाते हो तुम
ऐसी भी क्या बेबसी है आजकल

जी नहीं ज़र का फ़क़त है राबिता
किस सिफ़त की दोस्ती है आजकल

आजकल छत पर ही आ जाता है चाँद
इसलिए कुछ ताज़गी है आजकल

शह्र की सड़कें खचाखच हैं भरी
तन्हा फिर भी आदमी है आजकल

तुम उगलते थे जिसे वह ज़ह्र भी
हद से ज्‍़यादा क़ीमती है आजकल

उनका रुत्‍बा, उनकी ख़ुशियाँ उनकी ठीस
और इधर लाचारगी है आजकल

क्यूँ लगे है इस तरह जैसे क़फ़न
ज़िन्दगी भी ओढ़ती है आजकल

कर रहे ग़ाफ़िल जी तुम भी शाइरी
पागलों की क्या कमी है आजकल

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, September 08, 2017

दिखा तो है कोई आते हुए

हमारी याद तक आई नहीं उन्हें, फिर भी
अगर वो ख़ुश हैं दिखा तो है कोई आते हुए

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, September 05, 2017

शर्तिया सोना ख़रा हो जाएगा

रंगो रोगन से सजे इस जिस्म का
इल्म भी क्या है के क्या हो जाएगा
आतिशे उल्फ़त में जल जा तू भी हुस्न
शर्तिया सोना ख़रा हो जाएगा

-‘ग़ाफ़िल’
(चित्र गूगल से साभार)

Friday, September 01, 2017

शबे विसाल

ग़ाफ़िल अब इस शबे विसाल के बाद
भूल जाए न टीस फ़ुर्क़त की

-‘ग़ाफ़िल’
(चित्र गूगल से साभार)

Thursday, August 31, 2017

शर्म उसको ज़रा नहीं आयी

पानी पानी मैं हो रहा था मगर
शर्म उनको ज़रा नहीं आयी

-‘ग़ाफ़िल’
(चित्र गूगल से साभार)

Tuesday, August 29, 2017

वह लबों पर थी ग़ज़ल सी आई

सारे नग़्मों ने जब इंकार किया
वह लबों पर थी ग़ज़ल सी आई

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, August 24, 2017

ज़ुर्अत क्यूँ नहीं करते

हमें उनसे शिक़ायत थी, शिक़ायत है, रहेगी भी
के वे मुझसे मेरी कोई शिक़ायत क्यूँ नहीं करते
भले घुट घुट के ही जीना पड़े पर मैं न पूछूँगा
के मुझको अब सताने की वो ज़ुर्अत क्यूँ नहीं करते

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, August 19, 2017

ख़्वाहिश अपनी जाके मैख़ाने लगी

जिस अदा से आ मेरे शाने लगी
मुझको रुस्वाई भी रास आने लगी

अब क़यामत मुझपे आने को है, वो
सुन रहा मेरी ग़ज़ल गाने लगी

बाद उसके क्या बताऊँ किस तरह
ख़्वाहिश अपनी जाके मैख़ाने लगी

वस्ल की शब का ज़रा आ पाए लुत्फ़
उसके पहले ही वो क्यूँ जाने लगी

हो कभी शायद ही अब दीदारे गुल
जब कली ही यार मुरझाने लगी

होश में आए भी ग़ाफ़िल किस तरह
फिर वो पल्लू अपना सरकाने लगी

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, August 18, 2017

निहारा नहीं गया

गो चाँदनी थी मैं थी मेरे रू-ब-रू वो थे
भर आँख उनको फिर भी निहारा नहीं गया

-‘ग़ाफ़िल’


किस्सा गुलाब का

कोठी भी जा चुकी है न कोठे की बात कर
होगा बुरा अब और भी क्या मह्वेख़्वाब का

काँटों से अट चुका है मुसल्सल मेरा लिबास
फ़ुर्सत मिली तो लिक्खूँगा किस्सा गुलाब का

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, August 16, 2017

तुझपे इल्ज़ाम लगाएँ तो लगाएँ कैसे

तू ही तो बाइसे रुस्वाई है लेकिन ग़ाफ़िल
तुझपे इल्ज़ाम लगाएँ तो लगाएँ कैसे

-‘ग़ाफ़िल’

मेरा सम्मान अब होने लगा है

ज़रा नुक़्सान अब होने लगा है
कोई नादान अब होने लगा है

किसी के प्यार की बारिश बिना दिल
जूँ रेगिस्तान अब होने लगा है

न जाने क्यूँ, जो आँसू आईना था
वो बेईमान अब होने लगा है

सिफ़त मेरी है या है मर्तबे की
मेरा सम्मान अब होने लगा है

रिवाज़े डांस है, गाना-बज़ाना
बिना सुर-तान अब होने लगा है

ख़याल उम्दा ही ये होगा बरहना
अगर इंसान अब होने लगा है

तसव्वुर से ही तेरे वक़्त ग़ाफ़िल
अहा! आसान अब होने लगा है

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, August 14, 2017

भला मैं किस तरह ज़िन्दा रहूँगा

मुझे लगता नहीं अच्छा रहूँगा
यूँ तेरे कू में गर आता रहूँगा

अड़ा है तू न मिलने की ही ज़िद पर
न जानूँ मैं के अब कैसा रहूँगा

तू यूँ ही तैरने आता रहे मैं
क़सम से उम्र भर दर्या रहूँगा

भले ही जाम टकराता हूँ शब् भर
मैं तेरी दीद का प्यासा रहूँगा

नसीब अब हो ही जाए हाथ इक दो
तू है बादिश तो मैं इक्का रहूँगा

रहा महरूम गर शिक़्वों से तेरे
भला मैं किस तरह ज़िन्दा रहूँगा

सँवारूँगा मैं किस्मत तेरी ग़ाफ़िल
भले टूटा हुआ तारा रहूँगा

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, August 12, 2017

क़ुद्रतन गोया मैं गंगाजल रहा हूँ

जिस तरह उल्फ़त में तेरी जल रहा हूँ
क्या कभी इस तर्ह भी बेकल रहा हूँ

ख़ुश हुआ जिसने भी ओढ़ा या बिछाया
हर जनम मैं मख़मली कम्बल रहा हूँ

तू तो इस दर्ज़ा ख़फ़ा है आह मुझसे!
एक पल नज़रों से क्या ओझल रहा हूँ

आग हो सब दूर हट जाओ ऐ जज़्बो
बर्फ़ के मानिन्द मैं अब गल रहा हूँ

तू किसी भी तर्ह मेरा हो न पाया
गो तेरी आँखों का मैं काज़ल रहा हूँ

काश! तुझको इल्म हो जाता के मैं ही
तुझमें उल्फ़त का वो कल बल छल रहा हूँ

पीने वाले पी रहे ज्यूँ आबे अह्मर
फ़ित्रतन गोया मैं गंगाजल रहा हूँ

नब्ज़ अपनी की शुरू क्या जाँच करनी
लोग बोले कबका मैं पागल रहा हूँ

वक़्त ने पकड़ाई है जो राह उस पर
रोते हँसते गिरते उठते चल रहा हूँ

भूल जाए लाख तू पर हर दफा मैं
खुरदुरे प्रश्नो का तेरे हल रहा हूँ

देना तो होगा सुबूत अब तुझको ग़ाफ़िल
मैं हूँ सोना क्यूँ कहा पीतल रहा हूँ

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, August 08, 2017

हमारे चश्म में अब भी लचक है

न यह समझो के बस दो चार तक है
रसूख़ अपना ज़मीं से ता’फ़लक़ है

नशा तारी है पीए बिन यहाँ जो
फ़ज़ाओं में हमारी ही महक़ है

बिछे हैं गुल जो आने की हमारे
हो जैसे भी बहारों को भनक है

तुम्हारी सिम्त हैं नज़रें हमारी
रक़ीबों का तुम्हारे चेहरा फ़क है

एक क़त्आ-

गई दुनिया बदल बस इस सबब ही
हमारे होने में अब हमको शक है
वगरना हम वही हैं थे कभी जो
हमें तो याद अब तक हर सबक है

फ़तह ब्रह्माण्ड हो सकता है ग़ाफ़िल
हमारे चश्म में अब भी लचक है

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, August 03, 2017

तू मेरा है मुझे लगता नहीं है

जो पहले था बस वो बच्चा नहीं है
न देख अब और मुझमें क्या नहीं है

तेरे दिल की ज़मीं पर इश्क़ हर दिन
मैं बोता हूँ मगर उगता नहीं है

न टपका ख़ूँ न झेला संग इक भी
तू आशिक़ है तो पर मुझसा नहीं है

तसव्वुर में गुज़ारी उम्र पर अब
तू मेरा है मुझे लगता नहीं है

तबस्सुम पर तेरे क़ुर्बां थीं रातें
वो तब जूँ था ये अब वैसा नहीं है

उधर रुख़ है तेरे तीरे नज़र का
तू क़ातिल है तो पर मेरा नहीं है

अरे ग़ाफ़िल तग़ाफ़ुल का तेरे अब
मुझे कोई गिला शिक़्वा नहीं है

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, August 02, 2017

क्या पता दिन है कहाँ रात किधर होती है

तेरे अश्कों की कहाँ मुझको ख़बर होती है
लाख मैं कहता रहूँ बात ये पर होती है

मैं लगा डालूँगा फिर अपने हर इक इल्मो फ़न
ये तेरी ज़ुल्फ़ किसी तर्ह जो सर होती है

तज़्किरा आज ही क्यूँ फ़र्च बयानी पे मेरी
ऐसी नादानी तो याँ शामो सहर होती है

सोचता हूँ के मेरा हाल भला क्या होगा
नाज़नीना तू अगर ज़ेरे नज़र होती है

एक बंजारे का मत पूछ ठिकाना, अपना
क्या पता दिन है कहाँ रात किधर होती है

ख़ाक तो डाल दिया मैंने ज़फ़ाई पे तेरी
दिल में रह-रहके मेरे टीस मगर होती है

होनी तो है ही किसी रोज़ फ़ज़ीहत अपनी
फ़र्क़ क्या आज ही ग़ाफ़िल जी अगर होती है

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, August 01, 2017

आशिक़ी

आदाब दोस्तो!

मैं हूँ आशिक़ शे’र लिखना शाइरों का है शगल
मैंने तो बस वह लिखा है जो लिखाई आशिक़ी

पास होना था, हुआ, पर कैसे बतलाऊँ मुझे,
कब, कहाँ, किस तर्ह, कितना आज़माई आशिक़ी

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, July 30, 2017

जा और किसी को यार बना

ख़ुद का ख़ुद ही मुख़्तार बना
यूँ ग़ाफ़िल भी सरदार बना

यह दुनिया फ़ख़्र करे तुझ पर
ऐसा अपना किरदार बना

मन-मुटाव जो काट-छाँट दे
ऐसी ख़ासी तलवार बना

गुल कब तक साथ निभाएँगे
तू इक दो साथी ख़ार बना

सच है बस समझ के बाहर है
के है प्यार भी कारोबार बना

मैं ग़ाफ़िल हूँ नासमझ नहीं
जा और किसी को यार बना

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, July 28, 2017

ताबानी-ए-रुख़

इन पसीनों के कणों से है यूँ ताबानी-ए-रुख़
जैसे माथे पे तेरे शम्स कई रोशन हों

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, July 23, 2017

सचबयानी

ज़र्द रू, ख़ामोश लब और आँखों में अश्कों का रक्स
इस तरह भी हो रही कुछ सचबयानी, देखिए!

-‘ग़ाफ़िल’
(चित्र गूगल से साभार)

Saturday, July 22, 2017

मेरे ख़ार काम आया है

आदाब दोस्तो!

कोई भी दिल तो कभी हो सका न अपना मक़ाम
हर एक लब पे मगर अपना नाम आया है

तमाम फूल किसी और के लिए होंगे
है आया जब भी मेरे ख़ार काम आया है

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, July 20, 2017

भला हो

आदाब दोस्तो!

भले चुप था सफ़र भर, साथ तो था
भला हो ख़ूबतर उस अज़्नबी का

-‘ग़ाफ़िल’


Monday, July 17, 2017

ख़ार की बातें करो

अब हुआ जाता है बिन इज़्हार ही इक़रारे इश्क़
लुत्फ़ यूँ जाता रहा, तकरार की बातें करो
सुन रहा हूँ जाने कब से हो रही फूलों की बात
टेस्ट एहसासों का बदले, ख़ार की बातें करो

-‘ग़ाफ़िल’

जाम ग़ाफ़िल ज़रा छुपा रखिए

आईना आपसे ख़फ़ा है अगर
फिर तो अब हमसे राबिता रखिए
हैं यहाँ लोग आज संज़ीद:
जाम ग़ाफ़िल ज़रा छुपा रखिए

-‘ग़ाफ़िल’

आजमाऊँ ख़ुद को मैं

झम झमाझम मेघ बरसे कड़कड़ाती बिजलियाँ
हिज़्र की तारीक शब् में आजमाऊँ ख़ुद को मैं
किस ख़ता की दी सज़ा सावन में तन्हा कर मुझे
बन सँवर कर जाने जाना क्या रिझाऊँ ख़ुद को मैं

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, July 15, 2017

लौटा है क्या ख़ाक कमाकर

झलक रहा है ऐसे गौहर
ज्यूँ पेशानी पर श्रमसीकर

बुन सकता हूँ मैं ज्यूँ रिश्ता
ख़ाक बुनेगा वैसा बुनकर

जो था तुझमें तू, ग़ायब है
लौटा है क्या ख़ाक कमाकर

दाग रहे सब शे’र शे’र पर
जान बचे अब शायद सोकर

ग़ाफ़िल रात रात भर चन्दा
क्या पाया टहनी पर टँगकर

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, July 12, 2017

जाम खाली न हुआ और वो भर जाता है

है लगे आज रुकेगा वो मगर जाता है
क्या पता है के कहाँ सुब्ह क़मर जाता है

लोग आते हैं चले जाते है कर तन्हा मुझे
तू तो रुक जाए इधर यार किधर जाता है

आया है करने जो आबाद मेरे दिल का नगर
उसको तो रुकना ही था देखिए पर जाता है

इस क़दर चाहने वाला है मेरा भी कोई
जाम खाली न हुआ और वो भर जाता है

बाद दीदार के तेरे है अजब ये होता
आईना देख मुझे ख़ुद ही सँवर जाता है

हूँ तो ग़ाफ़िल ही मगर तुझसे तो इस तर्ह नहीं
के मेरे नाम पे जैसे तू बिफर जाता है

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, July 05, 2017

कोई शब् भर मनाता था किसी का रूठ जाना था

आदाब! दो शे’र आप सबको नज़्र-

तसव्वुर में गुज़ारीं जागकर मैंने कई शब् पर
उन्हें आना नहीं आया जिन्हें ख़्वाबों में आना था

हसीं रातें थीं वे फिर भी भले तारीक रातें थीं
कोई शब् भर मनाता था किसी का रूठ जाना था

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, July 04, 2017

भाते हैं गो मुझे भी नफ़ासत के रास्ते

तक़्दीर है के चलता हूँ ग़ुरबत के रास्ते
भाते हैं गो मुझे भी नफ़ासत के रास्ते

मेरे लिए ही बन्द हुई जा रही है क्यूँ
वह क़ू जहाँ से जाते हैं किस्मत के रास्ते

तुह्मत लगाई जाती यूँ आवारगी की क्या
चल देता गर कभी मैं ज़ुरूरत के रास्ते

पा जाऊँगा ही तुझको हो ग़ाफ़िल यक़ीं अगर
तो क्यूँ क़ुबूल कर न लूँ ज़ुर्रत के रास्ते

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, July 03, 2017

काश! के फिर बन पाता रिश्ता

अब दुश्वार है जीसस बनना
गया रिवाज़ सलीबों वाला

ख़ारेपन से बच जाता गर
सागर थोड़ा भी रो लेता

सर्पिल सी इक पगडण्डी से
काश! के फिर बन पाता रिश्ता

अब वह शायद टूट चुकी है
जिस टहनी पर चाँद टँगा था

लौट आओगे तब न दिखेगा!
बूढ़ा पीपल बाट जोहता

लगने लगा अब ख़्वाब मुझे क्यूँ
ओरी छप्पर पानी झरता

ग़ाफ़िल गौरइयों के चूजे
कोटर वाला साँप खा गया

-‘ग़ाफ़िल’
(चित्र गूगल से साभार)

Thursday, June 29, 2017

हिन्‍द वालों से न पूछो मेज़बानी की वजह

जान ही जाएँगे आप इक दिन कहानी की वजह
है क़शिश कोई तो दर्या के रवानी की वजह

मौत पर अपनी भला क्यूँ उसका मानें इख़्तियार
शै नहीं है जो हमारी ज़िन्दगानी की वजह

हर कोई मिह्मान रखता है ख़ुदा का मर्तबा
हिन्‍द वालों से न पूछो मेज़बानी की वजह

कैसे बन सकता है कोई एक अहले मुल्क़ के
भूखे नंगों बेकसों के दाना पानी की वजह

हूँ मुसन्निफ़ तो क़सीदाकार पर हरगिज़ नहीं
फिर कहो क्या है तुम्हारी मिह्रबानी की वजह

होके ग़ाफ़िल देख लेना यह क़रिश्माई फ़ितूर
कोई ऊला किस तरह बनता है सानी की वजह

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, June 27, 2017

ज़िन्दगी ख़ुद को समझ बैठी है तन्हा कितना

आदमी कितना हैं हम और खिलौना कितना
सोचना चाहिए गो फिर भी यूँ सोचा कितना

क्या हुआ ख़ामियों का लोग उड़ाते हैं मज़ाक
ख़ूबियों का ही यहाँ होता है सुह्रा कितना

बेतरह दिल पे है क़ाबिज़ जो कहीं से आकर
सोचता हूँ के है उस शख़्स का हिस्सा कितना

उठ रहा मेरा जनाज़ा था जब इस दुनिया से
हाय! क़ातिल भी मेरा अश्क बहाया कितना!!

कोई बूढ़ा न हुआ कोई जवाँ भी तो नहीं
आख़िर इस शह्र का अब होगा तमाशा कितना?

ठीक है तेरी ये महफ़िल हो मुबारक तुझको
वैसे भी मेरा इधर होता है आना कितना

वस्ल के शब् की क़शिश साथ है ग़ाफ़िल फिर भी
ज़िन्दगी ख़ुद को समझ बैठी है तन्हा कितना

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, June 25, 2017

जनाज़े पर किसी के जाके मुस्काया नहीं करते

ज़रर हर मर्तबा वालों को बतलाया नहीं करते
फ़लक़ छू लें भले ही ताड़ पर छाया नहीं करते

बताओ डालोगे काँटा भला कितनी मछलियों पर
किसी के जी से यूँ खिलवाड़ ऐ भाया नहीं करते

सुना दो लंतरानी ही के जाए जी बहल अपना
कभी मासूम को मायूस कर जाया नहीं करते

अगर ग़मख़्वार हो तो आओ सच में ग़मग़लत कर दो
अरे ग़मग़ीन को ख़्वाबों में उलझाया नहीं करते

मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार मुझको मत समझ लेना
निगाहे बद कभी इंसाँ पे दौड़ाया नहीं करते

हमेशा मुस्कुराते हैं जो कोई उनको समझाओ
जनाज़े पर किसी के जाके मुस्काया नहीं करते

ज़ुरूरत हो नहीं तब भी मुख़ालिफ़ दौड़ आते हैं
ज़ुरूरत पर भी ग़ाफ़िल दोस्त कुछ आया नहीं करते

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, June 23, 2017

मगर उल्फ़त के अफ़साने रहेंगे

आदाब दोस्तो! यह दो शे’र आप सबके हवाले-

सफ़र की राह ही यूँ है के साथ अब
रहेंगे गर तो वीराने रहेंगे
भले ही दुनिया से उठ जाएँ उश्शाक़
मगर उल्फ़त के अफ़साने रहेंगे

-‘ग़ाफ़िल’


Thursday, June 22, 2017

क्यूँ उधर जाऊँ

आदाब अर्ज़ है!

हुस्न भी गो प्यार की है बात करता
पर लगे है बात उसकी दोगली है
और पत्थर सह नहीं पाऊँगा तो फिर
क्यूँ उधर जाऊँ जिधर उसकी गली है

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, June 15, 2017

तू नज़र भर देख तो ले क्या से क्या हो जाऊँगा

बेवफ़ा मैं आज हूँ कल बावफ़ा हो जाऊँगा
तू नज़र भर देख तो ले क्या से क्या हो जाऊँगा

आ तो मेरे सामने तू सज सँवर कर एक दिन
है सिफ़त मुझमें तेरा मैं आईना हो जाऊँगा

यूँ ही आगे भी सताया तू नहीं मुझको अगर
तुझसे फिर मैं ज़िन्दगी भर को ख़फ़ा हो जाऊँगा

है तुझे क्या इल्म भी रस्मे वफ़ा क्या चीज़ है
खेलना चाहेगा मुझको खेल सा हो जाऊँगा

तू हुआ ग़ाफ़िल अगर मेरी मुहब्बत से कभी
बस उसी ही पल यक़ीनन मैं हवा हो जाऊँगा

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, June 14, 2017

अब कोई और नशेबाज़ बुलाया जाए

मेरे भी सामने खुलकर कभी आया जाए
आतिशे हुस्न से मुझको भी जलाया जाए

इश्क़बाज़ों को बुरे अच्छे का हो इल्म ही क्यूँ
हमपे अब और न इल्ज़ाम लगाया जाए

खा क़सम कर ही दिया प्यार की इक रस्म अदा
तू बता और है क्या यूँ भी जो खाया जाए

है किसे होश यहाँ पी के नज़र वाली शराब
अब कोई और नशेबाज़ बुलाया जाए

जो भी ग़ुमराह किया करते हैं वो हैं अपने
यह सबक याद है कुछ और बताया जाए

रहबरी कर तो मैं सकता हूँ अपाहिज़ की भी
शर्त यह है के उसे राह पे लाया जाए

चैन जी को है मिले उसके ही दर ग़ाफ़िल जी
किस बहाने से मगर सोचिए जाया जाए

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, June 12, 2017

हम्‍माम

हम्‍माम में तो वैसे भी नंगे हैं सभी लोग
हम्‍माम भी कुछ यूँ है न छत है न है दीवार

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, June 10, 2017

लोग ज्यूँ बैंडबाज़े हुए

आप माना के मेरे हुए
पर हुआ अर्सा देखे हुए

मैं बताऊँ भी तो किस तरह
हादिसे कैसे कैसे हुए

ग़ैरमुम्क़िन है पाना सुक़ूँ
लोग ज्यूँ बैंडबाज़े हुए

मेरा गिरने का ग़म भी गया
आपको देख हँसते हुए

कम नहीं झेलना आपका
शे’र ग़ाफ़िल के जितने हुए

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, June 05, 2017

चुभी पर मुझे तो तेरी ही नज़र है

जो रुस्वाइयों की हसीं सी डगर है
भला क्यूँ जी उस पर ही ज़ेरे सफ़र है

तेरी याद में आ तो जाऊँ मैं लेकिन
तू फिर भूल जाएगा मुझको ये डर है

हूँ मैं ही तराशा ख़ुदा जो बना तू
अरे संग इसकी तुझे क्या ख़बर है

सबक इश्क़ का बेश्तर याद करना
लगे गोया इसमें ही सारी उमर है

हूँ क़ाइल शबे वस्ल का इसलिए मैं
के यह चुलबुली है भले मुख़्तसर है

ज़माना कहे तो कहे तुझको ग़ाफ़िल
चुभी पर मुझे तो तेरी ही नज़र है

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, June 01, 2017

जी ही तब मेरा जलाने आए

आए तू कोई बहाने आए
पास मेरे भी ज़माने आए
जब कभी सूझे नहीं हाथ को हाथ
जी ही तब मेरा जलाने आए

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, May 27, 2017

लीजिए वह लुत्फ़ जो ले पाइए

और अब संदेश मत भिजवाइए
लानी हो तशरीफ़ जब भी, लाइए

हैं नहीं कम ज़िन्दगी में पेचो ख़म
आप भी थोड़ा बहुत उलझाइए

तारी हो उल्फ़त का अब कुछ यूँ सुरूर
ख़ुद बहकिए मुझको भी बहकाइए

कौन है जो कह दिया दौराने इश्क़
आप भी मेरी तरह शर्माइए

आपसे उम्मीद गो ऐसी न थी
ख़ैर फिर भी जा रहे तो जाइए

दूध के धोए नहीं हैं आप भी
देख मुझको मुँह न यूँ बिचकाइए

मेरे जिस्मो जान से ग़ाफ़िल जी आज
लीजिए वह लुत्फ़ जो ले पाइए

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, May 26, 2017

तूने बात और ही छुपाई है

मैंने भी दुनिया ख़ूब देखी है
है पता खट्टी है के मीठी है

एक तूफ़ान जो है सीने में
क़श्ती-ए-ज़ीस्त डूबी जाती है

ज़िन्दगी हो सकी न अपनी तू
किसकी होने की क़स्म खाई है

जाना आना तेरा भी है जैसे
साँस जाती है साँस आती है

ख़ुश्बू यह तिर रही फ़ज़ाओं में जो
कोई चूनर हवा उड़ाई है

मुझमे मेरा ही अक्स ढूँढ रहा
तू ज़माने सा ही फरेबी है

इश्क़ ग़ाफ़िल छुपाए छुप न सके
तूने बात और ही छुपाई है

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, May 23, 2017

तू बता तेरा था जो तूने भी क्या जी भर दिया

क्या है रब यह तूने उसके हाथ में ख़ंजर दिया
और मेरे सीने को पत्थर सरीखा कर दिया

तू बता पहले ही कैसे मैं भला देता जवाब
तेरा ख़त बस आज ही तो मुझको नामाबर दिया

कोई तो लौटा दे थोड़ा वक़्त वह मैंने जिसे
जब ज़ुरूरत थी पड़ी तो लोगों को अक़्सर दिया

हो पता तुझको न लेकिन टूटता है यूँ भी जी
जो रटे है यह के मैंने जो दिया बेह्तर दिया

जो भी था मेरा उसे ग़ाफ़िल लुटाया शौक से
तू बता था तेरा जो तूने भी क्या जी भर दिया

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, May 20, 2017

जी फिर भी प्यासा रहता है

आँखों में दर्या रहता है
जी फिर भी प्यासा रहता है

जब तू नहीं रहता है जी में
जाने फिर क्या क्या रहता है

तू क्या जाने मुझे नशा तो
तेरी उल्फ़त का रहता है

मेरी आँखों में झाँके तो
तू ही, देखेगा, रहता है

गिरगिट रंग बदल ले कितना
साँपों का चारा रहता है

साँप नेवले के खेले सा
जग सारा चलता रहता है

मैं ग़ाफ़िल हूँ लेकिन तू तो
राेज़ो शब सोया रहता है

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, May 18, 2017

मेरी है आज तो कल तेरी भी बारी होगी

अपने गेसू की तरह तूने सँवारी होगी
तेरी ही मिस्ल तेरी बात भी न्यारी होगी

है पता बज़्म में तेरी जो चली मेरी ज़ुबाँ
फिर तो गर्दन पे मेरी चल रही आरी होगी

वक़्त अब मांग रहा आदमी होने का सुबूत
मेरी है आज तो कल तेरी भी बारी होगी

वैसे तो हिज़्र की ही रात थी दोनों की मगर
ख़ाक तू मेरी तरह रात गुज़ारी होगी

तू सताया ही नहीं मुझको कभी भी ग़ाफ़िल
तेरी यह बात मेरी ज़ीस्त पे भारी होगी

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, May 12, 2017

मुझको ग़ैरों के लिए छोड़ के जाने वाले

आह आए ही नहीं जी को जलाने वाले
औ तमाशा भी सभी देखने आने वाले

मुझको जब आने लगा उनके सताने में मज़ा
क्यूँ तभी रूठ गए लोग सताने वाले

वैसे तैयार था नीलामी को अपना भी ज़मीर
पर लगा पाए नहीं दाँव लगाने वाले

जानबख़्शी का मैं एहसान नहीं मानूँगा
मुझको ग़ैरों के लिए छोड़ के जाने वाले

जाने क्यूँ आईना है खाए हुए मुझसे ख़ार
वे भी ग़ाफ़िल हैं थे जो राह पे लाने वाले

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, May 05, 2017

काश ग़ाफ़िल को कभी भी तो पुकारा होता

कोई दुनिया में न तक़्दीर का मारा होता
हर किसी को जो मुहब्बत का सहारा होता

मैं तेरे नाम की माला न जपा करता यूँ
यार तू मुझको ख़ुदा से जो न प्यारा होता

मान लेता भी के है तुझको मुहब्बत मुझसे
तीर ही नज़रों का सीने में उतारा होता

बाबते इश्क़ मेरी शोख़ तमन्नाओं पर
थे चले संग चला काश के आरा होता

मेरी आवारगी इस तर्ह न बढ़ जाती अगर
तू भले गुल से ही पर खेंच के मारा होता

थोड़ा सा अश्क जो लोगों पे लुटा देता तो
बात पक्की है समंदर न यूँ ख़ारा होता

तू पुकारा तो ज़माने को मगर क्या हासिल
काश ग़ाफ़िल को कभी भी तो पुकारा होता

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, May 02, 2017

गो निहारी न गई राह मेरी

कैसे कह दूँ के है तनख़्वाह मेरी
आप कहते हैं जिसे आह मेरी

आपके दर पे चला आया हूँ मैं
गो निहारी न गयी राह मेरी

वक़्त मेरा है वहीं गुज़रा जहाँ
एक को भी थी नहीं चाह मेरी

लीजिए पढ़ तो दिया शे’र तमाम
अब तो लौटाइए जी वाह मेरी

थी तो ग़ाफ़िल ही मगर क्या थी ग़ज़ब
हाँ जवानी वो शहंशाह मेरी

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, April 28, 2017

इस तरह अपने मुक़द्दर एक जैसे हो गए

हाले कमतर हाले बरतर एक जैसे हो गए
दरमियाँ तूफ़ान सब घर एक जैसे हो गए

हमको मिल पाया न मौक़ा उनको मिल पाई न अक़्ल
इस तरह अपने मुक़द्दर एक जैसे हो गए

एक पूरब एक पच्छिम दिख रहा था जंग में
और जब आए वो घर पर एक जैसे हो गए

एक क़त्आ-
‘‘राह के क्या मील के क्या आज के इस दौर में
किस अदा से सारे पत्थर एक जैसे हो गए
सोच ग़ाफ़िल फिर सफ़र अपना कटेगा किस तरह
रहजनो रहबर भी यूँ गर एक जैसे हो गए’’

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, April 25, 2017

चीख उठती है कुछ मकानों से

आपको हो यक़ीन या के न हो
गो सुना मैंने अपने कानों से
हाँ ये सच है के आधी रात के बाद
चीख उठती है कुछ मकानों से

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, April 24, 2017

सोचता हूँ के अगर जाऊँगा तो क्या लेकर

होते फिर शे’र मेरे क़ाफ़िया क्या क्या लेकर
बात बन जाती लुगत का जो सहारा लेकर

लिख दिया मैंने अभी एक अजूबा सी हज़ल
कह दो तो पढ़ दूँ यहाँ नाम ख़ुदा का लेकर

एक क़त्आ-

वैसे तो जी में मेरे आप अब आने से रहे
और मालूम है आएँगे भी तो क्या लेकर
फिर भी आ जाइए है रात गुज़रने वाली
वास्ते मेरे भले दर्द का गट्ठा लेकर

और तमाम अश्आर-

जैसे अरमानों का बाज़ार हुआ जी अपना
औ ख़रीदार खड़े ढेर सा पैसा लेकर

सोचता हूँ के मेरी भूख की शिद्दत में कभी
काश आ जाए कोई लिट्टी-ओ-चोखा लेकर

क्या था रंगीन सफ़र जाम भी टकराया था
वैसे निकला था मैं बस थोड़ा सा भूजा लेकर

होने ही चाहिए अश्आर हमेशा हल्के
ताके जाना न पड़े झाड़ में लोटा लेकर

कोई तारीफ़ नहीं कोई मलामत भी नहीं
सोचता हूँ के अगर जाऊँगा तो क्या लेकर

आईना ठीक ही कहता है के आ जाते हो क्यूँ
आप ग़ाफ़िल जी वही चेहरा बना सा लेकर

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, April 14, 2017

ज़रा अब देख तो ले है बचा क्या

तुझे चाहा, है हिज़्र इसकी सज़ा क्या
बता मेरी ख़ता है और क्या क्या

दहकती आग सी आँखों में तेरी
कोई अब भी तो डूबा है, जला क्या

ज़माना हो गया आतिश उगलते
ज़रा अब देख तो ले है बचा क्या

शरारा जो छुपाया था तू जी में
सवाल अब है के शोला बन उठा क्या

मेरे ख़त का था गो मज़्मून वाज़िब
नहीं मालूम है तूने पढ़ा क्या

कभी भी तो न अपने सिलसिले थे
बहारों से अब अपना सिलसिला क्या

अरे ग़ाफ़िल तू क्या क्या बक रहा है
तेरा अब होश भी जाता रहा क्या

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, April 13, 2017

शिक़्वा नहीं हमें है ज़रा भी गुलाब से

क्या बुझ सकी है प्यास किसी की शराब से
पाएगा कोई फ़ैज़ भी क्या मह्वेख़्वाब से

है रंज़ बस यही के हमारा नहीं है यह
शिक़्वा नहीं हमें है ज़रा भी गुलाब से

चुग़ली सी कर रहा है हमारे रक़ीब की
इक झाँकता गुलाब तुम्हारी किताब से

हर सू से ख़ुद ही आती है वर्ना हमारा क्या
है राबिता किसी की भी बू-ए-शबाब से

ग़ाफ़िल किसी को इसका भी क्या इल्म है ज़रा
मिलता मक़ाम कौन सा है इज़्तिराब से

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, April 11, 2017

पाँव को मैं पाँव सर को सर लिखूँगा

और कितना चश्म को ख़ंजर लिखूँगा
अब न यूँ कुछ ऐ मेरे दिलबर लिखूँगा

बोझ गो सारे बदन का ढो रहा है
पाँव को पर सर भला क्यूँकर लिखूँगा

सच बयानी रास आए या न आए
पाँव को मैं पाँव सर को सर लिखूँगा

और कुछ लिक्खूँ न फिर भी कुछ न कुछ तो
मैैं तेरी वादाख़िलाफ़ी पर लिखूँगा

कर न पाया तू ग़मे दिल को रफ़ा तो
जाँसिताँ तुझको भी चारागर लिखूँगा

मानता हूँ मैं मुसन्निफ़ हूँ नहीं पर
जब लिखूँगा और से बेहतर लिखूँगा

हूँ मगर इतना भी मैं ग़ाफ़िल नहीं हूँ
ख़ुद की जो आवारगी अक़्सर लिखूँगा

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, April 10, 2017

सच्ची रह पकड़ा सकता है

जी उस पर ही आ सकता है
दिल जो शख़्स गंवा सकता है

बेपरवा सा हुस्न इश्क़ को
बेमतलब तड़पा सकता है

देख के तेरे लब पे तबस्सुम
मेरा ग़ुस्सा जा सकता है

इंसाँ बस मजनू हो जाए
कंकड़ पत्थर खा सकता है

तेरी पेशानी का पसीना
मेरा हसब बता सकता है

जान भी पाया कौन इश्क़ में
क्या खोकर क्या पा सकता है

अब आलिम रब ही ग़ाफ़िल को
सच्ची राह दिखा सकता है

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, April 07, 2017

आईना रंग क्यूँ बदलता है

मान लेना न यह के पक्का है
आदमी आदमी का रिश्ता है

यूँ तो लाखों गिले हैं ज़ेरे जिगर
कौन तेरा है कौन मेरा है

इश्क़ की क्या नहीं है ये तौहीन
दिल सुलगता है और तड़पता है

पुख़्ता हूँ ख़ूब ज़िस्मो जान से मैं
हादिसों से जो मेरा नाता है

न डरेगा भी तो डराएगी
कुछ इसी ही सिफ़त की दुनिया है

देख रुख़ पर मेरे है दाग़ तो क्या
चाँद भी वाक़ई कुछ ऐसा है

गोया होता हूँ मैं वही ग़ाफ़िल
आईना रंग क्यूँ बदलता है

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, April 06, 2017

बोलिए क्या शे’र मेरा भी हुआ

रूबरू होने पे क्यूँ ऐसा लगा
है मिजाज़े आईना बिगड़ा हुआ

आईना करता नहीं गोया गिला
सामने उसके मगर अच्छे से आ

टूटने का दौर है मौला ये क्या
लग रहा जो हर बशर टूटा हुआ

था नहीं इसका गुमाँ मुझको ज़रा
मेरा ही दिल एक दिन देगा दगा

चल रहा था वस्ल का ज्यूँ सिलसिला
एक दिन होना ही होना था ज़ुदा

था शरारा इश्क़ का ज़ेरे जिगर
वो ही शायद आज बन शोला उठा

फिर नये पत्ते निकल आएँगे ही
फिर बहार आएगी इतना है पता

मेरी आसानी परेशानी न पूछ
चल रहा मौसम अभी तक हिज़्र का

होंगे आशिक़ और तेरे, शह्र में
पर नहीं होगा कोई मुझसा फ़िदा

हुस्न को परवा नहीं जब है मेरी
हुस्न की परवाह मुझको क्यूँ भला

पी के जो मै लोग शाइर हो गए
मैं भी तो इक घूँट उसको हूँ पिया

रख दिया कुछ हर्फ़ ग़ाफ़िल, बह्र में
बोलिए क्या शे’र मेरा भी हुआ

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, April 04, 2017

तेरी जो लत है जी चुराने की

बेबज़ा को बज़ा बताने की
कोशिशें हो रहीं ज़माने की

ज़िन्दगी की फ़क़त है दो उलझन
एक खोने की एक पाने की

पहले आ शब गुज़ार लें मिलकर
बात सोचेंगे फिर बहाने की

मेरा भी जी चुराया होगा तू
तेरी जो लत है जी चुराने की

एक क़त्आ-

ख़ुश्बू-ओ-गुल हैं पहरेदार जहाँ
राह कोई न जाके आने की
ख़ासियत क्या बयाँ करे ग़ाफ़िल
तेरी ज़ुल्फ़ों के क़ैदख़ाने की

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, April 03, 2017

हुस्न भी लेकिन शराफ़त से रहे

जैसे भी चाहे कोई वैसे रहे
जब तलक ज़़े़े़े़ेरे जिगर मेरे रहे

हो चुका है गर ज़माना ग़ैर का
आप भी तो अब कहाँ अपने रहे

ठीक है डंडे जमाओ इश्क़ पर
हुस्न भी लेकिन शराफ़त से रहे

मस्त है अपनी ही धुन में हर कोई
किसको समझाए कोई कैसे रहे

झंड है ग़ाफ़िल जी अपनी ज़िन्दगी
हम न घर के ही न बाहर के रहे

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, April 01, 2017

ग़ाफ़िल दिल के बीमारों से क्या लेना

सब्ज़ शजर को अंगारों से क्या लेना
एक बाग़बाँ को आरों से क्या लेना

भौंरे तो गुल का रस लेते हैं उनको
ऐ गुलाब तेरे ख़ारों से क्या लेना

चश्म देख सकते हैं फ़क़त बदन सबके
उनको सबके किरदारों से क्या लेना

लाख बनाता रहे राइफ़ल पिस्टल तू
उल्फ़त में इन हथियारों से क्या लेना

है रसूल देने वाला जब, फिर मुझको
दिल के मुफ़्लिस दरबारों से क्या लेना

हूँ मुरीद तेरा मौला, तू हुक़्म करे
मुझको तेरे हरकारों से क्या लेना

सुह्बत सेहतमंदों की होती अच्छी
ग़ाफ़िल दिल के बीमारों से क्या लेना

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, March 27, 2017

मगर लोगों के हाथों के कहाँ पत्थर बदलते हैं

कभी रस्ता बदलता है कभी रहबर बदलते हैं
पता क्या था यहाँ हर एक पल मंज़र बदलते हैं

बदल जाएँ भी गर हालाते ख़स्तः कुछ ज़माने के
नहीं बुज़दिल ये मानेंगे के हिम्मतवर बदलते हैं

छुपाते फिर रहे मुँह सोचकर गिरगिट यही शायद
के आदमजात उनसे रंग अब बेहतर बदलते हैं

बहुत मुश्किल बदल देना है गो आदत ख़राब अपनी
लगाकर जोर सारा आइए हम पर बदलते हैं

बदल जाते हैं मंजनू के यहाँ सर रोज़ ही कितने
मगर लोगों के हाथों के कहाँ पत्थर बदलते हैं

भला क्या हो सकेगा हुस्नवालों की इस आदत का
के वादे कर तो लेते हैं मगर अक़्सर बदलते हैं

रहे ख़ुशहाल उनकी ज़िन्दगी यह हो नहीं सकता
सरायों की तरह ग़ाफ़िल जो अपना घर बदलते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, March 25, 2017

लेकिन कोई तो है

तफ़रीह को था आया मगर जाँ पे आ गया
कैसा हसीन ख़्वाब निगाहों को भा गया

बदनाम कर सकूँगा न मैं लेकर उसका नाम
लेकिन कोई तो है जो मेरे जी पे छा गया

कहते बना तो कहके रहूँगा मैं एक दिन
जो भी सितमज़रीफ़ सितम मुझपे ढा गया

मेरा गया है चैनो सुक़ूँ याँ तलक़ के जी
उल्फ़त की रह में उसका बताए के क्या गया

उस चारागर का ज़िक़्र भी करना न जो मुझे
बस इक निग़ाह डालके पागल बना गया

रोका था कौन जाने को दिल के दयार से
ग़ाफ़िल जो जान से ही गया ख़ामख़ा गया

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, March 23, 2017

ज़माने में ऐसा तो होता नहीं है

उसे कैसे समझूँ के बहका नहीं है
जो ख़ुद को है कहता के क्या क्या नहीं है

अरे यार पालिश पे पालिश पे पालिश
लगे है के आशिक़ तू सच्चा नहीं है

नहीं आने की क़स्‍म का हो असर क्यूँ
तेरा वैसे भी आना जाना नहीं है

किया इश्क़ कैसा जो दावा है करता
के दिल अब तलक तेरा टूटा नहीं है

है गरजा तू बरसेगा भी मान लूुँ पर
ज़माने में ऐसा तो होता नहीं है

तू हो चाँद जिसका भी मेरी बला से
मेरे तो ज़बीं का सितारा नहीं है

ज़ुदा और से इसलिए तू है ग़ाफ़िल
के कू-ए-मुहब्बत में रुस्वा नहीं है

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, March 22, 2017

यह न पूछो के और पीना है?

इस नशेमन का यह सलीका है
कोई आता है कोई जाता है

आदमी छोड़ दे बस अपना ग़ुरूर
देख लेना के फिर वो क्या क्या है

क्या समझ कर हो लादे फिरते जनाब!
यह तो अरमानों का जनाज़ा है

ऐंठे रहते हो आपका भी मिज़ाज
मान लूँ क्या के हुस्न जैसा है

टूटने से बचोगे झुककर ही
आँधियों में शजर से सीखा है

बस पिलाते ही जाओ आँखों से जाम
यह न पूछो के और पीना है?

है जो ग़ाफ़िल दिलों का साथ हुज़ूम
इनको लूटा है या के पाया है

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, March 18, 2017

रब का नहीं तो तेरा ही चेहरा दिखाई दे

बन ठन के तू न यार तमाशा दिखाई दे
मैं चाहता हूँ जैसा है वैसा दिखाई दे

चाहेगा जिस तरह भी दिखाई पड़ूँगा मैं
पर तू कभी कभार ही अच्छा दिखाई दे

मिल पाएगा न ऐसे तो इंसाफ़ मेरे दिल
या जो सितम हुआ है ज़रा सा दिखाई दे

मझधार में ही नाव मेरी कब से है ख़ुदा
अब चाहिए मुझे भी किनारा दिखाई दे

लगता नहीं है फ़र्क़ ज़रा भी मुझे सनम
रब का नहीं तो तेरा ही चेहरा दिखाई दे

अच्छा लगेगा मुझको भी तुझको भी शर्तिया
मेरे वज़ूद का तू जो हिस्सा दिखाई दे

पत्थर उछालना के चला देना तेग़ ही
ग़ाफ़िल जो तेरे कू से गुज़रता दिखाई दे

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, March 16, 2017

यहाँ दिल का भी सौदा हो रहा है

नहीं पूछूँगा ये क्या हो रहा है
यहाँ जो भी तमाशा हो रहा है

मुझे उस होने से है इत्तेफ़ाक़
तेरे जी में जो जैसा हो रहा है

पता कैसे चलेगा यह के मेरा
नहीं तू हो रहा या हो रहा है

रहा जो ग़म का बाइस आज वो ही
सुक़ूने जी का ज़रिया हो रहा है

तेरे इस शह्र में गुर्दा जिगर क्या
यहाँ दिल का भी सौदा हो रहा है

गो है ग़ाफ़िल शराबे चश्म मुझसे
मगर फिर भी नशा सा हो रहा है

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, March 08, 2017

चलो ग़ाफ़िल हम अब अपनी दुआओं का असर ढूँढें

समझ में कुछ न आता है कहाँ जाएँ किधर ढूँढें
इधर ढूँढें, उधर ढूँढें के ख़ुद को दर-ब-दर ढूँढें

मिले जी को सुक़ूँ जिससे, फ़रेबों से तिही हो जो
नए अख़बार में आओ कोई ऐसी ख़बर ढूँढें

हुआ ग़ायब है जिनका जी उन्हें मिल जाएगा पक्का
वो अपना जी नहीं ऐ बेवफ़ा तुझको अगर ढूँढें

किसी वीरान सी शब में कभी दिल के दरीचे से
हमें देखी थी जो वह क्यूँ न उल्फ़त की नज़र ढूँढें

किसी भी चीज़ की गोया नहीं ख़्वाहिश रही अपनी
न जाने क्यूँ है कहता जी के हम तुझको मगर ढूँढें

चला होगा यक़ीनन, राह में गुम हो गया होगा
चलो ग़ाफ़िल हम अब अपनी दुआओं का असर ढूँढें

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, March 05, 2017

पानी

यह पता था के करेगा ही तमाशा पानी
चश्म से यूँ जो लगातार है बहता पानी

यह भी सच है के रहे बहता अगर तो अच्छा
ज़ह्र हो जाए है इक ठौर ही ठहरा पानी

मेरे जलते हुए जी को क्या तसल्ली देगा
कोई आवारा सी ज़ुल्फ़ों से टपकता पानी

देगा तरज़ीह भी अब कौन भला फिर उसको
शख़्स वह जिसकी भी आँखों का है उतरा पानी

हिज़्र के दिन हों के हो रात मिलन की ग़ाफ़िल
कोई भी हाल हो है चश्म भिगोता पानी

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, March 03, 2017

हम बोलेन तौ मुँह लटकाए बइठे हो

पता है का का पीये खाये बइठे हो
यही बदे का यार लजाए बइठे हो

कहै पियक्कड़ दुनिया तौ फिर ठीक अहै
हम बोलेन तौ मुँह लटकाए बइठे हो

इश्क़ जौ करबो तौ कुछ होइहैं रक़ीब भी
आपन दुसमन आप बनाए बइठे हो

दिल दरिया से किहे किनारा हौ तुम और
आँख से मै कै आस लगाए बइठे हो

अच्छा ख़ासा रहेव बियाहे के पहिले
अब जइसै थप्पड़ जड़वाए बइठे हो

होस मा होतेव प्यार केर बातें होतीं
हमैं देखि कै होस गँवाए बइठे हो

ग़ाफ़िल जी मुस्कानौ तुम्हरी है जइसै
चेहरे पै चेहरा चिपकाए बइठे हो

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, February 28, 2017

दर्द इस तर्ह कुछ तो कम होंगे

आशिक़ों के जो निकले दम होंगे
हुस्न के यूँ भी क्या सितम होंगे

यूँ बढ़ाओगे बात जीतनी ही
बात में उतने पेचो ख़म होंगे

हो चुके बिछते बिछते संगे राह
चश्म ये अब न यार नम होंगे

ख़्वाहिशों कर दिया है तुमको तर्क़
दर्द इस तर्ह कुछ तो कम होंगे

ख़त्म होंगे न अश्क ग़ाफ़िल गर
हाले ख़स्तः भी ख़ाक ग़म होंगे

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, February 27, 2017

तू नहीं होता है तो कौन वहाँ होता है

ढूँढा करता हूँ जहाँ तेरा निशाँ होता है
अब बता तू ही के तू यार कहाँ होता है

तेरे पीछे मैं चला जाता हूँ सहरा सहरा
शब को भी गर तू ख़यालों में अयाँ होता है

गो है तूने ही दिया पर हो तुझे क्यूँ एहसास
हाँ वही दर्द मुझे जितना जहाँ होता है

आह भरते हैं कई नाम तेरा ले लेकर
यह तमाशा भी सरे शाम यहाँ होता है

ख़ुश्बू तेरी सी ही आती है जहाँ से ग़ाफ़िल
तू नहीं होता है तो कौन वहाँ होता है

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, February 22, 2017

दिल है यह मेरा कोई पत्थर नहीं है

पायलों की छमछनननन गर नहीं है
फिर मक़ाँ ऐ दोस्त हरगिज़ घर नहीं है

दर वो जिस पर हो न तेरी बू-ओ-छाप
मैं कहूँगा वह मुक़म्मल दर नहीं है

क्यूँ किए जाता है इस पर दस्तकारी
दिल है यह मेरा कोई पत्थर नहीं है

फाख़्ते तू ले न जाएगा ख़बर तो
और क्या कोई भी नामाबर नहीं है

देख ग़ाफ़िल चश्म की दरियादिली यह
छलछलाता है छलकता पर नहीं है

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, February 18, 2017

साँप आस्तीं के

चलाया तो तीरे नज़र आप ही ने
मगर आपको हम न रुस्वा करेंगे
हैं साँप आस्तीं के भला क्या यहाँ कम
जो अब आप भी रोज़ आया करेंगे

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, February 16, 2017

मैं रहूँ जैसे भी लेकिन शाद यह कुनबा रहे

है ज़ुरूरी वाक़ई तो फ़ासिलः ऐसा रहे
तू कहीं भी हो तसव्वुर में मगर आता रहे

कोई बेहतर कर भी क्या सकता है बस इसके सिवा
दिल भले रोता रहे फिर भी वो मुस्काता रहे

तू भले माने न लेकिन जीते जी मर जाएगा
बोझ तेरी बेरुख़ी का कोई गर ढोता रहे

या ख़ुदा मेरी दुआ में इतना तो कर दे असर
मैं रहूँ जैसे भी लेकिन शाद यह कुनबा रहे

इल्म इतना भी नहीं ग़ाफ़िल शराबे चश्म को
जो नहीं लाइक़ हैं उसके स्वाद वे ही पा रहे

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, February 08, 2017

कहाँ मैं थोक हूँ मैं भी तो यार खुदरा हूँ

मुझे निहार ले किस्मत सँवार सकता हूँ
भले ही टूट के गिरता हुआ मैं तारा हूँ

नहीं ये मील के पत्थर मुझे सँभाले कभी
पता था गो के इन्हें रास्ते से भटका हूँ

सिसक रहा है कोई मुस्कुरा रहा है कोई
न मुस्कुरा ही सका मैं न सिसक पाया हूँ

मेरी भी हो न हो बढ़ जाए कोई शब क़ीमत
कहाँ मैं थोक हूँ मैं भी तो यार खुदरा हूँ

ख़बर सुनी तो सही तूने ज़माने से भले
यही के इश्क़ में तेरे मैं कैसे रुस्वा हूँ

जो मुझसे आज मुख़ातिब है यह भी कम है कहाँ
भले ही कहता रहे तू के मैं पराया हूँ

न चुभ सके है चुभाए भी ख़ार ग़ाफ़िल अब
मैं इतने ख़ार भरे रास्तों से गुज़रा हूँ

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, February 07, 2017

आह! यह क्या से क्या हो गया

बावफ़ा बेवफ़ा हो गया
आह! यह क्या से क्या हो गया

उनसे आँखे मिलीं मेरा जी
ख़ूब था बावरा हो गया

एक क़त्आ-
आप तक़्दीर के हैं धनी
हिज्र में भी नफ़ा हो गया
हिज्र में इख़्तियार आप पर
देखिए आपका हो गया

आपकी रह पे नज़रें रहें
ये नया सिलसिला हो गया

क्या बदलना है कुछ और भी
मुद्दई मुद्दआ हो गया

यार ग़ाफ़िल यहाँ हर कोई
क्यूँ भला सरफिरा हो गया

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, February 06, 2017

साक़ी इधर भी ला न ज़रा और ढाल कर

मैं लुट चुका हूँ वैसे भी अब तू न चाल कर
जैसा भी मेरा दिल है उसे रख सँभाल कर

साहिल पे अब है डूब रही ऐ मेरे ख़ुदा
तूफ़ान से जो नाव था लाया निकाल कर

अब संगो ख़ार से ही रहे इश्क़ है अटी
रक्खे कोई क़दम तो ज़रा देख भाल कर

थोड़ी सी ही तो मै थी जिसे पी चुका हूँ अब
साक़ी इधर भी ला न ज़रा और ढाल कर

ग़ाफ़िल हैं जोड़ तोड़ रवायात इश्क़ की
मेरे नहीं तो ख़ुद के ही जी का ख़याल कर

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, February 04, 2017

सो मिल गया है आज मुझे दार, क्या करूँ?

हूँ जामे चश्म तेरा तलबगार, क्या करूँ?
तक़्दीर से पर आज हूँ लाचार, क्या करूँ?

कोई तो आह! शौक से मारा नज़र का तीर
जी चाहे गो के फिर भी पलटवार क्या करूँ?

तू देख गर तो जी मैं तुझे कबका दे चुका
वैसे भी बोल और मेरे यार, क्या करूँ?

माना के एक बार किया था गुनाहे इश्क़
यारो वही गुनाह मैं हर बार क्या करूँ?

ग़ाफ़िल हूँ मैं इसीलिए शायद क़फ़स था कम
सो मिल गया है आज मुझे दार, क्या करूँ?

(क़फ़स=पिंजड़ा, दार=फाँसी)

-‘ग़ाफ़िल’
(चित्र गूगल से साभार)

Friday, February 03, 2017

कोई ग़ाफ़िल कहाँ भला जाए

जी मेरा भी सुक़ून पा जाए
तेरा जी भी जो मुझपे आ जाए

काश आ जाऊँ तेरे दर पे मैं और
वाँ मेरा गाम लड़खड़ा जाए

जाने से तेरे जाए जी मेरा
सोचता हूँ के तेरा क्या जाए

मैं कहूँगा के मैं कहूँगा भी क्या
मुझसे कहने को गर कहा जाए

क्या करेगा तू उसका मोलो फ़रोख़्त
जो दिखे भर के जी पे छा जाए

न तआरूफ़ ठहरा तुझसे भी तो
कोई ग़ाफ़िल कहाँ भला जाए

(गाम=क़दम, तआरूफ़=परिचय)

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, January 30, 2017

हाए!

थोड़ी अलसाई दोपहरी
कुछ नीली कुछ पीली गहरी
मुझको अपने पास बुलाए
कुछ भी समझ न आए, हाए!

लता विटप सी लिपटी तन पर
अधरों को धरि मम अधरन पर
कामिनि जिमि नहिं तनिक लजाए
कुछ भी समझ न आए, हाए!

अधर सुधा यहि भाँति पान करि
विलग हुई संध्यानुमान करि
तृप्ता मन्द मन्द मुस्काए
कुछ भी समझ न आए, हाए!

-‘ग़ाफ़िल’

अगर आ गया, बड़बड़ाता रहेगा

न भुन पाए फिर भी भुनाता रहेगा
तू अपना हुनर आजमाता रहेगा

बड़ा खब्बू टाइप का है यार तू तो
क्या भेजा मेरा यूँ ही खाता रहेगा

बताएगा भी अब के तुझको हुआ क्या
मुहर्रम के या गीत गाता रहेगा

फिसड्डे क्या अपनी फिसड्डी सी रातें
जलाकर जिगर जगमगाता रहेगा?

ये ग़ाफ़िल है कोई इसे रोको वर्ना
अगर आ गया, बड़बड़ाता रहेगा

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, January 27, 2017

और नहीं तो!

आज अगर कोई नहीं है न सही
कल भी तो कोई नहीं था अपना

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, January 25, 2017

लज़्ज़त और बढ़ती है

तुम्हारे साथ होने भर से ताक़त और बढ़ती है
मेरी तो मेरी बर्बादी पे हिम्मत और बढ़ती है

भले तुम बेअदब कहते रहो मुझको मगर मेरी
तुम्हारे मुस्कुरा देने से ज़ुरअत और बढ़ती है

है सच तो यह के है क़ीमत गुलों की चंद कौड़ी ही
किसी के गेसुओं से जुड़ के क़ीमत और बढ़ती है

हसीं साक़ी शराबे लब न जाने और क्या क्या क्या
पता गो है के ऐसी लत से ज़ेह्मत और बढ़ती है

नहीं इंसाफ़ है यह भी के कर लो हुस्न पोशीदः
न हो गर पर्दादारी भी तो ज़िल्लत और बढ़ती है

निवालों की ये ख़ूबी आज़मा लेना कभी ग़ाफ़िल
के कुछ फ़ाक़े हों गर पहले तो लज़्ज़त और बढ़ती है

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, January 23, 2017

अंदेशः

आदाब!

मैंने आवाज़ लगा दी, है मगर अंदेशः
सोचूँ कब तेरे दर आवाज़ मेरी जाती है

‘-ग़ाफ़िल’

Saturday, January 21, 2017

मिस्ले नाली नदी हो गई

क्या कहूँ दिल्लगी हो गई
मेरी शब और की हो गई

जाएगी किस तरफ़ क्या पता
ज़िन्दगी सिरफिरी हो गई

क्या करोगे भला दोस्त जब
बात ही लिजलिजी हो गई

वक़्त का ही करिश्मा है जो
मिस्ले नाली नदी हो गई

ये ले ग़ाफिल तेरी भी ग़ज़ल
कुछ जली, कुछ बुझी, हो गई

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, January 17, 2017

ज्यूँ तू मुरझाई ख़बर लगता है

कोई सीने से अगर लगता है
जी मेरा सीना बदर लगता है

तूने तो की थी दुआ फिर भी मगर
ओखली में ही ये सर लगता है

पास आ जा के हरारत हो ज़रा
सर्द सी रात है डर लगता है

अपने इस तीरे नज़र पर फ़िलहाल
तू लगाया है ज़हर, लगता है

लाख कोशिश पे सुधर पाया न मैं
मुझपे तेरा ही असर लगता है

रोज़ अख़्बारों में आने से तेरे
ज्यूँ तू मुरझाई ख़बर लगता है

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, January 15, 2017

सब

निकल पाएगा दस्तो पा भला कैसे फँसा है सब
मुझे यह इश्क़ो चाहत क़ैद जैसा लग रहा है सब

कभी बह्रे मुहब्बत में अगर डूबे तो बोलोगे
के जो डूबा कहीं पर भी उसी को ही मिला है सब

किसी से इश्क़ हो जाना फिरा करना जूँ मजनू फिर
ये दैवी आपदा सा है कहाँ अपना किया है सब

छुपे रहते हो बेजा तुम नहीं तुमको पता शायद
के है अल्लाह और उसको ज़माने का पता है सब

रहा कुछ मेरा कुछ तेरा क़ुसूर उल्फ़त निबाही में
नहीं दावे से कह सकता है ग़ाफ़िल एक का है सब

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, January 14, 2017

चाँद के भी पार होना चाहिए

ठीक है व्यापार होना चाहिए
फिर भी लेकिन प्यार होना चाहिए

मुझको आने को बतौरे चारागर
कोई तो बीमार होना चाहिए

आप हों या मैं मगर इस बाग़ का
एक पहरेदार होना चाहिए

दरमियाने दिल है तो फ़िलवक़्त ही
प्यार का इज़हार होना चाहिए

शर्म तो आती है फिर भी एक बार
चश्म तो दो चार होना चाहिए

हम न मिल पाएँ भले पर जी में रब्त
दोस्त आख़िरकार होना चाहिए

अब तो ग़ाफ़िल हौसिले का अपने रुख़
चाँद के भी पार होना चाहिए

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, January 11, 2017

आतिशे उल्फ़त को हर कोई हवा देने लगे

बोसा-ओ-गुल फोन पर अब रोज़हा देने लगे
हाए यूँ उश्शाक़ माशूकः को क्या देने लगे

ख़ैर जब जब मैं रक़ीबों की मनाया मुझको तब
गालियाँ वे सह्न पर मेरे ही आ देने लगे

आशियाँ दिल का मेरे बच पाएगा किस तर्ह गर
आतिशे उल्फ़त को हर कोई हवा देने लगे

जाने जाँ तेरे क़सीदे में हुए जो भी अश्आर
मिलके सब ग़ज़ले मुक़म्मल का मज़ा देने लगे

ढूँढने ग़ाफ़िल को अपने था चला पर मुझको सब
कैसी चालाकी से मेरा ही पता देने लगे

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, January 10, 2017

नज़र अपना निशाना जानती है : दो क़त्आ

1.
जो अपना सब गँवाना जानता है
वो अपना हक़ भी पाना जानता है
फँसाओगे उसे क्या जाल में तुम
जो हर इक ताना बाना जानता है
2.
किसी पे क़ह्र ढाना जानती है
तो महफ़िल भी सजाना जानती है
न बातों से इसे तुम बर्गलाओ
नज़र अपना निशाना जानती है

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, January 06, 2017

सजाकर जो पलक पर आँसुओं का हार रखता है

कहोगे क्या उसे जो तिफ़्ल ख़िदमतगार रखता है
औ तुर्रा यह के दूकाँ में सरे बाज़ार रखता है

कहा जाता है वह गद्दार इस दुनिया-ए-फ़ानी में
जो रहता है इधर औ जी समुन्दर पार रखता है

वो सपने टूट जाते हैं, जो पाक़ीज़ः नहीं होते
और उनको देखने का जज़्बा भी गद्दार रखता है

पता है तू न आएगा न जाने क्यूँ मगर फिर भी
उमीद आने की तेरे यह तेरा बीमार रखता है

उसे अदना समझने की न ग़ाफ़िल भूल कर देना
सजाकर जो पलक पर आँसुओं का हार रखता है

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, January 05, 2017

चाँद सह्न पर आया होगा

होगी आग के दर्या होगा
देखो आगे क्या क्या होगा

ख़ून रगों में लगा उछलने
चाँद सह्न पर आया होगा

रस्म हुई हाइल गो फिर भी
मुझको वह ख़त लिखता होगा

मुझे पता था शम्स उगेगा
फिर से और उजाला होगा

जो टुकड़ों में आप बँटा हो
क्या तेरा क्या मेरा होगा

जो भी तर्क़ करेगा मुझको
बिल्कुल तेरे जैसा होगा

छोड़ गया था मुझे मगर अब
तू पत्ते सा उड़ता होगा

सोचा नहीं था ज़ीस्त में अपने
उल्फ़त जैसा धोखा होगा

ग़ाफ़िल तो रहता है सबमें
तू बस ख़ुद में रहता होगा

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, January 04, 2017

उल्फत की रह में आग का दर्या ज़ुरूर है

लेकिन नहीं है शम्स, उजाला ज़ुरूर है
देखे न देखे कोई, तमाशा ज़ुरूर है

ये गुल बग़ैर ख़ुश्बू के ही खिल रहे जो अब
इनका भी ज़र से हो न हो रिश्ता ज़ुरूर है

तुझसे भी नाज़ लेकिन उठाया नहीं गया
बज़्मे तरब में आज तू आया ज़ुरूर है

मत पूछ यह के जी है भटकता कहाँ कहाँ
गो मेरा जिस्म उसका घरौंदा ज़ुरूर है

हासिल करूँगा फिर भी किसी तर्ह मैं मुक़ाम
उल्फत की रह में आग का दर्या ज़ुरूर है

है आख़िरी उड़ान यही सोच और उड़
मंज़िल जो तुझको अबके ही पाना ज़ुरूर है

ग़ाफ़िल न मिल सका है अभी तक मुझे सुक़ून
कहते हैं तेरे दर पे ये मिलता ज़ुरूर है

-‘ग़ाफ़िल’


Monday, January 02, 2017

किस सिफ़त का ऐ मेरे मौला तेरा इजलास है

इस शबे फ़ुर्क़त में तारीकी तो अपने पास है
क्यूँ हुआ ग़ाफ़िल उदास इक यूँ भी अपना ख़ास है

दूर रह सकती है कोई जान कब तक जिस्म से
जान होने का उसे गर वाक़ई एहसास है

प्यास की शिद्दत मेरी पूछो न मुझसे दोस्तो!
बह्र से तफ़्तीश कर लो उसकी कैसी प्यास है

क़त्ल भी मेरा हुआ इल्ज़ाम भी है मेरे सर
किस सिफ़त का ऐ मेरे मौला तेरा इजलास है

मेरी भी हाँ तेरी भी हाँ जब है तो मेरे सनम
फ़ासिला जो दरमियाँ है क्या फ़क़त बकवास है

-‘ग़ाफ़िल’