Monday, August 31, 2015

या फ़साना ही सुनाए बरगलाने के लिए

आपका आना है बस आना जताने के लिए
आप अब आते कहाँ हैं सिर्फ़ आने के लिए

फिर कोई इक गीत गाए जी जलाने के लिए
या फ़साना ही सुनाए बरगलाने के लिए

आशिक़ी के नाम पर उसने फ़क़त इतना कहा
क्या भला मैं ही मिला था आज़माने के लिए

इस क़दर रुस्वा हुआ हूँ मैं के अब इस शह्र में
याद करते हैं मुझे सब भूूल जाने के लिए

मान जाने से भला मुझको ख़ुशी क्यूँकर हो जब
मान जाना है किसी का रूठ जाने के लिए

होश आया तो मैं जाना मैकशी क्या चीज़ है
एक यह जुम्ला बहुत है होश आने के लिए

मैंने पूछा किस लिए यूँ हुस्न बे पर्दा हुआ
दफ्अतन बोला गया ग़ाफ़िल ज़माने के लिए

सोचता हूँ ग़म में तेरे हो गया मैख़ोर पर
और भी हिक़्मत तो होगी ग़म मिटाने के लिए

इक ज़माना था के होती थी क़वायद शामो शब
छत पे आएँ चाँद का दीदार पाने के लिए

काश हो जाता कहीं ऐसा के हर बंदिश को तोड़
फिर चला आता कोई मुझको सताने के लिए

बात अब जब हो रही है चाँद सूरज की यहाँ
कौन ग़ाफ़िल आएगा दीया जलाने के लिए

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, August 29, 2015

सारे मेरे तन के छाले हैं साहिब

जो भी दिखते काले काले हैं साहिब
सारे मेरे तन के छाले हैं साहिब

किसको है मालूम कि हम इन हाथों से
चावल भूसी साथ उबाले हैं साहिब

रात गयी सो बात गयी की तर्ज़ पे हम
सह सह करके सदियां टाले हैं साहिब

तीरे नज़र चलाकर फिर मुस्का देना
आपके ये अंदाज़ निराले हैं साहिब

आप लड़ाओ पेंच न हमको पता चले
क्या हम इतने भोले भाले हैं साहिब

ग़ाफ़िल को चलना ही केवल सिखला दो
उड़ने को यूँ भी परवाले हैं साहिब

-’ग़ाफ़िल’

Thursday, August 27, 2015

मुझसे जो इंतक़ाम है तेरा

आजकल ख़ूब नाम है तेरा
मुझसे जो इंतक़ाम है तेरा

इश्क़ रुस्वा न मेरा हो जाए
शह्र में चर्चा आम है तेरा

याद तेरी कहाँ से आती है
अब कहाँ पर मक़ाम है तेरा

जाम का वक़्त और ये पर्दा
किस तरह इंतज़ाम है तेरा

इल्म कैसे हो कौन बतलाए
है, मगर कब पयाम है तेरा

जो भी ग़ाफ़िल हैं सब परीशाँ हैं
इस क़दर तामझाम है तेरा

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, August 25, 2015

इश्क़ वह शै है करेगा तो सँवर जाएगा

दौरे रफ़्तार में तू जब भी जिधर जाएगा
ख़ौफ़ का एक तमाशा सा उधर जाएगा

अज़्नबी खाये है वैसे भी सफ़र में ठोकर
क्या क़सर हो कि तू पीकर भी अगर जाएगा

हुस्न धोखा है, नहीं इस पे भरोसा करना
वह जताएगा न जाएगा मगर जाएगा

एक आवाज़ सी आती है मिरे अन्दर से
इश्क़ वह शै है करेगा तो सँवर जाएगा

फलसफा ज़ीस्त का चलना है अँधेरे में जूँ
गरचे हिम्मत भी गयी डर के ही मर जाएगा

राह फिर रोक न ले शोख़ तमन्ना ग़ाफ़िल
सोच गर यूँ ही हुआ तो तू किधर जाएगा

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, August 24, 2015

ग़ाफ़िल ने भी क्या क्या मंज़र देखे हैं

बड़बोलापन जिनके अन्दर देखे हैं
रोते धोते उनको अक़्सर देखे हैं

आँख लड़ाई में जाने कितनों की ही
टूटी टाँगें औ फूटा सर देखे हैं

लुटे पिटे आशिक़ बहुतेरे गलियों से
मुँह लुकुवाए लौटे हैं घर देखे हैं

हुए लफ़ंगे खाते पीते घर वाले
कई लफ़ंगे हुए कलंदर देखे हैं

बग़िया में कोई वह्‌शी घुस आया था
छितराए चिड़ियों के पंजर देखे हैं

अच्छे ख़ासे पढ़े लिखे रस्ता पूछें
राह बताते अक्सर चोन्हर देखे हैं

मुरहे लड़के ही पिटते हैं लेकिन हम
आग लगाते हुए सुख़नवर देखे हैं

खीस निपोरे बिल्ली, गुर्राते चूहे
ग़ाफ़िल ने भी क्या क्या मंज़र देखे हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, August 23, 2015

आप जैसा मुझे सोचता कौन है

अब सिवा आपके आश्ना कौन है
आप जैसा मुझे सोचता कौन है

साथ देने को राज़ी हज़ारों हैं पर
मैं न जानू के वा’दावफ़ा कौन है

कर रहे हैं नुमाइश सरेआम सब
जानकर भी के दिल लूटता कौन है

याद में डूबने का है दावा महज़
वाक़ई याद में डूबता कौन है

आदमी को ख़ुदा मिल तो जाये मगर
आजकल टूटकर चाहता कौन है

मैं हूँ ग़ाफ़िल नहीं इल्म मुझको ज़रा
कौन है तल्ख़ औ चटपटा कौन है

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, August 19, 2015

टूटता है जो कभी दर्द वो क्या देता है

अश्क बह जाय तो फिर ख़ूब मज़ा देता है
बात यह और है, औरों को रुला देता है

चाँद आँखों मे मेरे ख़्वाब नये रख जाता
और सूरज है मेरा ख़्वाब जला देता है

क़त्ल हो जाऊँ इशारा ही तेरा काफी था
तू तो हर बात में नश्तर ही चुभा देता है

वज़्न खीसे का मेरा और शराब की क़ीमत
देख, महबूब नज़र से ही पिला देता है

ये अदा भी क्या अदा है न समझ पाऊँ मैं
बात करता है वो, अहसान जता देता है

चूड़ियाँ चुभके हमेशा ही यही बतलायें
टूटता है जो कभी दर्द वो क्या देता है

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, August 18, 2015

आप सबको मेरी बन्दगी दोस्तों

आपसे है मेरी हर ख़ुशी दोस्तों
आप सबको मेरी बन्दगी दोस्तों

अनकही सी इबारत है तक़्रीर अब
क्या खिलाती है गुल आशिक़ी दोस्तों

अश्क हैं तो है ज़िन्दा ज़मीर आपका
है ज़मीर आपका, ज़िन्दगी दोस्तों

आपने कह दिया, यह बड़ी बात है
बात गोया ज़रा सी  ही थी दोस्तों

हुस्न का नाज़ सर पे उठाए फिरे
देखिए इश्क़ की सादगी दोस्तों

इसलिए भी सभी लुत्फ़ हैं ले रहे
शा’इराना जो है बेख़ुदी दोस्तों

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, August 17, 2015

नफ़्रतों का कारवाँ पुरख़ार इक रस्ता मिला

क्या बताऊँ इश्क़ में तेरे मुझे क्या क्या मिला
नफ़्रतों का कारवाँ पुरख़ार इक रस्ता मिला

इश्क़ है अंधे कुएँ में कूद जाना शौक से
आशिक़ी के दौर में यह इक सबक अच्छा मिला

आबलों के पा लिए मैं चल रहा था ख़ार पर
या ख़ुदा यह क्या? के अब सूना सा चौराहा मिला

शह्र पहचाना सा है पर अज़्नबी सी भीड़ है
पागलों सा ढूँढता हूँ इक न तेरे सा मिला

हुस्न जब पर्दे में था क्या शौक था के देख लूँ
हुस्न से पर्दा उठा तो लुत्फ़ भी जाता मिला

सोचता ग़ाफ़िल है के कुछ भी न मिलता फ़र्क़ क्या
क्या मिला तू मिल न पाया जो मिला वादा मिला

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, August 16, 2015

सुलगता सा हमारे दिल में भी कोई शरारा है

तुम्हारे पास झूठी शेखियों का गर पिटारा है
सुलगता सा हमारे दिल में भी कोई शरारा है

लुटेरे इस वतन के ही रहे हैं लूट अब अस्मत
सुनी क्या चीख? भारत माँ ने फिर हमको पुकारा है

के डालो फूट और शासन करो की नीति देखो अब
बदल कर रूप भारत में उठाई सर दुबारा है

सबक सीखें भला बीते हुए लम्हों से हम कैसे
कभी मुड़ कर के देखें हम, नहीं हमको गवारा है

हैं भारत माँ के जो लख़्ते जिगर सोए हुए हैं सब
कोई थककर है सोया और किसी का ड्रग सहारा है

तमाशा रोज़ का है गर कहे तो क्या कहे ग़ाफ़िल
कोई है हार कर जीता कोई जीता तो हारा है

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, August 15, 2015

आईने जो हक़ीक़त दिखाते रहे

वो हमीं को पहाड़ा पढ़ाते रहे
हम जिन्हें अपना नेता बनाते रहे

माल हमरा सियासत उड़ाती रही
और हम ख़्वाब बैठे सजाते रहे

देश के नाम पर हम हमारा लहू
भेड़ियों को ही शायद पिलाते रहे

भूख का, रोग का रक्स होता रहा
हम हैं आज़ाद, हम गीत गाते रहे

देखिए नाच गाकर शहीदों को भी
हम अभी तक ग़ज़ब बरगलाते रहे

हम हैं ग़ाफ़िल तो क्यूँ देख लेते भला
आईने जो हक़ीक़त दिखाते रहे

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, August 13, 2015

अब भड़कना चाहिए था पर शरारे मौन हैं

देखकर दुनिया की ज़िल्लत चाँद तारे मौन हैं
अब भड़कना चाहिए था पर शरारे मौन हैं

नक़्ल में मग़्रिब के मश्रिक़ बेतरह अंधा हुआ
हुस्न बेपर्दा हुआ है और सारे मौन हैं

तीर तरकश में छुपा, ख़ामोश है बन्दूक भी
लुट रही हैं अस्मतें माँ के दुलारे मौन हैं

क्या तबस्सुम था बला का क्या अदा की चाल थी
उस नज़ाकत औ नफ़ासत के नज़ारे मौन हैं

देखिए रुकने न पाए अपने सपनो की उड़ान
फ़िक़्र क्या जो हौसिल: अफ़्ज़ा हमारे मौन हैं

बोलता रहता है ग़ाफ़िल दिल से जो मज़्बूर है
फिर नदी से चीख उभरी फिर किनारे मौन हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, August 12, 2015

हमें काँटों भरी राहों पे चलना भी ज़ुरूरी था

हमारे जी में कोई ख़्वाब पलना भी ज़ुरूरी था
दिले नादान को उस पर मचलना भी ज़ुरूरी था

किसी की शोख़ियों ने क्या ग़ज़ब का क़ह्र बरपाया
ज़रर होने से पहले ही सँभलना भी ज़ुरूरी था

ये तन्हाई हमारी पूछती रहती है अक्सर के
जो अब तक साथ थे क्या उनका टलना भी ज़ुरूरी था

इरादा तो ज़ुरूरी था ही मंज़िल तक पहुँचने को
हमें काँटों भरी राहों पे चलना भी ज़ुरूरी था

ज़माने का नया अंदाज़, हम रुस्वा न हो जाएँ
इसी बाइस नये फ़ैशन में ढलना भी ज़ुरूरी था

रहे पुरख़ार पर चलता रहा ग़ाफ़िल ज़माने से
ज़रा आराम आए रह बदलना भी ज़ुरूरी था

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, August 11, 2015

साथ हमको सनम आपका चाहिए

212 212 212 212

एक अहदे वफ़ा अब हुआ चाहिए
साथ हमको सनम आपका चाहिए

अब तलक ख़ूब लू के थपेड़े सहे
चाहिए बस हमें अब सबा चाहिए

ज़ह्र से हों भरी या के शीरींअदा
आपसे बात का सिलसिला चाहिए

ज़ीनते बज़्म कायम रहे इसलिए
आपके रुख़ से पर्दा हटा चाहिए

इश्क़ के हर्फ़ से हम हैं अंजान पर
आशिक़ों का हमें मर्तबा चाहिए

हुस्न रूठा तो क्या इश्क़ रुश्वा न हो
बस यही आपकी इक दुआ चाहिए

क्या थिरकने लगे यह हमारी ग़ज़ल
इक दफा आपका मर्हबा चाहिए

कुछ मिला तो भला, नफ़्रतें ही सही
एक ग़ाफ़िल को अब और क्या चाहिए

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, August 10, 2015

माल हम बेमिसाल रखते हैं

2122 1212 22

आर्ज़ू बाकमाल रखते हैं
माल हम बेमिसाल रखते हैं

है हमें इश्क़ का लिहाज़ ज़रा
यूँ तो हम भी सवाल रखते हैं

बचके जाए न एक भी मछली
इश्क़ का हम वो जाल रखते हैं

लुत्फ़ है यह के आपने जो कहा
हुस्न को हम सँभाल रखते हैं

आप ख़ुद को भी भूल जाएँ पर
हम तो सबका ख़याल रखते हैं

सादगी देखिए तो, हम ग़ाफ़िल
दिल जलाकर मशाल रखते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

देखिए हम रिंद फिर पीने पिलाने आ गये

2122 2122 2122 212

हुस्न वाले अक़्ल फिर अपनी लगाने आ गये
इश्क़ को बच्चा सरीखे बरगलाने आ गये

हो गयी है शाम अब शेरो सुखन की यह शराब
देखिए हम रिंद फिर पीने पिलाने आ गये

इश्क़ की आँधी चली तो हुस्न के हर पेचो ख़म
क्या बताएँ यार ख़ुद कैसे ठिकाने आ गये

भूल करके देर तक हम रह सकें, मुमकिन नहीं
आपकी यादों के मेले फिर बुलाने आ गये

इश्क़ की बेताबियाँ कुछ इस क़दर तारी हुईं
कौन भेजे ख़त उन्हें हम ख़ुद बताने आ गये

कौन सुनता है यहाँ अपने में हैं मश्ग़ूल सब
अब न जाने क्यूँ लगे हम क्यूँ सुनाने आ गये

इश्क़ में बेआबरू होने का मतलब कुछ नहीं
हम फ़क़त अपनी वफ़ाएँ आज़माने आ गये

हुस्न वालों के ये नख़रे औ नज़ाक़त बाप रे!
फिर भी देखो हम-से ग़ाफ़िल सर ख़पाने आ गये

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, August 07, 2015

अगर दिल हों मिले तो फ़ासिला क्या

१२२२ १२२२ १२२

न हो दिल में कसक तो राब्ता क्या
अगर दिल हों मिले तो फ़ासिला क्या

मुझे गुमसुम सा देखा पूछ बैठे
तिरा भी इश्क़ का चक्कर चला क्या

किसी के ख़्वाब में खो सा गया हूँ
इसे मैं मान बैठूँ हादिसा क्या

मिरी आँखों से आँसू जब गिरे तो
सभी पूछे कोई तिनका पड़ा क्या

बड़ी परहेज़गारी की थी शुह्रत
नशे में शेख़ जी हैं ये हुआ क्या

कई बच तो गये शमशीर से भी
नज़र की तीर से कोई बचा क्या

जो ज़ीनत थी तिरे घर की गयी अब
नशे की हाल में फिर ढूँढता क्या

यूँ ज़ेरे ख़ाक हो करके भी ग़ाफ़िल
हुआ अब वाक़ई तुझसे ज़ुदा क्या

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, August 06, 2015

आपका यह हुस्न मैखाना हुआ

इक मुसाफ़िर राह का माना हुआ
आपके कूचे में बेगाना हुआ

चल रही थीं आँधियाँ बिखरे थे फूल
आज मेरा गुलसिताँ जाना हुआ

कैद हो जाना है भौंरे का नसीब
फिर कमलनी का वो दीवाना हुआ

इक शज़र से बेल लिपटी देखकर
क्या कहूँ क्या उनका शर्माना हुआ

क्या मचलती है नदी इक बारगी
जब किसी सागर से मिल जाना हुआ

हुस्न क्या है एक है यह भी सवाल
सच बताना क्या बता पाना हुआ

चाँद आया छत पे तो मचला है जी
क्या हसीं क़ुद्रत का नज़राना हुआ

एक ग़ाफ़िल का किया ख़ानाख़राब
आपका यह हुस्न मैखाना हुआ

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, August 04, 2015

ज़ुरूरत है मुहब्बत का तराना गुनगुनाने की

1222 1222 1222 1222

ज़ुरूरत है मुहब्बत का तराना गुनगुनाने की
हर इक सोए हुए जज़्बात को फिर से जगाने की

बहुत बेताब हो जाता हूँ नख़रों से तिरे हमदम
मुझे अब मार डालेगी अदा ये रूठ जाने की

मैं कितनी बार बोला के तुझी से प्यार है जाना
तुझी से प्यार है कहने को तू कितने बहाने की

जो इतनी गर्मजोशी है बहुत मुमकिन है यारों ने
नयी तरक़ीब सोची है मुझे फिर से फसाने की

तुझे मालूम क्या? क्या-क्या नहीं ताने सहा हूँ मैं
मगर आदत नहीं जाती है अब पीने-पिलाने की

हुई शादी तो बेताबी भी क्यूँ जाती रही ग़ाफ़िल
वही जी! चाँद तारों से कोई दामन सजाने की

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, August 03, 2015

दार है अब कहाँ रिहाई है

हुस्न ने की जो बेवफ़ाई है
इश्क़ की आबरू पे आई है

उसका पीछा नहीं मैं छोड़ूंगा
क्या करूँ दिल पे चोट खाई है

आज गुस्ताख़ हो न जाऊँ मैं
वह जो नाज़ो अदा से आई है

हुस्न वालों का यक़ीं मत करना
इनकी फ़ित्रत में बेवफ़ाई है

आज देखा तो चाँद छत पर था
या ख़ुदा क्या तिरी ख़ुदाई है

ज़ुल्फ़े ज़िंदाँ में कैद हूँ अब तो
दार है अब कहाँ रिहाई है

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, August 02, 2015

तिश्नगी का मगर सिलसिला रह गया

एक मंज़िल था अब रास्ता रह गया
देखिए क्या था मैं और क्या रह गया

फिर वही का वही फ़ासिला रह गया
तू रहा और मैं देखता रह गया

ख़त से मज़मून सारे नदारद हुए
अब लिफ़ाफ़े पे केवल पता रह गया

घर के अफ़्राद जाने कहाँ खो गए
मैं सजा एक तस्वीर सा रह गया

क्या ज़माने की ऐसी हैं ख़ुदग़र्ज़ियाँ
जो के ज़र से फ़क़त वास्ता रह गया

आईने का वो गुस्सा अरे बाप रे!
उसको देखा तो बस देखता रह गया

जब उठा ही दिया आपने बज़्म से
अब मुझे और कहने को क्या रह गया

कौन है मेरी बर्बादियों का सबब
सोचने जो लगा सोचता रह गया

बारहा क्यूँ तसव्वुर में आता है तू
बोल तेरा यहाँ और क्या रह गया

था गुमाँ रंग लाएगी महफ़िल तेरी
मैं यहाँ भी लुटा का लुटा रह गया

आज की चाल में था उछाल और ही
टूट इक्का गया बादशा रह गया

लज़्ज़ते हिज्र तारी रही इस क़दर
वस्ल का जोश था ज्यूँ, धरा रह गया

रोज़ की तर्ह फिर गुम मनाज़िल हुईं
शुक्र है पर मेरा रास्ता रह गया

आख़िरी वक़्त पर क्या मुसलमान हों
सोचकर क्यूँ यही मैं जो था रह गया

आह! यह क्या हुआ साथ मेरे ग़ज़ब
मैं गया टूट और आईना रह गया

रू-ब-रू शर्बती चश्म ग़ाफ़िल थे गो
तिश्नगी का मगर सिलसिला रह गया

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, August 01, 2015

अब किताबों में पड़े ख़त मुँह चिढ़ाने लग गए

फिर रक़ीबों को मिरे यूँ मुँह लगाने लग गए
आप फिर से क्यूँ मुझे ही आज़माने लग गए

क्या पता है आपको मैंने किए क्या क्या जतन
आपको अपना बनाने में ज़माने लग गए

एक अर्सा हो गया आए हुए ख़त आपका
अब किताबों में पड़े ख़त मुँह चिढ़ाने लग गए

आप दुश्मन के यहाँ जाने लगे हैं आदतन
यूँ मुझे बर्बादियों के ख़्वाब आने लग गए

आपकी इस बेरुख़ी ने बेतरह डाला असर
अब मेरी आँखों में तारे झिलमिलाने लग गए

मेरे अश्कों में थी ग़ैरत गिरके कहलाए गुहर
आपके पल्लू में जा वाज़िब ठिकाने लग गए

इस तरह से इश्क़ का अपने हुआ है हश्र क्यूँ
आपसे पूछा तो अपना सर खुजाने लग गए

क्या करे ग़ाफ़िल भला यूँ राह कुछ सूझे नहीं
रहनुमा थे जो कभी अब बरगलाने लग गए

-‘ग़ाफ़िल’