Saturday, December 29, 2018

लोग आते जाते हैं

फ़र्क़ क्या करे कोई ऐसे पल भी आते हैं
वर्क़ कौंधती है या आप मुस्कुराते हैं

बात एक ही तो है यह के राहे उल्फ़त में
लुत्फ़ मुझको आ जाए आप या के पाते हैं

सच तो है जो लगता है दिल सराय सा अपना
देखता हूँ कितने ही लोग आते जाते हैं

उसकी अपनी ख़ूबी है हिज़्र को न कम आँको
जी से पास हैं जो सब दूरियों के नाते हैं

मानता हूँ ग़ाफ़िल हूँ है अक़ूबदारी पर
क्यूँ कहूँ के आप इतना क्यूँ मुझे बनाते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, December 22, 2018

प्यार हिस्से में मेरे आपका इतना आया

याद हो या के न हो नींद में क्या क्या आया
हाँ मगर ये है मुझे ख़्वाब सुहाना आया
मैं दबा जाता रहा ख़ुश्बुओं के बोझ तले
प्यार हिस्से में मेरे आपका इतना आया

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, December 20, 2018

आनी जानी है ज़िन्दगानी पर

गो ख़ुदा की है मिह्रबानी पर
यूँ भी इतरा नहीं जवानी पर
हाँ तमाशा रहेगा दुनिया का
आनी जानी है ज़िन्दगानी पर

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, December 18, 2018

आखि़री पल बचा वस्ल का है

है यहाँ या वहाँ फ़र्क़ क्या है
ज़िन्दगी का यही फलसफा है

आज रंगीं है अपनी तबीयत
आज तो ज़ह्र भी बा-मज़ा है

हुस्न तो हुस्न है उसकी बाबत
क्या हुआ कोई क्या सोचता है

ला पिला अब तो साक़ी मये लब
आखि़री पल बचा वस्ल का है

कोई हरक़त न हो गर ज़रा भी
सोचिए इश्क़ में क्या रहा है

हुस्न वालों की है राय अपनी
इश्क़ है क्या नहीं और क्या है

तो हुआ क्या है गर नाम ग़ाफ़िल
देखिए आदमी वह भला है

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, December 09, 2018

हाँ तेरा साथ निभाने की सज़ा पाएँगे

दो क़त्आ-

1-
लोग तो आते हैं जाते हैं चले राज़ी ख़ुशी
हम हैं जो तेरे सू आने की सज़ा पाएँगे
इल्म तो है ही के हो और भी कुछ या के न हो
हाँ तेरा साथ निभाने की सज़ा पाएँगे

-‘ग़ाफ़िल’

2-
गो पता है के हम आएँगे तेरे दर पे अगर
तेरी नफ़रत के सिवा और भी क्या पाएँगे
टूट जाएँगे न पाएँगे अगर तुझसे वफ़ा
क्या हुआ हम जो ज़माने से वफ़ा पाएँगे

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, December 08, 2018

मुलाक़ात अपनी है ये आख़िरी क्या

जो कहना है कहेंगे आप ही क्या?
पता है क्या, है क्या नेकी बदी क्या??

नहीं है धड़कनों पर इख़्तियार आज
मुलाक़ात अपनी है ये आख़िरी क्या

शबो रोज़ उसका ही करना तसव्वुर
न है गर बंदगी है बंदगी क्या

हुई जाती है अहले दुनिया दुश्मन
हमारे पास है ज़िंदादिली क्या

कहे क्यूँ आपबीती उससे ग़ाफ़िल
कभी गुज़री है उसपे तीरगी क्या

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, December 05, 2018

फिर भी ग़ाफ़िल मेरे सर इल्ज़ाम आया

बारहा होंटों पे तेरा नाम आया
टोटका ये भी कुछ अपने काम आया

आ गईं ख़ुशियाँ जहाँ की मेरे हिस्से
जब तसव्वुर में मेरा गुलफ़ाम आया

आ नहीं सकता था मेरा जिस्म लेकिन
जी मेरा सू तेरे सुब्हो शाम आया

है नहीं जिसको सलीक़ा मैक़दे का
जाने क्यूँ उसके ही नामे जाम आया

गो किया तूने ही था इज़्हारे उल्फ़त
फिर भी ग़ाफ़िल मेरे सर इल्ज़ाम आया

-‘ग़ाफ़िल’

लगती है राहे ख़ुल्द भी क्यूँ पुरख़तर मुझे

है बाख़बर जताए वो यूँ बेख़बर मुझे
गोया है रू-ब-रू ही बुलाता है पर मुझे

जैसे भी और जो भी मेरा हश्र हो वहाँ
आना है तेरे दर पे सितमगर मगर मुझे

मुट्ठी की रेत और मैं दोनों हैं हममिज़ाज
वैसे ही कोई रोज़ है जाना बिखर मुझे

आया कभी क़मर है भला क्या किसी के हाथ
ढूँढे फिरे हो आप जो शामो सहर मुझे

ग़ाफ़िल जी दर्द देती है शीरीं ज़ुबाँ भी क्या
लगती है राहे ख़ुल्द भी क्यूँ पुरख़तर मुझे

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, December 03, 2018

जो कल थी वही आज है ज़िन्दगी

बड़ी ही कलाबाज है ज़िन्दगी
नुमा तो है पर राज़ है जिन्दगी

अजल तू है मंज़िल ये सच है मगर
कहाँ तेरी मुह्ताज़ है ज़िन्दगी

है बदला ज़ुरूर आज अंदाज़ पर
जो कल थी वही आज है ज़िन्दगी

मुझे नाज़ फिर भी है उस पर बहुत
भले ही दगाबाज है ज़िन्दगी

हक़ीक़त यही है के है ख़ुशनुमा
हुआ क्या जो नासाज है ज़िन्दगी

कोई सुन ले कोई नहीं सुन सके
कुछ ऐसी ही आवाज़ है ज़िन्दगी

जो ग़ाफ़िल हो ख़ुद से कुछ इस तर्ह के
परिंदे की परवाज़ है ज़िन्दगी

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, November 30, 2018

तू आएगा

तमाम उम्र मैं सो सो गुज़ार दूँ लेकिन
मुझे यक़ीन तो हो ख़्वाब में तू आएगा

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, November 26, 2018

क्या करूँ तारीफ़ मैं कुछ और हुश्ने यार की

चश्म तो हैं ग़ैर जानिब ग़ैर जानिब नज़रे लुत्फ़
हमको तो अच्छी लगी ये भी अदा सरकार की
क़ुव्वते-शोख़ी-ए-जाना है के जाँ तक लूट ले
क्या करूँ तारीफ़ मैं कुछ और हुश्ने यार की

-‘ग़ाफ़िल’

न तू बेख़बर था न मैं बेख़बर

किया तो था मैंने फ़क़त इश्क़ पर
हुआ जा रहा मैकशी सा असर

चला क्यूँ तू मेरी कही मानकर
भले मैं कहा है सुहाना सफ़र

था होना तो ले हो गया इश्क़ गो
न तू बेख़बर था न मैं बेख़बर

सफ़र में तू दिन भर था जिस राह पर
उसी राह पर क्यूँ चला रात भर

रहे ज़ीस्त में एक तो साथ दे
भले कोई ग़ाफ़िल ही हो हमसफ़र

-‘ग़ाफ़िल’

हुस्न का इश्क़ पे बे तर्ह फ़िदा हो जाना

चाँद की छत पे उतर आने की इस तर्ह की ज़िद
हुस्न का इश्क़ पे बे तर्ह फ़िदा हो जाना

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, November 20, 2018

कुछ अलहदा शे’र-

1.
आए काश ऐसा कोई वक़्त के जब
आपका दिल मेरा ठिकाना हो

2.
भर चुके ख़ार से अपना दामन
बात अब आओ करें फूलों की

3.
फिर भी न भड़की आतिशे उल्फ़त किसी तरफ़
गोया हर एक सिम्त मज़े की हवा भी थी

4.
मुस्कुरा भी ले कभी लोग कहे
मुस्कुराया तो क़यामत आई

5.
दुनिया भर के शिक़्वे मेरे ही सर क्यूँ
आप भी तो यादों में जब तब आते हैं

6.
आई तो मुझको भी पर आई गई जैसी ही कुछ
हिज्र में किसको भला नींद सुहानी आई

7.

संग है इतना तराशोगे अगर
ये भी इक दिन देवता हो जाएगा

8.
जो रूठे हों उनको मना भी लें पर जो
तग़ाफ़ुल करें कैसे उनको मनाएँ

9.
पल में पानी हैं पल में हैं मोती
आँसुओं की अजब कहानी है

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, November 16, 2018

ख़ुद में पैदा ज़रा आदमीयत करें

जी से करके जुदा मेरी फ़ुर्सत करें
आप इसके सिवा और कुछ मत करें

ये भी कहने में है लाज़ आती के हम
ख़ुद में पैदा ज़रा आदमीयत करें

इश्क़ आसान है या कठिन है बहुत
इल्म हो जाएगा थोड़ी हिम्मत करें

यादों के हैं धनी आपको भूलकर
क्यूँ हम आबाद फिर अपनी ग़ुरबत करें

देखें हम भी तो ग़ाफ़िल जी हमको भी आप
इक दफा भूल जाने की ज़ुर्रत करें

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, October 30, 2018

मुनासिब है मेरी ग़ज़ल गुनगुनाए

अब इक और यह भी सितम हमपे हाए!
हुआ एक अर्सा न तुम याद आए!!

कहूँ क्यूँ के मुझको गले से लगा लो
भले जान अपनी अभी छूट जाए

भले सेंंकनी थी तुम्हें लेकिन आतिश
थे हम ही जो दामन में अपने लगाए

हुआ कुछ तो हासिल मुहब्बत से ग़ाफ़िल
सनम बेवफ़ा है यही जान पाए

न जीने का हो और जिसके वसील:
मुनासिब है मेरी ग़ज़ल गुनगुनाए

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, October 05, 2018

मुझे तू कह ले मेरी जान कुछ भी

सफ़र है इसलिए भी अपना आसाँ
नहीं है पास जो सामान कुछ भी

मैं हूँ आशिक़ मगर ग़ाफ़िल के कुछ और
मुझे तू कह ले मेरी जान कुछ भी

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, September 30, 2018

हुज़ूर आपसे राबिता चाहते थे

हम उल्फ़त में साथ आपका चाहते थे
बता दीजिए आप क्या चाहते थे

नहीं गो है मुम्क़िन मगर हर्ज़ क्या था
जो हिज्रत भी हम ख़ुशनुमा चाहते थे

मिलीं हमको रुस्वाइयाँ जबके हम तो
हुज़ूर आपसे राबिता चाहते थे

हमें देखकर क्यूँ उठे बज़्म से सब
वही जो हमें देखना चाहते थे

उन्हें भी तो हम रास आते नहीं अब
जो हमसा ही ग़ाफ़िल हुआ चाहते थे

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, September 29, 2018

अजल से भी निभा लेते हैं गर हम ख़ुद पे आते हैं

हमारे जिस्म को जो रात चादर सा बिछाते हैं
वही दिन के उजाले में पड़ी सलवट गिनाते हैं

ग़मों को दूर करने का तरीक़ा एक है यह भी
के उनको देखिए अक़्सर जो अक़्सर मुस्कुराते हैं

करें बर्बाद वक़्त अपना चलाकर बात क्यूँ उनकी
जो रातो दिन फरेबों में ही वक़्त अपना गँवाते हैं

कभी कम हो नहीं सकते हमारे हौसले हर्गिज
ग़ज़ल तो गाते ही गाते हैं हम नौहा भी गाते हैं

तू अपनी देख हम उश्शाक़ हैं ग़ाफ़िल! हमारा क्या!!
अजल से भी निभा लेते हैं गर हम ख़ुद पे आते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, September 27, 2018

मत निगाहों से ही खँगाल मुझे

न दिखा ऐसे फूले गाल मुझे
दिल से दे तूू भले निकाल मुझे

तू तग़ाफ़ुल करे है पर कुछ और
चाहिए तो था देखभाल मुझे

तेरे काम आएँ तेरे हाथ भी कुछ
मत निगाहों से ही खँगाल मुझे

है गिरा तू ख़ुद अपनी मर्ज़ी से फिर
क्यूँ ये कहना के आ सँभाल मुझे

पेश हैं अपने पुरख़तर अश्आर
कहके ग़ाफ़िल न आज टाल मुझे

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, September 26, 2018

ग़ाफ़िल पे क्या कभी भी भरोसा किया गया

क्यूँ पूछते हो और भी क्या क्या किया गया
रब के भी नाम पर तो तमाशा किया गया

करते रहे हो आप ही जैसा किया गया
कहते भी आप ही हो के अच्छा किया गया

कहकर कि इश्क़ हमसे हमेशा किया गया
इस तौर भी तो हमको है रुस्वा किया गया

उसका हो क्या जो वस्ल का वादा किया गया
इक बार फिर से हमको अकेला किया गया

होता अगर तो बात भी होती कुछ और पर
ग़ाफ़िल पे क्या कभी भी भरोसा किया गया

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, September 22, 2018

आओ प्यार करें

कौन कहता है जाँ निसार करें
है बहुत यह के आओ प्यार करें

जाने भी दें हम आशिक़ों पे आप
क्या ज़ुरूरी है ऐतबार करें

हैं मुख़ालिफ़ अब आपके हम भी
हमको अपनों में अब शुमार करें

या चलाएँ न तीर सीने पे आप
या चलाएँ तो आर पार करें

आप ग़ाफ़िल हैं इस क़दर फिर हम
कैसे उल्फ़त का कारोबार करें

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, September 14, 2018

कौन अब वादा वफ़ा करता है

क्या कुछ इंसान भला करता है
जो भी करता है ख़ुदा करता है

हो मुहब्बत के हो नफ़्रत की कशिश
जी को मौला ही अता करता है

उसने भी घूरके मुझको देखा
उससे जब पूछा के क्या करता है

तू न आए पै तेरे डर से अजल
आदमी रोज़ मरा करता है

मुझसे तक़्दीर मेरी रोज़-ब-रोज़
कोई तो है जो जुदा करता है

क्यूँ नहीं करता है मेरा कुछ अगर
तू ही नुक़्सानो नफ़ा करता है

है कठिन यूँ भी नहीं ग़ाफ़िल पर
कौन अब वादा वफ़ा करता है

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, September 12, 2018

दिखी सूरत जो अपनी तो ज़माने का ख़याल आया

ख़याल आने के पल सबको ज़माने का ख़याल आया
मुझे तो तब भी तेरे आस्ताने का ख़याल आया

हज़ारों संग ताने जाने कितने सहके सुनके भी
गया जो राहे उल्फ़त उस दीवाने का ख़याल आया

न जाने क्यूँ लगा था यह ज़माना ख़ूबसूरत है
दिखी सूरत जो अपनी तो ज़माने का ख़याल आया

गया था भूल होती है तबस्सुम नाम की शै भी
किसी को देखकर अब मुस्कुराने का ख़याल आया

है रुख़्सत की घड़ी यह कोई तो उससे ज़रा पूछे
उसे क्यूँ वस्ल का गीत अब ही गाने का ख़याल आया

ख़यालों में कभी लाया नहीं जिस शख़्स को ग़ाफ़िल
मुझे आज उसके यूँ ही आने जाने का ख़याल आया

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, September 07, 2018

जो कहते थे के हम आया करेंगे

भले कुछ हैं जो भरमाया करेंगे
मुसाफ़िर मंज़िलें पाया करेंगे

हम उश्शाक़ों का फिर होगा भला क्या
अगर आप ऐसे बिसराया करेंगे

तसव्वुर क्या जहाँ जब आप चाहें
इशारा हो हम आ जाया करेंगे

क़रार आए करेंगे क्या कुछ ऐसा
के आप ऐसे ही मुस्‍काया करेंगे

न आए वो किया क्‍या जाए ग़ाफ़िल
जो कहते थे के हम आया करेंगे

-'ग़ाफ़िल'

Thursday, September 06, 2018

ज़िन्दगी तुझपे है गुमाँ फिर भी

मर्तबा क्या है देखिए पर उफ़ुक़
फ़र्श पर ख़ुश है आसमाँ फिर भी
गोया है मौत ही तेरी मंज़िल
ज़िन्दगी तुझपे है गुमाँ फिर भी

-ग़ाफ़िल’

Saturday, September 01, 2018

लगे है पर हम तुमको पाने वाले हैं

दर्दे दिल ही है जो साथ है रोज़ो शब
और एहसासात आने जाने वाले हैं

ऐसा भी है कहाँ के तुम मिल जाओगे
लगे है पर हम तुमको पाने वाले हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, August 22, 2018

ग़ाफ़िल ये शानोशौकत है

किस्मत की लत गन्दी लत है
वैसे भी किस्मत किस्मत है

रोने की अब क्या किल्लत है
वस्लत नहीं है ये हिज्रत है

एक क़त्आ-

‘‘टाल रहा है इश्क़ की अर्ज़ी
लगता है तू बदनीयत है
फूल कोई गो खिला है जी में
चेहरे की जो यह रंगत है’’

इतना गुमसुम रहता है क्या
तुझको भी मरज़े उल्फ़त है

इश्क़ में जो है मेरी है ही
क्या यूँ ही तेरी भी गत है

लेकिन दुआ सलाम तो है ही
आपस में गोया नफ़्रत है

एक और क़त्आ-

‘‘जी छूटा जंजाल मिटा फिर
पाने की किसको हाजत है
साथ निभाए भी कितने दिन
ग़ाफ़िल ये शानोशौकत है’’

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, August 19, 2018

मेरे हिस्से की मुझको दे ज़माने

आदाब दोस्तो! एक ग़ज़ल ऐसी भी हुई मतलब एक ही क़ाफ़िया, रदीफ़ और बह्र में सब क़त्आ ही-

पहला क़त्आ मयमतला-

"लगेगा हुस्न जब भी आज़माने
लगे सर किसका देखो किसके शाने
है फिर भी जिसके पास उल्फ़त की दौलत
वो आएगा ज़ुरूर उसको लुटाने"

दूसरा क़त्आ-

"ये शोख़ी यह अदा यह बाँकपन यह
सुरो संगीत ये मीठे तराने
करेगा क्या तू इतनी इश्रतों का
मेरे हिस्से की मुझको दे ज़माने"

तीसरा क़त्आ-

"मनाने का हुनर आता नहीं फिर
बताना तू ही जब आऊँ मनाने
बहरहाल आ भले ख़्वाबों में ही आ
किसी भी तौर कोई भी बहाने"

चौथा क़त्आ मयमक़्ता-

"मनाएँ क्यूँ न हम त्योहार जब भी
फ़सल कट जाए घर आ जाएँ दाने
अजल है ज़ीस्त का होना मुक़म्मल
तू ग़ाफ़िल ऐसे माने या न माने"

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, August 16, 2018

समझ सकते हैं मालिक आप जो व्यापार करते हैं

मेरा कुनबा भला टुकड़ों में क्यूँ सरकार करते हैं
वही तो आप भी करते हैं जो गद्दार करते हैं

सगे भाई ही हैं हम जाति मजहब से न कुछ लेना
हम इक दूजे को जाँ से भी ज़ियाद: प्यार करते हैं

कहाँ हम हिज्र के आदी हैं अब तक वस्ल है अपना
बिछड़ने को हमें मज़्बूर ही क्यूँ यार करते हैं

चला जाता नहीं है वैसे भी इन आबलों के पा
इधर हैं आप जो रस्ता हर इक पुरख़ार करते हैं

सनम का साथ भी छूटा ख़ुदा भी मिल नहीं पाया
फ़क़त रुस्वाइयों का आप कारोबार करते हैं

चमन अपना ये हिन्दुस्तान है ख़ुश्बूओं का जमघट
इसे आप अपनी करतूतों से बदबूदार करते हैं

भले ग़ाफ़िल हैं लेकिन नासमझ हरगिज़ नहीं हैं हम
समझ सकते हैं मालिक आप जो व्यापार करते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, August 15, 2018

तुझ बेवफ़ा से वैसे भी अच्छा रहा हूँ मैं

काटा किसी ने और गो बोता रहा हूँ मैं
दुनिया के आगे यूँ भी तमाशा रहा हूँ मैं

आया नहीं ही लुत्फ़ बगल से गुज़र गया
इतना कहा भी मैंने के तेरा रहा हूँ मैं

इल्ज़ाम क्यूँ लगाऊँ तुझी पर ऐ बेवफ़ा
ख़ुद से भी जब फ़रेब ही खाता रहा हूँ मैं

मुझसे किया न जाएगा तौहीने मर्तबा
कुछ भी नहीं कहूँगा के क्या क्या रहा हूँ मैं

ग़ाफ़िल हूँ मानता हूँ मगर तू ये जान ले
तुझ बेवफ़ा से वैसे भी अच्छा रहा हूँ मैं

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, August 13, 2018

क्या ये सच है के दार होता है

कौन अब ग़मग़ुसार होता है
ज़ेह्न पर बस ग़ुबार होता है

ख़ार जी में है फूल बातों में
यूँ ही दुनिया में यार होता है

हों न अश्आर दोगले क्यूँ जब
सर वज़ीफ़ा सवार होता है

आज के दौर में तो हाए ग़ज़ब
इश्क़ भी क़िस्तवार होता है

कू-ए-जाना के बाद ग़ाफ़िल जी
क्या ये सच है के दार होता है

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, August 11, 2018

मैं क्या हूँ आप क्या हो न ये तज़्किरा करो

होना तो चाहिए ही सलीक़ा के क्या करो
क्यूँ मैं कहूँ के आप भी ये फ़ैसला करो

मैं तो किया हूँ इश्क़ ये मर्ज़ी है आपकी
रक्खो मुझे जी दिल में के दिल से जुदा करो

रुस्वाइयों से चाहिए मुझको नहीं निजात
इतना मगर हो आप ही बाइस हुआ करो

दुनिया के रंगो आब में घुल मिल गए हैं सब
मैं क्या हूँ आप क्या हो न ये तज़्किरा करो

जब जानते हो आप भी ग़ाफ़िल की ख़ासियत
फिर क्या है यह के वक़्त पर आकर मिला करो

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, August 10, 2018

ख़याल इतना रहे लेकिन ज़ुरूरत भर पिघलना तुम

किसी से भी कभी भी मत किए वादे से टलना तुम
भले जलना पड़े ता'उम्र मेरे दिल तो जलना तुम

इधर चलना उधर चलना किधर चलना है क्या बोलूँ
जिधर भी जी करे उस ओर पर अच्छे से चलना तुम

मचलने का जो मन हो जाए सतरंगी तितलियों पर
न रोकूँगा दिले नादाँ मगर बेहतर मचलना तुम

सिफ़ारिश गर करे ख़ुद शम्अ कोई तो पिघल जाना
ख़याल इतना रहे लेकिन ज़ुरूरत भर पिघलना तुम

तुम्हें पहचान लूँ जब रू-ब-रू होऊँ कभी ग़ाफ़िल
है इस बाबत गुज़ारिश फिर नहीं चेहरा बदलना तुम

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, August 08, 2018

इश्क़ फ़रमाए मुझे अब इक ज़माना हो चुका है

सोचता हूँ यार मुझको इश्क़ माना हो चुका है
मेरे खो जाने का पर क्या यह बहाना हो चुका है

अब तो लग जाए मुहर दरख़्वास्त पर ऐ जाने जाना
इश्क़ फ़रमाए मुझे अब इक ज़माना हो चुका है

तू भी आ जाए के मुझको कल ज़रा आ जाए आख़िर
चाँद का भी रात के पहलू में आना हो चुका है

रश्क़ करने की है बारी मेरे अह्बाबों की मुझ पर
कूचे में तेरे मेरा जो आना जाना हो चुका है

और कुछ रुक जा मज़ा लेना अगर है और भी कुछ
सोच मत यह तू के ग़ाफ़िल जी का गाना हो चुका है

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, August 06, 2018

पर हुज़ूर मुस्कुराइए!


शिक़ाइतें गिले जो जी करे वो जुल्म ढाइए
मुझे नहीं है उज़्र पर हुज़ूर मुस्कुराइए

-‘ग़ाफ़िल’

सोच सकते हैं पा नहीं सकते

शख़्स जो डगमगा नहीं सकते
अस्ल रस्ते पर आ नहीं सकते

ज़िन्दगी इक हसीन गीत है गो
लोग पर गुनगुना नहीं सकते

ऐसी कुछ शै हैं जैसे तू है जिन्हें
सोच सकते हैं पा नहीं सकते

वस्ल का उनके ख़्वाब देखें क्यूँ
जिनको हम घर बुला नहीं सकते

हक़ है क्या तोड़ने का ग़ाफ़िल अगर
हम कोई गुल खिला नहीं सकते

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, August 03, 2018

जाने क्यूँ मेरा मर्तबा जाने

हर कोई बात क्यूँ ख़ुदा जाने
क्यूँ न इंसान भी ज़रा जाने

मुझको इक बार याद कर लेता
मैं भी आ जाता यार क्या जाने

मेरी बू तो फ़ज़ाओं में है सभी
शुक्र है मुझको दिलजला जाने

ग़म तो ये है के लोग मुझसे कहीं
जाने क्यूँ मेरा मर्तबा जाने

ग़ाफ़िल आएगा क़त्ल होने को कौन
जब वो इल्मो हुनर तेरा जाने

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, July 31, 2018

ग़ाफ़िल इन हुस्नफ़रोशों का मगर क्या होगा

ग़ैरों से तेरे तअल्लुक़ का असर क्या होगा
होगा जो होगा मेरी जान को पर क्या होगा

चारागर रोक भी पाएगा निकलती जाँ तू
लाख है लेकिन अभी तेरा हुनर क्या होगा

एक पौधे पे रहे छाँव अगर पीपल की
सोचना ये है के वह तिफ़्ल शजर क्या होगा

तू ही गो शह्र में क़ातिल है मेरी जान मगर
क़त्ल करने को मेरा तेरा जिगर क्या होगा

फिर भी जी लेंगे हम उश्शाक़ दीवानेपन में
ग़ाफ़िल इन हुस्नफ़रोशों का मगर क्या होगा

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, July 30, 2018

तुझे ऐ ख़ुदा सोचना चाहता हूँ

आदाब दोस्तो! पेशे ख़िदमत है आज की ही हुई एक ऐसी ग़ज़ल जो होते होते अचानक इबादत हो गई-

तुझे क्या बताऊँ के क्या चाहता हूँ
हमेशा को तेरा हुआ चाहता हूँ

न सह पा रहा हूँ तेरा अब तग़ाफ़ुल
वही फिर मैं शिक़्वा गिला चाहता हूँ

वफ़ाई ज़फ़ाई परे कर दिया पर
तेरा लुत्फ़ ख़ुद में ज़रा चाहता हूँ

जहाँ है मुझे बस तसव्वुर में ले ले
कहाँ अब तेरा मैं पता चाहता हूँ

हूँ जाहिल नहीं गो मगर फिर भी तेरे
गये रास्ते पर चला चाहता हूँ

फ़ना तो है होना मगर उसके पहले
तुझे ऐ ख़ुदा सोचना चाहता हूँ

भले ही कहें लोग ग़ाफ़िल मुझे पर
ग़ज़ल आज तुझ पर कहा चाहता हूँ

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, July 29, 2018

गिर रहा है जो सँभाले से सँभल जाएगा

जो गया और कहीं और फिसल जाएगा
ये मेरा दिल है तेरे पास भी पल जाएगा

क्यूँ मनाने की मैं तद्बीर ही कुछ और करूँ
इक तबस्सुम पे तू वैसे भी पिघल जाएगा

चाँद के रू से तो हटने दे इन अब्रों का नक़ाब
वह भी अरमान जो बाकी है निकल जाएगा

गिर चुका है जो उसे रब ही उठाए आकर
गिर रहा है जो सँभाले से सँभल जाएगा

तंज़ कर ले ऐ ज़माने तू अभी मौका है
आज भर को ही है ग़ाफ़िल भी ये कल जाएगा

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, July 26, 2018

ग़मगीं हैं क्यूँ जनाब ज़रा सब्र कीजिए

यूँ देखिए न ख़्वाब ज़रा सब्र कीजिए
उतरे तो यह नक़ाब ज़रा सब्र कीजिए

पीकर शराबे हुस्न मियाँ ज़िन्दगी हसीं
मत कीजिए ख़राब ज़रा सब्र कीजिए

क़ायम जो कर रहे हैं सुबो सुब येे राय, क्या
साेेंणा है आफ़्ताब ज़रा सब्र कीजिए

चलना ही जब है ख़ार पर इन आबलों के पा
ग़मगीं हैं क्यूँ जनाब ज़रा सब्र कीजिए

ढल जाएगा ये रोज़ गो आएगी रात पर
निकलेगा माहताब ज़रा सब्र कीजिए

जो दूध है वो दूध है कैसे उसे भला
कह पाऊँगा मैं आब ज़रा सब्र कीजिए

ग़ाफ़िल जी ये ग़ुमान! रहेंगी न इश्रतें
टूटेगा जब अज़ाब ज़रा सब्र कीजिए

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, July 25, 2018

ग़ाफ़िल अब जान भी गँवाओगे

इस ग़ज़ल पर नज़र फिराओगे
नाचोगे झूम झूम गाओगे

है कमाल अपनी अपनी चाहत का
जैसे चाहोगे मुझको पाओगे

भूल पाए नहीं हो वस्ल अभी
हिज़्र क्या ख़ाक तुम भुलाओगे

क्या छुपेगा तुम्हारा इश्क़ मगर
तुम तो बस तुम हो तुम छुपाओगे

मेरे क़ातिल मेरे जनाज़े में
मुझको मालूम है तुम आओगे

कोई भी पा नहीं सका अब तक
चाँद क्या तुम मुझे दिलाओगे

हुस्न वालों से गुफ़्तगू भी तो यूँ
ग़ाफ़िल अब जान भी गँवाओगे

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, July 24, 2018

सू-ए-दार पर न जाए

मेरा जी तो यह कहे है चले तीर नज़रों वाला
जिसे होना हो फ़ना हो सू-ए-दार पर न जाए

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, July 23, 2018

दो शे'र-

😽1-

दुश्मनी ही है निभी तुझसे कहाँ
तू यहाँ ढब से निभाया क्या है

😽2-

कर लिया होगा जी याद ऐसे ही
तू कभी उसमें तो आया क्या है

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, July 21, 2018

ग़ाफ़िल को नुक़्सान रहेगा

तू कब तक नादान रहेगा
यह कहना आसान रहेगा

दिल में रहे न रहे हमारे
मन्दिर में भगवान रहेगा

सच ही मरेगा हुक़्मरान के
जब तक केवल कान रहेगा

दौरे तरक़्क़ी होगा न क्या कुछ
लेकिन क्या इंसान रहेगा

मैं न रहूँगा तुम न रहोगे
पर अपना अभिमान रहेगा

बज़्मे अदब में पीने पिलाने
का भी क्या सामान रहेगा

कितना ही कुछ कर ले जमा पर
ग़ाफ़िल को नुक़्सान रहेगा

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, July 19, 2018

ख़ंजरे दस्त अब गया किस्सा हुआ

जी गँवा बैठा है कहता क्या हुआ
किस क़दर है आदमी बहका हुआ

चाँद जब निकला न था तो वो था हाल
और जब निकला तो हो हल्ला हुआ

उसको तो मालूम होना चाहिए
रात भर जिसका यहाँ चर्चा हुआ

ज़ख़्म देना है चला तीरे नज़र
ख़ंजरे दस्त अब गया किस्सा हुआ

हुस्न के लासे में चिपका हर बशर
या हुआ ग़ाफ़िल के दीवाना हुआ

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, July 18, 2018

है क़रार आता मुझे ग़ाफ़िल तेरी तक़रार से

मैं फ़क़ीर अलमस्त क्या लेना मुझे संसार से
कोई दुत्कारे पुकारे या के कोई प्यार से

ख़ार भी हैं गुल भी हैं दोनों का है रुत्‍बा मगर
किसको देखा लौ लगाते गुलसिताँ में ख़ार से

बस ज़रा ठहरो मुझे भी ग़ालिबो तुम सबमें आज
देखना है कौन बचता है नज़र के वार से

जल रहा था शह्र मैं पूछा के यह कैसे हुआ
सब कहे भड़की है आतिश तेरे हुस्ने यार से

यूँ तग़ाफ़ुल से सुक़ूनो अम्न जाता है मेरा
है क़रार आता मुझे ग़ाफ़िल तेरी तक़रार से

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, July 16, 2018

अब लग ही जाए आग या फ़स्ले बहार हो

तौफ़ीक़ में है चाह के यह भी शुमार हो
हो नाज़नीन कोई उसे हमसे प्यार हो

गर है तो फिर सुबूत भी होने का दे ख़ुदा
नाले हों चिल्ल पों हो कुछ आँधी बयार हो

कुछ ख़ास हो नहीं तो सफ़र का है लुत्फ़ क्या
हों फूल गर न राह में गर्दो ग़ुबार हो

फिर क्या करे गिला ही कोई चाहकर भी गर
हो चाँद रात छत पे हो पहलू में यार हो

ग़ाफ़िल सड़ा सड़ा सा ये मौसम न ले ले जान
अब लग ही जाए आग या फ़स्ले बहार हो

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, July 15, 2018

हम निभाते न फ़क़त ढेर सा वादा करते

रोज़ तन्हाई में क्या चाँद निहारा करते
हम जो तुझको न बुलाते तो भला क्या करते

रंज़ो ग़म पीरो अलम गर न सुनाते अपना
हमको लगता है के हम ख़ुद से ही धोखा करते

हमको मालूम तो था तेरी कही का मानी
तेरी सुनते के तेरे दर पे तमाशा करते

एक क़त्आ-

हम न कह पाए के है कौन हमारा क़ातिल
नाम क्या लेके तुझे शह्र में रुस्वा करते
रोज़ ही क़ब्र से जाता तू हमारे होकर
हम तुझे काश के हर रोज़ ही देखा करते

अपनी उल्फ़त की उन्हें भी जो ख़बर हो जाती
इल्म क्या है के ये अह्बाब ही क्या क्या करते

गुंचे खिलते हैं कहाँ वैसे बिखर जाते हैं
करते तो किससे हम इस बात का शिक़्वा करते

चाँद इक रोज़ चुरा लाने को बोले तो थे पर
चाँद सबका है भला कैसे हम ऐसा करते

क्या ये वाज़िब था के नेताओं के जैसे ग़ाफ़िल
हम निभाते न फ़क़त ढेर सा वादा करते

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, July 14, 2018

खाली लिफ़ाफ़ा


मेरे अरमान गोया आजकल शब् भर निकलते हैं

रिझाने सामयीं को जब कभी बाहर निकलते हैं
मेरे अश्आर तब मुझसे भी सज-धज कर निकलते हैं

बड़े ही मनचले आँसू हैं इन पर बस भला किसका
ख़ुशी के पल हों तो आँखों से ये अक़्सर निकलते हैं

यही तो लुत्फ़ है चलता है यूँ ही खेल क़ुद्रत का
निकलते जाँसिताँ हैं कुछ तो कुछ जाँबर निकलते हैं

मुझे तो कम ही लगता है निकलना यह मगर फिर भी
मेरे अरमान गोया आजकल शब् भर निकलते हैं

यही देखा गया है जब भी आती मौत है उनकी
तभी ग़ाफ़िल जी चींटों चींटियों के पर निकलते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, July 13, 2018

ग़ाफ़िल हूँ मुझको देखा ओ भाला करे कोई

गर कर सके तो क्यूँ न उजाला करे कोई
लेकिन ये क्या के ख़ुद का रू काला करे कोई

ले ले कहाँ है यार किसी भी लुगत में अब
सो चाहिए के अब तो न ला ला करे कोई

है पालने का शौक ही कुछ भी किसी को गर
मेरे सा रोग प्यार का पाला करे कोई

इक़्रार हो भी जाए मगर एक शर्त है
इज़्हारे इश्क़ चाहने वाला करे कोई

होते हैं पाएदार गो अश्आर मेरे पर
ग़ाफ़िल हूँ मुझको देखा ओ भाला करे कोई

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, July 10, 2018

चाहता हूँ के तुझे शौक से गा दूँ जो कहे

जाम होंटों का अभी तुझको चखा दूँ जो कहेे
ऐसे उल्फ़त को ज़रा मैं भी हवा दूँ जो कहे

न ख़बर होगी ज़माने को न टूटेगा पहाड़
इस तरह रूहो बदन आज मिला दूँ जो कहे

ये तेरा हक़ है न शरमा तू ज़रा भी ऐ दिल
मैं वो हर चीज़ तेरे वास्ते ला दूँ जो कहे

चाँद तारों पे जो मुद्दत से नज़र है तेरी
चाँद तारों से तेरी मांग सजा दूँ जो कहे

गो हूँ पर तुझसे मैं ग़ाफ़िल हूँ कहाँ जाने ग़ज़ल
चाहता हूँ के तुझे शौक से गा दूँ जो कहे

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, July 09, 2018

तुम गुलाब हो जाना

हर्फ़ हर्फ़ बिखरा हूँ वैसे तो फ़ज़ाओं में
लोग पढ़ सकें मुझको तुम किताब हो जाना
साथ इस तरीक़े से और हम निभा लेंगे
ख़ार हूँ मैं गुलशन का तुम गुलाब हो जाना

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, July 06, 2018

अरे वाह!!

🔥राख कर देती है छू भर जाए ग़ाफ़िल जिस्म से
आग की हर इक लपट आँखों को पर भाती है खूब🔥

नमन् साथियो! गणित तो आती नहीं कि गिनकर बताऊँ कितना साल हुआ पर सन् 1988 का आज ही का रोज़ था जब ढोल बाजे के साथ उत्सव मनाते हुए मुझे भी अर्द्धांगिनी के रूप में यह हसीन तोहफ़ा प्राप्त हुआ था

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, June 28, 2018

अहद यह थी के उस ही दम ज़माना छोड़ देना था

मुझे है याद क्या क्या जाने जाना छोड़ देना था;
तेरा हर हाल मुझको आज़माना छोड़ देना था।

है छूट उल्फ़त में नज़रों से फ़क़त, पीने पिलाने की;
ज़रीयन दस्त मै पीना पिलाना छोड़ देना था।

हर आशिक़ को ख़ुदा के बंदे का है मर्तबा हासिल;
अरे यह क्या के उसको कह दीवाना छोड़ देना था।

अगर आए कभी आड़े ज़माना इश्क़ में अपने;
अहद यह थी के उस ही दम ज़माना छोड़ देना था।

रक़ीबों की रहन है क्या इसी बाबत भला मुझको;
तेरे दिल के नगर तक आना जाना छोड़ देना था।

ये माना है नया साथी नया रास्ता नयी मंज़िल;
मगर क्या तज़्रिबा अपना पुराना छोड़ देना था।

समझता रब है ख़ुद को उसको तो ग़ाफ़िल बहुत पहले;
भले कितना भी है वो जाना माना, छोड़ देना था।

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, June 27, 2018

आ तू भी


💘

तू भी मुझसे खफ़ा है आज के रोज़?
चाँद तारों में जा छुपा तू भी!
क़त्ल मेरा किया है शौक से तो
अब जनाज़ा उठाने आ तू भी!!

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, June 26, 2018

मेरे अरमाँ तेरी यादों से जब भी बात करते हैं

🦋

कभी हँसकर कभी गाकर कभी जोरों से झुँझलाकर
न जाने बह्र में किस, बात की शुरुआत करते हैं
तबस्सुम और आँसू बाँधते हैं क्या समां उस दम
मेरे अरमाँ तेरी यादों से जब भी बात करते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, June 19, 2018

खुला खुला सा वो क्या क्या दिखा रहा है मुझे

वो अपने सीने से ऐसे लगा रहा है मुझे
के जैसे ख़्वाब था मैं सच में पा रहा है मुझे

ये हिचकियाँ हैं सनद यह के है कोई तो जो
अभी भी यादों में अपनी बुला रहा है मुझे

सितम तो ये है के जाना था और ही जानिब
मगर कहाँ वो लिए जी में जा रहा है मुझे

कहूँ मैं कैसे के किस तौर ग़मग़ुसार मेरा
मेरा ही अश्के मुक़द्दस पिला रहा है मुझे

दिखाऊँ शीशा ज़माने को किस तरह ग़ाफ़िल
खुला खुला सा वो क्या क्या दिखा रहा है मुझे

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, June 17, 2018

और कुछ पी लूँ अभी होश में आने के लिए

याद करने के लिए हो के भुलाने के लिए
छोड़ कर कुछ भी तो जा यार ज़माने के लिए

मिस्ले दुनिया ही है ऐ दोस्त मेरा मैख़ाना
लोग आते ही यहाँ रोज़ हैं जाने के लिए

बस यही शिक़्वे ज़रा चंद मुहर्रम के गीत
और क्या कुछ न रहा मुझको सुनाने के लिए

कोई कुटिया हो के हो कोई महल मरमर का
एक चिंगारी ही काफी है जलाने के लिए

होश में हूँ गो मगर जी तो यही कहता है
और कुछ पी लूँ अभी होश में आने के लिए

खेल जाएगा ये ग़ाफ़िल तू कहे तो जी पर
तेरी उम्मीद तेरा ख़्वाब सजाने के लिए

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, June 16, 2018

मुझे भी अपने दीवानों में पर शुमार करे

कभी हो यूँ के कोई मुझसे भी तो प्यार करे
न बार बार किया जाए एक बार करे
गिराए वर्क़ के बरसाए संग मुझ पर वो
मुझे भी अपने दीवानों में पर शुमार करे

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, June 14, 2018

ग़ाफ़िल अब यह भी दिल्लगी है क्या

🤔

सुब्ह तो है ही शाम भी है क्या
बात अपनी के आख़िरी है क्या

कोई बतलाए तो मुझे अक़्सर
आईने में वो खोजती है क्या

लुत्फ़ आया तो पर न जज़्ब हुई
यह कहानी नई नई है क्या

उसके ही हाथ की लकीरों में
किस्मत अपनी भी खो गई है क्या

पा गया था मैं राह में थी पड़ी
सच बता यह सदी तेरी है क्या

कोई हंगामा हो के लुत्फ़ आए
ज़िन्दगी यह भी ज़िन्दगी है क्या

है ख़लिश तो इक अपने ज़ेरे जिगर
ग़ाफ़िल अब यह भी दिल्लगी है क्या

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, June 12, 2018

और कभी तुम आओ

जी में आना हो अगर और कभी तुम आओ
हो न जी को ये ख़बर और कभी तुम आओ

जाँ निसारी में हूँ मशहूर गो पर क्या हो अगर
गुम हो मेरा ये हुनर और कभी तुम आओ

बात यह भी है के फिर होगा भी उस रोज़ का क्या
मैं ही होऊँ न इधर और कभी तुम आओ

क्या हो किस्मत के मेरी पलकें बिछी हों जिस पर
सूनी सूनी हो डगर और कभी तुम आओ

वक़्त ऐसा भी सितम ढाए न मेरे ग़ाफ़िल
हो लुटा दिल का नगर और कभी तुम आओ

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, June 11, 2018

छोड़के जाने वाले!

मुझको मझधार में ऐ छोड़के जाने वाले!
क्या यहाँ कुछ हैं सफ़ीने को बचाने वाले

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, June 09, 2018

जीते के हारे : दो क़त्आ-

🌫️🌫️🚣🌫️🌫️
मुझे इश्क़ मौजों से है तो है, सो अब
कोई भी किनारा न मुझको पुकारे
हूँ मझधार में और बेहद हूँ ख़ुश मैं
गरज़ कुछ नहीं है के पहुँचूँ किनारे

-‘ग़ाफ़िल’
🌫️🌫️🚣🌫️🌫️

💝💝💝💝💝
हुज़ूर आप यूँ मोड़ लेंगे अगर मुँह
तो अफ़साने दम तोड़ देंगे हमारे
हम उल्फ़त की बाज़ी को रक्खेंगे ज़ारी
नहीं फ़र्क़ इससे है जीते के हारे

-‘ग़ाफ़िल’
💝💝💝💝💝

Thursday, June 07, 2018

जी मे लगे न तीर सी वह शाइरी नहीं

जो हो मेरा हो मेरे ही बाबत वही नहीं
यह तो है बस फ़रेब कोई दिल्लगी नहीं

गोया मैं ठीक ठाक हूँ अबके बहार में
हाँ तेरी याद है के जो अब तक गई नहीं

तेरी निग़ाहे लुत्फ़ है ग़ैरों के सिम्त अब
लगता है तुझको मेरी ज़ुरूरत रही नहीं

छूटी तो चार सू से ही गोली ज़ुबान की
मैं ही ज़रा कठोर था मुझको लगी नहीं

हर बार तेरे शह्र की इस भेंड़ चाल से
लगता है ये है आदमी की बस्तगी नहीं

पहले पहल है तू है परीशाँ इसीलिए
शिक़्वा-ए-बेवफ़ाई की मुझको कमी नहीं

ग़ाफ़िल करे तू शामो सहर शाइरी मगर
जी में लगे न तीर सी वह शाइरी नहीं

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, June 06, 2018

आज हम लेकिन दोराहे पर मिले

शख़्स कोई शम्स से क्यूँकर मिले
और फिर वह गर लगाकर पर मिले

राह का जिनको हुनर कुछ भी न था
ऐसे ही सब मील के पत्थर मिले

दर्दे दिल मेरा बढ़ाए ही कुछ और
आह इसी ख़ूबी के चारागर मिले

साथ चलना था शुरू से ही हुज़ूर
आज हम लेकिन दोराहे पर मिले

सामना ग़ाफ़िल करेगा किस तरह
तुझसे गर ग़ाफ़िल कोई बेहतर मिले

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, June 04, 2018

सीने के आर पार होता है

मान लूँगा हो कोई भी सूरत
मेरा तू ग़मग़ुसार होता है
तीर नज़रों का छोड़ तो वह जो
सीने के आर पार होता है

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, May 29, 2018

कभी नाज से मुस्कुराकर तो देखो

हुनर यह कभी आज़माकर तो देखो
दिलों में ठिकाना बनाकर तो देखो

नहीं फिर सताएगी तन्हाई-ए-शब
किसी के भी ख़्वाबों में जाकर तो देखो

उठा लेगा तुमको ज़माना सर आँखों
तुम इक भी गिरे को उठाकर तो देखो

न बह जाए उसमें ये दुनिया तो कहना
तबीयत से आँसू बहाकर तो देखो

रहेंगे न तुमसे फिर अफ़्राद ग़ाफ़िल
कभी नाज से मुस्कुराकर तो देखो

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, May 16, 2018

जो कुछ भी बरसे मेरे यहाँ बेहिसाब बरसे

जनाब की अंजुमन में कुछ पल गुलाब बरसे
पता नहीं क्यूँ बुरी तरह फिर जनाब बरसे

हो तेरी नफ़्रत के मेरे मौला हो तेरी रहमत
जो कुछ भी बरसे मेरे यहाँ बेहिसाब बरसे

कभी तो ऐसा भी हो के मुझ पर तेरी नज़र हो
मगर न आँखों से तेरी उस दम अज़ाब बरसे

हसीं दिलों की पनाह मुझको हुई मयस्सर
फ़लक़ से यारो अब आग बरसे के आब बरसे

न पा सकेगी मक़ाम ग़ाफ़िल तेरी ये हसरत
के कुछ किए बिन ही तेरे बाबत सवाब बरसे

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, May 14, 2018

तेरी तर्ज़े बयानी का हूँ क़ाइल

कहाँ मैं लंतरानी का हूँ क़ाइल
तेरी तर्ज़े बयानी का हूँ क़ाइल
तुझे मालूम हो ग़ाफ़िल मैं तेरी
बला की बेज़ुबानी का हूँ क़ाइल

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, May 10, 2018

किए बिन इत्तिला दिल में जो आएगा बुरा होगा

भले रुस्वा करे मुझको मगर तुझको पता होगा
के मेरे बाद शह्रे हुस्न में क्या क्या हुआ होगा

नहीं गो याद है लेकिन यक़ीं इतना तो है ख़ुद पर
अगर वह ख़ूबसूरत है तो फिर मुझसे मिला होगा

है आया कौन यह मालूम होना चाहिए आख़िर!
किए बिन इत्तिला दिल में जो आएगा बुरा होगा

न कर पाये मुझे सन्नाम तो बदनाम ही कर दे
सुक़ून आ जाएगा चर्चा मेरे जब नाम का होगा

तसव्‍वुर में मेरे इतनी दफा आना पड़ा तुझको
मुझे मालूम है इस बात से ही तू ख़फ़ा होगा

कोई मेरी निगाहों से ज़रा दुनिया को तो देखे
ये दुनिया जल रही होगी वो ग़ाफि़ल हो रहा होगा

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, May 06, 2018

फरेबियों के नगर दोस्त मत मगर जाओ

न यह कहूँगा के उल्फ़त में यार मर जाओ
मगर किसी से मुहब्बत हुज़ूर कर जाओ

इधर है हुस्नो शबाब और उधर रब जाने
ये है तुम्हीं पे इधर आओ या उधर जाओ

फ़क़त तुम्हीं से है बाकी उमीद अश्क अपनी
ज़रा ही वक़्त को पर आखों में ठहर जाओ

करूँ तुम्हें मैं ख़बरदार यह न ठीक लगे
फरेबियों के नगर दोस्त मत मगर जाओ

हाँ वो जो इश्क़ में ग़ाफ़िल किए हो वादे तमाम
अगर ख़ुशी हो तुम्हें शौक से मुकर जाओ

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, May 02, 2018

तेरे जैसा ज़माने में कोई दूजा नहीं है पर

रक़ीबों पर करम तेरा मुझे शिक़्वा नहीं है पर
समझ ले तू के यह तारीफ़ है ऐसा नहीं है पर
कई दिलदार हैं यह बात सच तो है ओ जाने जाँ
तेरे जैसा ज़माने में कोई दूजा नहीं है पर

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, May 01, 2018

तेरे ही सबब पार्साई गई है

भले ही वो पर्दे में लाई गई है
यहाँ भी मगर बात आई गई है

तुझे चाहने वाले होंगे कई पर
फ़क़त जेब अपनी सफ़ाई गई है

ग़ज़ल तुझको अपना बनाने की ज़िद में
ही अपनी पढ़ाई लिखाई गई है

न माने तू पर सच यही है के अपनी
तेरे ही सबब पार्साई गई है

सुनाते हो ऐसे ग़ज़ल आज ग़ाफ़िल
के जैसे ये पहले सुनाई गई है

-‘ग़ाफ़िल’

(पार्साई=संयम, इंद्रिय-निग्रह, पर्हेज़गारी)

Monday, April 30, 2018

ख़ुद ख़ुद को रास्ते का तमाशा बना लिया

🌷
ग़ाफ़िल है तेरे इश्क़ का ऐसा नशा के मैं
ख़ुद ख़ुद को रास्ते का तमाशा बना लिया
🌷

एक आत्मीय से आज ही हुई सहज वार्ता का प्रतिफलन कविता के साँचे में-

न राधा न मीरा
इनसे तो है मेरी वह ग़ज़ल वाली ही सही...
वही,
जिस पर मेरे तमाम अश्आर हैं निछावर,
जो है मेरी चाहतों का महावर

...अरे नहीं वह मेरी ग़ज़लों की मलिका है
वह बड़ी ख़ूबसूरत है
मुझे उसकी उसे मेरी ज़ुरूरत है
वह मेरे तसव्वुर की अल्पना है
वह मेरी कल्पना है

जिस रूप में, जिस रंग में, जहाँ सोचता हूँ मैं उसे
ठीक वैसे ही
वहीं सामने में आ खड़ी होती है वह मेरे
बिना परवाह किए किसी नदी, जंगल, पहाड़ व सहरा की

हम दोनों एक दूसरे को गलबहियाँ डाले पर्वतों की पगडंडियों पर चलते हुए अनायास न जाने कबतक बादलों के बगुलों को गिनते रहते हैं फिर थककर किसी देवदार नीचे बैठ स्वयं को विलीन कर देते हैं एक दूजे में
तब
न वह होती है न मैं होता हूँ... बस होते हैं मेरे अश्आर

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, April 22, 2018

देखना चाहेगा अंदाज़े वफ़ा और अभी

कम भी था क्या के तमाशा जो हुआ और अभी
बात कुछ और है लहजा है तेरा और अभी

और अभी मेरे तसव्वुर में तुझे रहना है
होना रुस्वा है तेरा अह्दे वफ़ा और अभी

इश्रतें हुस्न की तेरी हों मुबारक तुझको
अपनी तक़्दीर में है शिक्वा गिला और अभी

इश्क़ बेबाकियों का होता है मोहताज कहाँ
क्यूँ कहा फिर के तू आ खुलके ज़रा और अभी

इल्म तो होगा ही पर फिर भी बता क्या ख़ुद का
देखना चाहेगा अंदाज़े जफ़ा और अभी

तेग़ उठाया ही था वह पूछा मज़ा आया क्या
क़त्ल कर कहता है आएगा मज़ा और अभी

ऐसे अश्आर जो पचते ही नहीं हैं ग़ाफ़िल
लाख इंकार पे क्यूँ तूने कहा और अभी

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, April 21, 2018

गो हम आस पास होंगे

कभी मझको भूल जाना गो हम आस पास होंगे
कभी तुम न याद आना गो हम आस पास होंगे

अभी ख़्वाबों में तुम्हारे कई लोग आएँगे जी
मुझे अब न तुम बुलाना गो हम आस पास होंगे

कहीं जी मचल न जाए मैं न सुन सकूँगा अब और
यूँ तुम्हारा गुनगुनाना गो हम आस पास होंगे

कभी खिल भी जाएँ गुंचे हो भी ख़ुश्बुओं का मेला
ये न चाहेगा ज़माना गो हम आस पास होंगे

चले आज तीर ग़ाफ़िल नहीं आगे फिर लगे या
न लगे कभी निशाना गो हम आस पास होंगे

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, April 18, 2018

अक़्ल अपनी ठिकाने लगी

मैं उसे आज़माने लगा
वह मुझे आज़माने लगी
देख ताबानी-ए-रुख़ तेरी
अक़्ल अपनी ठिकाने लगी

-‘ग़ाफ़िल’

रात तन्हा मगर गुज़रती है

जिस्म जलता है जाँ तड़पती है
मौत आ जा कमी तेरी ही है

जिसको गाया नहीं कोई अबतक
वो ग़ज़ल ज़िन्दगी की मेरी है

जाके देखेगा होगा तब मालूम
है वो मंज़िल के उसके जैसी है

इतने अह्बाब हैं तेरे ग़ाफि़ल
रात तन्हा मगर गुज़रती है

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, April 17, 2018

है बड़ी चीज़ आप का होना

कोई कहता है आग सा होना
कोई कहता है जलजला होना
मैंने क्या क्या न हो के देख लिया
है बड़ी चीज़ आप का होना

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, April 16, 2018

सब तराने वो जो हम गाए थे

पास इतने भी कभी आए थे
यूँ के हम जाम भी टकराए थे
याद हों या के न हों तुमको अब
सब तराने वो जो हम गाए थे

-‘ग़ाफ़िल’

ग़ैर चाहे भी तो क्या लूटे हमें

फिर भी शिक़्वा है कहाँ उनसे हमें
गो गए छोड़ हर इक अपने हमें

साथ उनके ही शबे हिज़्र बहुत
उनके अश्वाक़ भी याद आए हमें

मेरे अपनों ने है ऐसे लूटा
ग़ैर चाहे भी तो क्या लूटे हमें

-‘ग़ाफ़िल’

(अश्वाक़=शौक़ का बहुवचन)

पाँवों पे वो सर रख दिए

पास उनके था बहुत ही शाद पर जाने वो क्यूँ
मेरे पल्लू में मेरा दिल आज लाकर रख दिए

मर्तबा अपना मुझे उस दम खिसकता सा लगा
जिस घड़ी रोकर मेरे पाँवों पे वो सर रख दिए

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, April 11, 2018

चारःगरी

चारःगरी ये हाय री चारःगरी ये हाय
चारःगरी ये हाय के बीमार कर दिया
वह शख़्स ही है वैसे मेरे दिल का डाक्टर
नज़रों का तीर दिल के था जो पार कर दिया

-‘ग़ाफ़िल’

भूत सेल्फ़ी का

सर पे है चढ़ा तेरे जो सेल्फ़ी का मेरी जाँ
ये भूत किसी तौर उतर जाए तो अच्छा

-‘ग़ाफ़िल’

आत्मविमुग्धता

आत्मविमुग्धता-

सोचा था हमसे होगी न रुस्वाई प्यार की
पर ख़ुद से ख़ुद का इश्क़ छुपाया नहीं गया

-‘ग़ाफ़िल’


Monday, April 09, 2018

प्यार का हो सके तो नशा कीजिए

क्यूँ कहूँ मैं के क्या हुस्न का कीजिए
हो सके इश्‍क़ का भी भला कीजिए

छा गये आप ज़ेह्नो जिगर पर भले
और अब कुछ न जी का बुरा कीजिए

मैं तो हँसता हूँ हालाते नाज़ुक पे भी
आप रो क्यूँ रहे हैं हँसा कीजिए

इसकी फ़ित्रत है कब ले ले आगोश में
हुस्न को देखते ही रहा कीजिए

रोकता है ज़़मीर और जी कह रहा
आप भी ज़िन्दगी में मज़ा कीजिए

हाँ ये माना नशा है बुरी चीज़ पर
प्यार का हो सके तो नशा कीजिए

आप हैं तो मगर ठीक यह भी नहीं
है के हर वक्‍़त ग़ाफ़िल रहा कीजिए

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, April 08, 2018

पर न ऐसा है के बेहतर हो गया हूँ

कह रहा क्यूँ तू के निश्तर हो गया हूँ
तेरी सुह्बत में वही गर हो गया हूँ

ज़ेह्नो दिल अपने भी पत्थर हो चुके मैं
हर तरह तेरा सितमगर हो गया हूँ

लग रहा मुझको भी मैं आशिक़ मुसल्सल
हिज़्र की आतिश में तपकर हो गया हूँ

सबके दिल में आना जाना क्या हुआ है
अपने ही दिल से मैं बाहर हो गया हूँ

तब न था मशहूर ऐसे ज़िन्दा था जब
जैसे मैं मशहूर मरकर हो गया हूँ

बढ़ गई होंगी मेरी रुस्वाइयाँ कुछ
पर न ऐसा है के बेहतर हो गया हूँ

ख़ुद से मैं ग़ाफ़िल था लेकिन होशियार अब
तेरे नक़्शे पा पे चलकर हो गया हूँ

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, April 03, 2018

इतने अरमाँ हुए शहीद जो महफ़िल एक सजाने में

बात है पल भर की ही तेरा मेरे जी तक आने में
बात बड़ी है ख़र्च हो जो ऐ ज़ालिम तुझे भुलाने में

अपने छत पर ही मैं अक़्सर चाँद बुला लेता हूँ पर
ख़तरा बहुत अधिक है यारो ऐसे उसे बुलाने में

सब कुछ पता है फिर भी तेरे मुँह से सुनना चाहूँगा
यह के हैं कितने झूठ जज़्ब जाने के तेरे बहाने में

अपना आना जाना गो हो जाता है अक़्सर वैसे
मुश्किल आती ही है किसी के दिल तक आने जाने में

सजी सजाई महफ़िल आखि़र अच्छी लगे न क्यूँ ग़ाफ़िल
इतने अरमाँ हुए शहीद जो महफ़िल एक सजाने में

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, March 28, 2018

करे तो कैसे करेगा इलाज़ चारागर

निगाहे लुत्फ़ तेरा हो किधर भी जाने जिगर
नज़र से अपनी मगर मेरी तर्फ़ देखा कर

चला तो और ही सू जाने क्यूँ मगर मुझको
है खेंच लाई कशिश तेरी तेरे घर अक़्सर

लगा हो रोग मुहब्बत का फिर भला उसका
करे तो कैसे करेगा इलाज़ चारागर

कहेंगे आप इसे क्या के शब थी सावन की
जला था उसमें मुसल्सल हमारे दिल का नगर

नहीं पता है चला है किधर से ग़ाफ़िल जी
खुबा हुआ है मगर सीने में कोई नश्तर

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, March 27, 2018

वही बस एक मुस्काई बहुत है

कहूँ किससे के ग़म भाई बहुत है
यहाँ सबसे शनासाई बहुत है

तो क्या समझूँ इसे इक़रारे उल्फ़त
वो मुझसे आज शरमाई बहुत है

कहाँ मुम्क़िन है उसको भूल पाना
तसव्वुर में वो जो आई बहुत है

मैं सर ले लूँगा उसकी हर बलाएँ
कभी उसकी क़सम खाई बहुत है

न मैं ज़ाहिर करूँगा औरों पर यह
मगर सच है वो हरज़ाई बहुत है

एक क़त्आ-

नहीं इल्ज़ाम है उसपे ये ग़ाफ़िल
के उसके चलते रुस्वाई बहुत है
दिले नादान के लुटने पे मेरे
वही बस एक मुस्काई बहुत है

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, March 26, 2018

हादिसे किस क़दर लुभाते हैं

नाज़ अँधेरों के भी उठाते हैं
दीये गोया हमीं जलाते हैं

हैं फ़क़त ख़्वाब ही नहीं वे ख़्वाब
जागे जागे जो देखे जाते हैं

हो न हो ख़ुद को देखने की ताब
आईना लोग पर दिखाते हैं

जो न आते हों सोच उनके लिए
तेरे दिल तक हम आते जाते हैं

कोई ग़ाफ़िल से आके पूछ तो ले
हादिसे किस क़दर लुभाते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, March 25, 2018

तुझे इश्क़ भी जानेजाना सिखा दूँ

तू आ मैं ग़ज़ल गुनगुनाना सिखा दूँ
अकेले में ही मुस्कुराना सिखा दूँ

है तुझमें कशिश बाँकपन है चमिश है
तुझे इश्क़ भी जानेजाना सिखा दूँ

ये माना हैं दिलकश अदाएँ तेरी बस
उन्हें मैं ज़रा सा लजाना सिखा दूँ

गो कोशिश निभाने की तेरी है फिर भी
सलीके से उल्फ़त निभाना सिखा दूँ

मिले कोई ग़ाफ़िल जो मुझसा तो उस पर
लगाते हैं कैसे निशाना, सीखा दूँ

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, March 22, 2018

ये रस्ता प्यार का दर तक तेरे जाता नहीं लगता

मुझे तू भूल जाता है मुझे अच्छा नहीं लगता
मैं रहता हूँ तेरे दिल में तुझे यह क्या नहीं लगता?

निग़ाहे लुत्फ़ तेरा है उधर रुख़ है इधर ऐसे
मुहब्‍बत आज़माना क्‍या तमाशा सा नहीं लगता?

मैं वापस आ ही जाता हूँ वहीं चलता जहाँ से हूँ
ये रस्ता प्यार का दर तक तेरे जाता नहीं लगता

तू होता है जो ग़मगीं रू मेरा भी ज़र्द होता है
फिर अपने बीच तुझको क्यूँ कोई रिश्ता नहीं लगता

घुला हो ज़ह्र कितना भी तेरी शोख़े बयानी में
मैं पी जाता हूँ हँस हँस कर मुझे तीखा नहीं लगता

रक़ीबों पर क़रम तेरा न मेरी जाँ पे आ जाए
तू मेरा है मगर अक़्सर मुझे मेरा नहीं लगता

तेरे आते ही ग़ाफ़िल बज़्म में आ जाती है रौनक़
बताना सच के तुझको क्या कभी ऐसा नहीं लगता?

-‘ग़ाफ़िाल’

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Saturday, March 17, 2018

ऐंठे ऐंठे हुए तेवर नहीं देखे जाते

रुख़ पे उल्फ़त के जो जेवर नहीं देखे जाते
आईने ऐसे भी शब भर नहीं देखे जाते

देखा जाता है महज़ उड़ता है कितना कोई
उड़ने वालों के कभी पर नहीं देखे जाते

ये ही क्‍या कम है के हो जाते हैं जी को महसूस
आप इस तर्फ़ तो अक़्सर नहीं देखे जाते

हो तबस्सुम जो लबों पर तो बने बात भी कुछ
ऐंठे ऐंठे हुए तेवर नहीं देखे जाते

आओ क्यूँ हम भी न इस जश्न में शामिल हो लें
खेल अब इश्क़ के छुपकर नहीं देखे जाते

आएगी वस्ल की शब अपनी भी क्या ग़ाफ़िल जी
आप तो अपने से बाहर नहीं देखे जाते

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, March 15, 2018

जब मिला तू जामे से बाहर मिला

तूने चाहा था जो वो जी भर मिला
तू ही कह क्या तू भी मुझको पर मिला

आज तक फुटपाथ पर था जी को अब
तू दिखा लगता है सुन्दर घर मिला

रब्त क़ायम हो न पाया गो के तू
आते जाते राह में अक़्सर मिला

शह्रे जाना में गया मैं जब कभी
हर बशर क्यूँ मुझको दीदःवर मिला

कैसे कह पाता मैं ग़ाफ़िल हाले दिल
जब मिला तू जामे से बाहर मिला

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, March 12, 2018

मैं अपने ज़िस्म के कच्चे मक़ान से भी गया

रही जो थोड़ी अब उस आन बान से भी गया
मैं तेरे इश्क़ में धरमो ईमान से भी गया

मक़ाम ख़ुल्द था पर हाय री मेरी किस्मत
मैं अपने ज़िस्म के कच्चे मक़ान से भी गया

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, February 26, 2018

तू आई तो साँस आखि़री बनके आई

लगे है के तू ज़िन्दगी बनके आई
पै पुड़िया कोई ज़ह्र की बनके आई

बग़ावत पे जाँ भी थी दौराने हिज़्राँ
न तू राबिता आपसी बनके आई

तुझे कब मिली ग़ैर से बोल फ़ुर्सत
मेरी भी ख़ुशी क्या कभी बनके आई

तू मुझको है प्यारी मेरी जान से भी
तू ही दुश्मने जाँ मेरी बनके आई

मैं चाहूँगा बेशक़ के इक बार डूबूँ
है तू जो उफ़नती नदी बनके आई

थी साँसों में रफ़्तारगी थी न तू जब
तू आई तो साँस आखि़री बनके आई

तलब तेरे होंटों के मय की थी ग़ाफ़िल
मगर जाम तू शर्बती बनके आई

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, February 14, 2018

मिल जाए इश्क़ हुस्न का सौदा किए बग़ैर

हालाकि डॉ. मिर्ज़ा हादी ‘रुस्वा’ की इस ज़मीन पर कहना कठिन है... फिर भी एक कोशिश अपनी भी-

वह रात हाए! आरज़ू उसका किए बग़ैर
आता है कोई ख़्वाब में वादा किए बग़ैर

मुझको पता है दिल में मेरे अब जो आ गए
जाओगे यूँ न आप तमाशा किए बग़ैर

हिक़्मत कोई भी कर लो मगर बात है ये तै
अच्छा न कुछ भी पाओगे अच्छा किए बग़ैर

जलता जिगर है डूबके दर्या-ए-इश्क़ में
सहता है नाज़ हुस्न का चर्चा किए बग़ैर

मुश्ताक़ इस क़दर हूँ के जाने ग़ज़ल तेरा
आती कहाँ है नींद नज़ारा किए बग़ैर

नख़रे तमाम और भी तीरे नज़र का वार
क्या क्या सितम सहा हूँ मैं शिक़्वा किए बग़ैर

क्या इस सिफ़त का ठौर है ग़ाफ़िल कहीं जहाँ
मिल जाए इश्क़ हुस्न का सौदा किए बग़ैर

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, February 12, 2018

या चले तो तीर सीनःपार होना चाहिए

आपको मुझसे भी थोड़ा प्यार होना चाहिए
और है तो प्यार का इज़्हार होना चाहिए

या चलाया ही न जाए तीर सीने पर कभी
या चले तो तीर सीनःपार होना चाहिए

फ़ासिले पनपे हैं अक़्सर वस्ल के साए में ही
हिज़्र का एहसास भी इक बार होना चाहिए

हो नहीं गर जिस्म में चल जाएगा फिर भी जनाब
आपकी बातों में लेकिन भार होना चाहिए

वह ख़बर जिससे सुक़ून आए उसे भी छापता
ऐसे पाए का भी तो अख़बार होना चाहिए

कब तलक ग़ैरों के बाग़ों से चलेगा अपना काम
क्या चमन अपना नहीं गुलज़ार होना चाहिए

राय यह कायम हुई ख़ुद के लिए ग़ाफ़िल जी आज
यार हो मक्कार तो मक्कार होना चाहिए

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, January 30, 2018

ये ग़ाफिल कद्दुओं को भी ग़ज़ब किशमिश बनाते हैं

भले ही बेलने को रोटियाँ बेलन उठाते हैं
लगे पर ठोंकने मुझको अभी बालम जी आते हैं

सितारों से मेरा दामन सजाने की अहद कर वो
मेरे सीने पे तोपो बम व बन्दूकें चलाते हैं

बलम जी आ तो जाते हैं मेरे सपने में अक़्सर पर
कभी ख़ुद बनके आते हैं कभी मुझको बनाते हैं

नहीं गाली इसे मानो ये है इज़्हारे उल्फ़त ही
जो मैं उनको सुनाता हूँ जो वो मुझको सुनाते हैं

घटाओं सी मेरी ज़ुल्फ़ों को झोंटे का लक़ब देकर
उसी बाबत बलम जी बारहा कुछ बुदबुदाते हैं

मुसन्निफ़ हैं अदा से बह्र में कुछ भी हो कर देंगे
ये ग़ाफिल कद्दुओं को भी ग़ज़ब किशमिश बनाते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, January 27, 2018

देखना ग़ाफ़िल अकेला देवता रह जाएगा

एक दिन जाती ये ज़ीनत देखता रह जाएगा
बस ग़ुरूरे ख़ाम ही इस हुस्न का रह जाएगा

माग लेगी ज़िन्दगी तेरी ही गर तुझसे कभी
आदमीयत की सनद फिर क्या भला रह जाएगा

जाने क्यूँ आने लगा अब जी में अपने यह ख़याल
तू चला जाएगा दिल से गर तो क्या रह जाएगा

गर तसव्वुर में न आएगा तू आगे भी कभी
वक़्त गुज़रेगा मगर वादा वफ़ा रह जाएगा

यूँ ही गर होता रहा इंसाफ़ में लेटो लतीफ़
मुद्दई ख़प जाएँगे और मुद्दआ रह जाएगा

कर ही दे! बाकी रहा करना अगर इज़्हारे इश्क़
हो न हो कुछ और लेकिन दिल ख़फ़ा रह जाएगा

इस तरह के मज़्हबी उन्माद के ज़ेरे असर
देखना ग़ाफ़िल अकेला देवता रह जाएगा

-‘ग़ाफ़िल’

कोई शर्माए तो शर्माए क्यूँ

तू नहीं याद तेरी आए क्यूँ
बोल मुझ पर ये सितम हाए! क्यूँ

जी ही जब आए नहीं आपे में
ज़िन्दगी कोई ग़ज़ल गाए क्यूँ

तेरे दर पर भी पहुँच कर साक़ी
आदमी जाम न टकराए क्यूँ

पूछे किस तौर कोई तुझसे अब
यह के कमज़र्फ तुझे भाए क्यूँ

जंगो उल्फ़त में भला ग़ाफ़िल जी
कोई शर्माए तो शर्माए क्यूँ

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, January 22, 2018

ता’उम्र हमें जीना सरकार ज़ुरूरी है

माना के मुहब्बत में तक़रार ज़ुरूरी है
पर हार मेरी ही क्यूँ हर बार ज़ुरूरी है

हो इश्क़ भले कितना लेकिन मेरी जाने जाँ
आँखों से ही हो चाहे इज़्हार ज़ुरूरी है

मरना है मुअय्यन पर मरने के लिए भी तो
ता’उम्र हमें जीना सरकार ज़ुरूरी है

तुमको हो पता क्यूँकर है चीज़ मुहब्बत जो
हम सबके लिए कितना ऐ यार ज़ुरूरी है

हमको भी ज़रा कोई समझा तो दे आख़िर क्यूँ
अश्आरों में नफ़्रत का व्यापार ज़ुरूरी है

दौलत भी और अज़्मत भी क्या क्या न दिया रब ने
क्या उसका नहीं बोलो आभार ज़ुरूरी है

जी तो हैं रहे सारे पर शौकतो इश्रत से
जीने के लिए ग़ाफ़िल घर बार ज़ुरूरी है

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, January 20, 2018

ओ नज़्ज़ार:फ़रेब! अब जा रहा है?

मेरे ज़ेह्नो जिगर पर छा रहा है
तू रफ़्ता रफ़्ता दिल में आ रहा है

पता है तू कहेगा हुस्न तेरा
ख़यालों का हसीं गुञ्चा रहा है

छुपाए फिर रहा सीना तू लेकिन
यही बोलेगा इसमें क्या रहा है

तू मेरा है मुझे है फ़ख़्र तुझ पर
भले ही ख़ार के जैसा रहा है

अभी पहुँचा ही तू ग़ाफ़िल यहाँ और
ओ नज़्ज़ार:फ़रेब! अब जा रहा है?

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, January 19, 2018

आगे ख़्वाबों के क्या नज़ारे थे

एक से एक ख़ूब सारे थे
दिल हमारा था और आरे थे

बात इतने पे आके ठहरी है
तुम हमारे के हम तुम्हारे थे

ख़ूब उफ़नते फड़कते सागर में
बेड़े हम भी कभी उतारे थे

हमको देखे भी पर न आया ख़याल
यह के हम उनको जी से प्यारे थे

क्यूँ न किस्मत सँवार पाए तेरी
जबके हम टूटे हुए तारे थे

बनके शोला भड़क उठे हैं सभी
जी में जो इश्क़ के शरारे थे

क्या क्या औ तौर किस कहें ग़ाफ़िल
आगे ख़्वाबों के क्या नज़ारे थे

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, January 18, 2018

है रास्ता बुरा या चला देर से

हुई तो रज़ा पर ज़रा देर से
है बात इसपे ठहरी के आ देर से

सँभालूँगा कैसे बताओ कोई
मज़ा प्यार का गर मिला देर से

इशारे के बाबत मुझे अब लगा
किया तो उसे पर किया देर से

वो दिल तक मेरे क्यूँ न पहुँचा अभी
है रस्ता बुरा या चला देर से

सहर से ही ग़ाफ़िल दरे बज़्म है
हुई शाम की इब्तिदा देर से

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, January 17, 2018

स्वर्ग बदे बाहन सरकारी किया करौ

पीठ मा आरी बातैं प्यारी किया करौ
अइसौ अपनी जीभ दुधारी किया करौ

बहुत चाक-चौबन्द हौ माना हम फिर भी
हमहू से कुछ रायशुमारी किया करौ

नहीं अउर तौ दतुइन ही गायब कइ दो
जियै मा यतनी तौ दुश्वारी किया करौ

पार नहीं पइबो सरकारी डकुवन से
जिनगी भर तू कोर्ट हज़ारी किया करौ

बच्च्यन कै अय्याशी ख़ूब फले फूले
बन्यो है बाबू ज़ेबैं भारी किया करौ

प्राइबेट से जाबो जिम्मा के लेई
स्वर्ग बदे बाहन सरकारी किया करौ

दानिशमंद रह्यो छाँटे अब झेलौ तू
कहे रहेन ग़ाफ़िल से यारी किया करौ

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, January 16, 2018

मज़े का नाच-गाना चल रहा है

नहीं गो पाई आना चल रहा है
बहुत कुछ पर पुराना चल रहा है

न मिल पाने का तेरा आज भी तो
वही जो था बहाना चल रहा है

कभी था आज़माया मैं किसी पर
अभी तक वह निशाना चल रहा है

रहे उल्फ़त जो ठुकराई थी तूने
उसी रह पर दीवाना चल रहा है

फ़लक़ का जो कभी ताना था मैंने
अभी वह शामियाना चल रहा है

वफ़ा की लाश पर पहले ही जैसा
मज़े का नाच-गाना चल रहा है

भरम ही है तेरा ग़ाफ़िल के तेरे
इशारे पर ज़माना चल रहा है

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, January 14, 2018

है क़शिश कुछ तो इस चश्मे तर में

तीरगी जब है जेह्नो जिगर में
रौशनी बोलो कैसे हो घर  में

कैसी डाली नज़र तूने यारा
अब नहीं फूल आते शजर में

फिर भुला पाएगा ख़ाक मुझको
तू बसा पहले दिल के नगर में

डूबता जा रहा हूँ सरापा
है क़शिश कुछ तो इस चश्मे तर में

इश्रतें वस्ले शब् की डुबोया
जी का तूफ़ान फिर दोपहर में

फूटता इश्क़ का ठीकरा है
क्यूँ मेरे सर ही अक़्सर शहर में

कब तलक यूँ रहूँगा मैं ग़ाफ़िल
आ ही जाऊँगा इक दिन बहर में

-‘ग़ाफ़िल’

चाहता हूँ मैं तुझे पर देख लूँ

तू कहे तो छिप-छिपाकर देख लूँ
चाहता हूँ मैं तुझे पर देख लूँ

तू भी तड़पे वस्ल को मेरे कभी
क्या हो अच्छा मैं वो मंज़र देख लूँ

मौत आ जाने से पहले क्यूँ नहीं
मैं हुनर तेरा सितमगर देख लूँ

राहे उल्फ़त में, नहीं भटकूँ सो मैं
क्यूँ न नक़्शे-पा-ए-रहबर देख लूँ

रह गई ख़्वाहिश के तुझको इक दफा
यार ग़ाफ़िल आज़माकर देख लूँ

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, January 12, 2018

तब ही महसूस हुई उसकी हुक़ूमत बाक़ी

शाद हूँ गोया अभी तक है नफ़ासत बाक़ी
और तो और ज़माने में है इज़्ज़त बाक़ी

आप मानोगे नहीं पर है यही सच यारो
मैं हूँ ज़िन्दा के अभी भी है जो ग़फ़लत बाक़ी

खुल के रो भी न सकूँ आह भी अब साथ कहाँ
कैसे झेलूँगा है जो थोड़ी सी किस्मत बाक़ी

आख़िरी साँस थी मैं था थे सभी रिश्तेदार
तब ही महसूस हुई उसकी हुक़ूमत बाक़ी

एक दिन दाँतों से मिल जाएगा ग़ाफ़िल जो जवाब
दोहरे की ये रहेगी क्या तेरी लत बाकी

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, January 08, 2018

दिल में रहे न तेरे तो आख़िर कहाँ रहे

जी में रहे के होंटों पे, चाहे जहाँ रहे
करिए दुआ हज़ार ये उल्फ़त जवाँ रहे

हर सू भले अँधेरा हो चल जाएगा मगर
हर इक नज़र में प्यार का सूरज अयाँ रहे

बर्दाश्त हो भी जाएगा नुक़्सान बाग़ का
पर यह सितम न हो के नहीं बाग़बाँ रहे

यह भी सवाल ग़ौरतलब है के जिस गली
रहता न हो मक़ीन भला क्या मक़ाँ रहे

हो या न हो ये बात अलहदा है यार पर
तुझको है मुझसे इश्क़ ये मुझको गुमाँ रहे

हम आशिक़ों को शौक से कहिए बुरा भला
पर चाहिए के हुस्न भी थोड़ा निहाँ रहे

ग़ाफ़िल है यह सही है पर आशिक़ भी है तेरा
दिल में रहे न तेरे तो आख़िर कहाँ रहे

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, January 05, 2018

क्या कहूँ ग़ाफ़िल जी क्या क्या मोहतरम करते रहे

क्यूँ तसव्वुर से हमारे रब्त कम करते रहे
आप कुछ इस तर्ह भी हम पर सितम करते रहे

सोचिए क्या आपसे हो भी सका वादा वफ़ा
देखिए तो यह ज़ुरूरी काम हम करते रहे

राख हम तो हो गए उल्फ़त की आतिश में फिर आप
किसको दिखलाने के बाबत चश्म नम करते रहे

अनसुनी होती रही क्यूँ फिर सदा गुंचे की और
जुल्म पंखुड़ियों पर उसके बेरहम करते रहे

उस तरह वह सब कोई भी शख़्स कर सकता नहीं
जिस तरह जो जो गुनाह अपने बलम करते रहे

जब नहीं करना था कुछ और इक मुहब्बत के सिवा
क्या कहूँ ग़ाफ़िल जी क्या क्या मोहतरम करते रहे

-‘ग़ाफ़िल’