Monday, August 29, 2011

हँसके मेरे क़रीब आओ तो

फिर भले रस्म ही निभाओ तो
हँसके मेरे क़रीब आओ तो

इक पड़ी चीज़ जो मिली तुमको
मेरा गुम दिल न हो दिखाओ तो!

आईना आपकी करे तारीफ़
यार अपना नक़ाब उठाओ तो

आगजन तुमको मान लूँगा मैं
आग दिल में अगर लगाओ... तो!!

दिल है नाशाद ये भी कम है क्या
जो कहे हो के क़स्म खाओ तो

यूँ भी क्या रूठना है ग़ाफ़िल से
एक अर्सा हुआ सताओ तो

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, August 23, 2011

मंजिल वही पुरानी है

नयी है राह पै मंजिल वही पुरानी है
नयी सी जिल्‍द में लिपटी वही कहानी है

नये से रूप में गिरधर भी है वही यारो
नये लिबास में मीरा वही दीवानी है

नया सा सुर है पै सरगम वही पुराना है
नयी सी ताल पे नचती वही जवानी है

न कुछ नया है पुराना भी कुछ नहीं है यहाँ
जुनूने रब्त है औ रब्त में रवानी है

ये शब भी वस्ल की ग़ाफ़िल है मुख़्तसर ही हुई
सहर ने बात ही कब अपनी यार मानी है

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, August 16, 2011

एक 'ग़ाफ़िल' से मुलाक़ात याँ पे हो के न हो

यार तेरी वो मुआसात यहाँ हो के न हो।
फिर सुहानी वो हसीं रात यहाँ हो के न हो॥

ऐसी ख़्वाहिश के रहे चाँद भी इन क़दमो में,
आबे- हैवाँ की वो बरसात यहाँ हो के न हो।

अंदलीबों यूँ ख़िज़ाओं में रहो गुम- सुम मत,
फिर बहारों की करामात यहाँ हो के न हो।

मुझ सा नादाँ भी ग़ज़ब ख़ुद को कहे अफलातूँ,
एक ‘ग़ाफ़िल’ से मुलाक़ात यहाँ हो के न हो॥ 

(मुआसात= मिह्रबानी, आबे- हैवाँ= अमृत)

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Monday, August 15, 2011

आप जाते भी मुस्कुराते हैं

कैसे बोलूँ के कैसी बातें हैं
किस सिफ़त की ये मूलाक़ातें हैं

होके मेरी गली से जाते हैं जब
आपके पाँव डगमगाते हैं

आपसे आशिक़ी की बातें हों क्या
बातों बातों में जो बनाते हैं

आके चुभता हूँ ख़ार सा मैं और
आप जाकर भी गुल खिलाते हैं

ये भी है तर्ज़े क़ातिली ग़ाफ़िल!
आप जाते भी मुस्कुराते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, August 11, 2011

सजनवा तू भी तो कुछ बोल


(मौन की महिमा तो निराली है ही किन्तु समय पर न बोलना भी कितना घातक हो जाता है यह बात सहज स्वीकार्य है। मेरी यह प्रविष्टि इससे पूर्व की प्रविष्टि ‘मौन-महिमा’ पर आई तमाम ऐसी प्रतिक्रियाओं, जिससे प्रतिक्रियाकर्ता के मौन साधने का उपक्रम ज़ाहिर होता है, का प्रतिफलन है)

सजनवा तू भी तो कुछ बोल,
तू क्यूँ होके मौन है बैठा, बोल न मिलती मोल।
                                                                सजनवा तू भी...
देख तो यह जग बोल रहा है, अपनी-अपनी खोल रहा है,
कुछ तेरे भी मन में होगा, मन की गाँठें खोल।
                                                               सजनवा तू भी...
ना बोला तो जग बोलेगा, इस दुनिया में बिस घोलेगा,
अब ललकार दे बाचालों को, अब बतियाँ ना तोल।
                                                                सजनवा तू भी...

ग़ाफ़िल! ओंठ खुलें अब तेरे, लघुता-मरजादा के घेरे
कब तक बाँध रखेंगे तुझको, अब ये बन्धन खोल।
                                                                सजनवा तू भी...
                                                                                     -ग़ाफ़िल

Tuesday, August 09, 2011

मौन-महिमा

(कई दिनों से ब्लॉग जगत 'मौन' पर कुछ ज्यादा ही मुखर हो गया है। सो सोचा कि मैं यदि मौन रहा तो इसे मेरी धृष्टता न मान ली जाय अतः लिख डाली मौन-महिमा पर कुछ लाइनें फटाफट। मौका-बेमौका अग़र आप इन्हें अमल में ले आएं तो शर्तिया बल्ले-बल्ले)

पेश है सूरते-हाल पर क़ाबिले-आजमाइश नुस्ख़ा 'मौन'

भाई यहि संसार महं, मौन मूल है जानि!
अवगुन जादा बोलना, मौन गुनन करि खानि॥
मौन गुनन करि खानि, सहज अग्यान छिपावै;
सन्मुख हों सुरसती, मौन तिनहुंक भरमावै।
'ग़ाफ़िल' कहैं अगर कटुभाषिनि मिलै लुगाई,
मौन बरत को साधि मस्त ह्वै रहिये भाई॥

एक बात और-
ग़ाफ़िल हूँ मेरी बात हँसी में उड़ाइए, ख़ुद पे यक़ीन हो तो मुस्कुराइए ज़नाब!
                                                                    -ग़ाफ़िल

Monday, August 08, 2011

शोले को नहाते देखा

हाय मैंने जो कभी उसको लजाते देखा
खंज़रे चश्म को हाथों से छुपाते देखा

डसके बलखाती हुई कौन गयी नागन इक
होश हँसते हुए इस दिल को गँवाते देखा

ग़ुस्लख़ाने के दरीचों से लपट का भभका
जाके जो देखा तो शोले को नहाते देखा

लोग मानेंगे नहीं फिर भी बता देता हूँ
चाँद को मैंने मेरी नींद चुराते देखा

तेरी ही मिस्ल हुई जा रही क़ुद्रत ग़ाफ़िल
बिजलियाँ ज़ुल्फ़ों को ही दिल पे गिराते देखा

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, August 07, 2011

आज ख़ुश हूँ बहुत

आज ख़ुश हूँ बहुत, उनका ख़त आ गया,
सूनी बगिया में फिर से बहार आ गयी।
थी उमस से भरी, चिपचिपी दुपहरी,
भीगे सावन सी ठंढी फुहार आ गयी॥


मैं तड़पता रहा धूप में रेत पर,
वो मचलते रहे लहलहे खेत पर,
यक-ब-यक जाने कैसा है जादू हुआ,
इस तपन में बसन्ती बयार आ गयी।


लोग समझें न इस ख़त के मजमून को,
मैं समझता हूँ स्याही की हर बून को,
धूल से कैस की फिर इबारत उड़ी,
यार के वास्ते बन पुकार आ गयी।


किस क़दर तू है 'ग़ाफ़िल' अनाड़ी निरा,
तीर तरकश से जाकर कहाँ पे गिरा,
चाक कर डाला जो उनका नाज़ुक ज़िग़र,
तेरे लहजे मे कैसे वो धार आ गयी॥
                                                         -'ग़ाफ़िल'

Friday, August 05, 2011

आग लगायी लोगों ने

मेरी झिलमिल सी रातों में आग लगाई लोगों ने
मेरी बर्बादी की कैसे हँसी उड़ाई लोगों ने

मेरे बचपन का साथी था एक खिलौना छूट गया
अब तक उससे खेल रहा था नज़र लगाई लोगों ने

अपनी अपनी किस्मत है ये बाग़ संवारा हमने ही
पतझड़ मेरे हिस्से आया मौज मनाई लोगों ने

ग़ाफ़िल उलझा है गुलाब के काँटो भरे छलावे में
दामन उसका चिन्दी चिन्दी ख़ुश्बू पाई लोगों ने

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, August 03, 2011

जो तोड़ी गयी है वो नाज़ुक कली है

तेरे सिम्त सजती हैं बज़्मे-बहाराँ,
मेरे सू तो मेरी ही शैदादिली है।
तुझे हो मुबारक़ ज़माने की रँगत,
ता'हद्दे-नज़र मेरे स्याही खिली है॥

नयी क़ैफ़ियत ये नये दौर की है,
तिहीदस्ती फ़ैय्याज़ों में जोर की है।
समन्दर के दर पे भी जा करके देखा,
मेरी प्यास उससे कहीं भी भली है॥

वो ताबानी सूरज की बदली में गुम है,
चमक चाँदनी की भी जुगुनू से कम है।
हैं दरिया की लहरें सराबी-शिगूफा,
सज़र भी हैं मुफ़लिस, हवा बद चली है॥

गया सूख बेवक़्त आँखों का पानी,
नहीं गीत में भी है कोई रवानी।
छमक भी है गायब सभी पायलों से,
पड़ी आज सूनी सी सुर की गली है॥

हुई किस क़दर रात चोरी यहाँ पे,
बता चाँद सबकी है ख़ूबी कहाँ पे।
जो गुल ख़ूबसूरत तो ख़ुश्बू जुदा है,
जो तोड़ी गयी है वो नाज़ुक कली है॥

अगन ने जलाया मेरा आशियाना,
ये ग़ाफ़िल भी है आज कैसा बेगाना।
हरी वादियों का हुआ रंग ख़ूनी,
चिता आल की देखो पहले जली है॥

(सू=तरफ़, तिहीदस्ती=हाथ का खालीपन, फ़ैयाज=दानी, सराबी-शिगूफ़ा=मृगमरीचिका जैसा भ्रम, आल=नाती,पोते)

Tuesday, August 02, 2011

क्या बताऊँ के क्या ग़ज़ब देखा

आँख भर मैंने तुझको जब देखा।
क्या बताऊँ के क्या ग़ज़ब देखा॥

दिल भी धड़का है, ओंठ भी मचले,
मैंने जो यह तेरा ग़बब देखा।

लाम से ग़ेसुओं की गुस्ताख़ी,
तेरे रुख़सार का करब देखा।

ये ख़ुदकुशी है या अदा-क़ातिल,
के चमिश में भी इक अदब देखा।

दिल मेरा तेरी कमाने-अब्रू,
और न मौत का सबब देखा।

तीर आकर जिगर के पार हुआ,
हाय! 'ग़ाफ़िल' ने उसको तब देखा।

( ग़बब=ठुड्ढ़ी के नीचे का मासल भाग, क़रब=बेचैन होना, बेचैनी, दुःखी होना
चमिश=लचक, इठलाहट )
                                    -'ग़ाफ़िल'