ये पंक्तियां आदरणीय बच्चन जी की कालजयी रचना "मधुशाला" पढ़ने के बाद उसकी मशहूर रूबाईयों पर प्रतिक्रिया स्वरूप लिखी थीं कभी उन्हीं की रवानी में, लगभग उन्हीं के शब्दों को प्रयुक्त करते हुए, जिससे पता चले कि किस रूबाई पर प्रतिक्रिया है। यदि आप मधुशाला कायदे से पढ़े होंगे तो अवश्य सम्यक् रूप से समझ जाएंगे। इसे अब पोस्ट कर रहा हूँ। जिन महानुभाव को इन पंक्तियों से इत्तिफ़ाक न हो उनसे मुआफ़ी चाहूँगा। कृपया इसे अन्यथा न लेंगे। -ग़ाफ़िल
1-
हर्ष विकम्पित कर में लेकर, मद्यप झूम रहा प्याला,
क्षीण वसन, उन्नत उरोज, कृश लंक, मचलती मधुबाला।
जलतरंग को मात दे रही, मधु-प्याले की मधुर खनक;
मधु सौरभ से महक रही, मदमस्त नशीली मधुशाला॥
2-
किन्तु जाम देने को जब भी, झुकती है साकी बाला,
नयन-अक्श-खंजर से सज्जित, दिखता है मधु का प्याला।
अहो क्रूर दुर्भाग्य! समर्पित मदिरा भी है साकी भी;
पर हाला की धार लपट सी, रोज जलाती मधुशाला॥
3-
जीवन में चालिस बसंत आया और चला गया लाला!
लालायित अधरों से प्रतिदिन जमकरके चूमी हाला।
हाथ पकड़ लज्जित साकी का पास बहुत अब तक खींचा;
फिर भी व्यर्थ सूखती जाती मधुमय जीवन-मधुशाला॥
4-
तब मदिरालय में रौनक थी, बाँका था पीने वाला,
तब संजीवनि सी हाला थी, बाँका था जीने वाला।
मृदु भावों की अंगूर लता जाने कब की है सूख चुकी;
सद्यसुहागिन के सिंगार में फन फैलाये मधुशाला॥
5-
पंडित, मोमिन, पादरियों को ख़ूब रिझायी मधुशाला,
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई ख़ूब छके पीकर हाला।
यह ग़ाफ़िल भी देख रहा क्या मदहोशी का आलम है।
हे मदिरालय के संस्थापक! तुम्हें मुबारक मधुशाला॥