Monday, January 30, 2017

हाए!

थोड़ी अलसाई दोपहरी
कुछ नीली कुछ पीली गहरी
मुझको अपने पास बुलाए
कुछ भी समझ न आए, हाए!

लता विटप सी लिपटी तन पर
अधरों को धरि मम अधरन पर
कामिनि जिमि नहिं तनिक लजाए
कुछ भी समझ न आए, हाए!

अधर सुधा यहि भाँति पान करि
विलग हुई संध्यानुमान करि
तृप्ता मन्द मन्द मुस्काए
कुछ भी समझ न आए, हाए!

-‘ग़ाफ़िल’

अगर आ गया, बड़बड़ाता रहेगा

न भुन पाए फिर भी भुनाता रहेगा
तू अपना हुनर आजमाता रहेगा

बड़ा खब्बू टाइप का है यार तू तो
क्या भेजा मेरा यूँ ही खाता रहेगा

बताएगा भी अब के तुझको हुआ क्या
मुहर्रम के या गीत गाता रहेगा

फिसड्डे क्या अपनी फिसड्डी सी रातें
जलाकर जिगर जगमगाता रहेगा?

ये ग़ाफ़िल है कोई इसे रोको वर्ना
अगर आ गया, बड़बड़ाता रहेगा

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, January 27, 2017

और नहीं तो!

आज अगर कोई नहीं है न सही
कल भी तो कोई नहीं था अपना

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, January 25, 2017

लज़्ज़त और बढ़ती है

तुम्हारे साथ होने भर से ताक़त और बढ़ती है
मेरी तो मेरी बर्बादी पे हिम्मत और बढ़ती है

भले तुम बेअदब कहते रहो मुझको मगर मेरी
तुम्हारे मुस्कुरा देने से ज़ुरअत और बढ़ती है

है सच तो यह के है क़ीमत गुलों की चंद कौड़ी ही
किसी के गेसुओं से जुड़ के क़ीमत और बढ़ती है

हसीं साक़ी शराबे लब न जाने और क्या क्या क्या
पता गो है के ऐसी लत से ज़ेह्मत और बढ़ती है

नहीं इंसाफ़ है यह भी के कर लो हुस्न पोशीदः
न हो गर पर्दादारी भी तो ज़िल्लत और बढ़ती है

निवालों की ये ख़ूबी आज़मा लेना कभी ग़ाफ़िल
के कुछ फ़ाक़े हों गर पहले तो लज़्ज़त और बढ़ती है

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, January 23, 2017

अंदेशः

आदाब!

मैंने आवाज़ लगा दी, है मगर अंदेशः
सोचूँ कब तेरे दर आवाज़ मेरी जाती है

‘-ग़ाफ़िल’

Saturday, January 21, 2017

मिस्ले नाली नदी हो गई

क्या कहूँ दिल्लगी हो गई
मेरी शब और की हो गई

जाएगी किस तरफ़ क्या पता
ज़िन्दगी सिरफिरी हो गई

क्या करोगे भला दोस्त जब
बात ही लिजलिजी हो गई

वक़्त का ही करिश्मा है जो
मिस्ले नाली नदी हो गई

ये ले ग़ाफिल तेरी भी ग़ज़ल
कुछ जली, कुछ बुझी, हो गई

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, January 17, 2017

ज्यूँ तू मुरझाई ख़बर लगता है

कोई सीने से अगर लगता है
जी मेरा सीना बदर लगता है

तूने तो की थी दुआ फिर भी मगर
ओखली में ही ये सर लगता है

पास आ जा के हरारत हो ज़रा
सर्द सी रात है डर लगता है

अपने इस तीरे नज़र पर फ़िलहाल
तू लगाया है ज़हर, लगता है

लाख कोशिश पे सुधर पाया न मैं
मुझपे तेरा ही असर लगता है

रोज़ अख़्बारों में आने से तेरे
ज्यूँ तू मुरझाई ख़बर लगता है

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, January 15, 2017

सब

निकल पाएगा दस्तो पा भला कैसे फँसा है सब
मुझे यह इश्क़ो चाहत क़ैद जैसा लग रहा है सब

कभी बह्रे मुहब्बत में अगर डूबे तो बोलोगे
के जो डूबा कहीं पर भी उसी को ही मिला है सब

किसी से इश्क़ हो जाना फिरा करना जूँ मजनू फिर
ये दैवी आपदा सा है कहाँ अपना किया है सब

छुपे रहते हो बेजा तुम नहीं तुमको पता शायद
के है अल्लाह और उसको ज़माने का पता है सब

रहा कुछ मेरा कुछ तेरा क़ुसूर उल्फ़त निबाही में
नहीं दावे से कह सकता है ग़ाफ़िल एक का है सब

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, January 14, 2017

चाँद के भी पार होना चाहिए

ठीक है व्यापार होना चाहिए
फिर भी लेकिन प्यार होना चाहिए

मुझको आने को बतौरे चारागर
कोई तो बीमार होना चाहिए

आप हों या मैं मगर इस बाग़ का
एक पहरेदार होना चाहिए

दरमियाने दिल है तो फ़िलवक़्त ही
प्यार का इज़हार होना चाहिए

शर्म तो आती है फिर भी एक बार
चश्म तो दो चार होना चाहिए

हम न मिल पाएँ भले पर जी में रब्त
दोस्त आख़िरकार होना चाहिए

अब तो ग़ाफ़िल हौसिले का अपने रुख़
चाँद के भी पार होना चाहिए

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, January 11, 2017

आतिशे उल्फ़त को हर कोई हवा देने लगे

बोसा-ओ-गुल फोन पर अब रोज़हा देने लगे
हाए यूँ उश्शाक़ माशूकः को क्या देने लगे

ख़ैर जब जब मैं रक़ीबों की मनाया मुझको तब
गालियाँ वे सह्न पर मेरे ही आ देने लगे

आशियाँ दिल का मेरे बच पाएगा किस तर्ह गर
आतिशे उल्फ़त को हर कोई हवा देने लगे

जाने जाँ तेरे क़सीदे में हुए जो भी अश्आर
मिलके सब ग़ज़ले मुक़म्मल का मज़ा देने लगे

ढूँढने ग़ाफ़िल को अपने था चला पर मुझको सब
कैसी चालाकी से मेरा ही पता देने लगे

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, January 10, 2017

नज़र अपना निशाना जानती है : दो क़त्आ

1.
जो अपना सब गँवाना जानता है
वो अपना हक़ भी पाना जानता है
फँसाओगे उसे क्या जाल में तुम
जो हर इक ताना बाना जानता है
2.
किसी पे क़ह्र ढाना जानती है
तो महफ़िल भी सजाना जानती है
न बातों से इसे तुम बर्गलाओ
नज़र अपना निशाना जानती है

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, January 06, 2017

सजाकर जो पलक पर आँसुओं का हार रखता है

कहोगे क्या उसे जो तिफ़्ल ख़िदमतगार रखता है
औ तुर्रा यह के दूकाँ में सरे बाज़ार रखता है

कहा जाता है वह गद्दार इस दुनिया-ए-फ़ानी में
जो रहता है इधर औ जी समुन्दर पार रखता है

वो सपने टूट जाते हैं, जो पाक़ीज़ः नहीं होते
और उनको देखने का जज़्बा भी गद्दार रखता है

पता है तू न आएगा न जाने क्यूँ मगर फिर भी
उमीद आने की तेरे यह तेरा बीमार रखता है

उसे अदना समझने की न ग़ाफ़िल भूल कर देना
सजाकर जो पलक पर आँसुओं का हार रखता है

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, January 05, 2017

चाँद सह्न पर आया होगा

होगी आग के दर्या होगा
देखो आगे क्या क्या होगा

ख़ून रगों में लगा उछलने
चाँद सह्न पर आया होगा

रस्म हुई हाइल गो फिर भी
मुझको वह ख़त लिखता होगा

मुझे पता था शम्स उगेगा
फिर से और उजाला होगा

जो टुकड़ों में आप बँटा हो
क्या तेरा क्या मेरा होगा

जो भी तर्क़ करेगा मुझको
बिल्कुल तेरे जैसा होगा

छोड़ गया था मुझे मगर अब
तू पत्ते सा उड़ता होगा

सोचा नहीं था ज़ीस्त में अपने
उल्फ़त जैसा धोखा होगा

ग़ाफ़िल तो रहता है सबमें
तू बस ख़ुद में रहता होगा

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, January 04, 2017

उल्फत की रह में आग का दर्या ज़ुरूर है

लेकिन नहीं है शम्स, उजाला ज़ुरूर है
देखे न देखे कोई, तमाशा ज़ुरूर है

ये गुल बग़ैर ख़ुश्बू के ही खिल रहे जो अब
इनका भी ज़र से हो न हो रिश्ता ज़ुरूर है

तुझसे भी नाज़ लेकिन उठाया नहीं गया
बज़्मे तरब में आज तू आया ज़ुरूर है

मत पूछ यह के जी है भटकता कहाँ कहाँ
गो मेरा जिस्म उसका घरौंदा ज़ुरूर है

हासिल करूँगा फिर भी किसी तर्ह मैं मुक़ाम
उल्फत की रह में आग का दर्या ज़ुरूर है

है आख़िरी उड़ान यही सोच और उड़
मंज़िल जो तुझको अबके ही पाना ज़ुरूर है

ग़ाफ़िल न मिल सका है अभी तक मुझे सुक़ून
कहते हैं तेरे दर पे ये मिलता ज़ुरूर है

-‘ग़ाफ़िल’


Monday, January 02, 2017

किस सिफ़त का ऐ मेरे मौला तेरा इजलास है

इस शबे फ़ुर्क़त में तारीकी तो अपने पास है
क्यूँ हुआ ग़ाफ़िल उदास इक यूँ भी अपना ख़ास है

दूर रह सकती है कोई जान कब तक जिस्म से
जान होने का उसे गर वाक़ई एहसास है

प्यास की शिद्दत मेरी पूछो न मुझसे दोस्तो!
बह्र से तफ़्तीश कर लो उसकी कैसी प्यास है

क़त्ल भी मेरा हुआ इल्ज़ाम भी है मेरे सर
किस सिफ़त का ऐ मेरे मौला तेरा इजलास है

मेरी भी हाँ तेरी भी हाँ जब है तो मेरे सनम
फ़ासिला जो दरमियाँ है क्या फ़क़त बकवास है

-‘ग़ाफ़िल’