Wednesday, August 22, 2018

ग़ाफ़िल ये शानोशौकत है

किस्मत की लत गन्दी लत है
वैसे भी किस्मत किस्मत है

रोने की अब क्या किल्लत है
वस्लत नहीं है ये हिज्रत है

एक क़त्आ-

‘‘टाल रहा है इश्क़ की अर्ज़ी
लगता है तू बदनीयत है
फूल कोई गो खिला है जी में
चेहरे की जो यह रंगत है’’

इतना गुमसुम रहता है क्या
तुझको भी मरज़े उल्फ़त है

इश्क़ में जो है मेरी है ही
क्या यूँ ही तेरी भी गत है

लेकिन दुआ सलाम तो है ही
आपस में गोया नफ़्रत है

एक और क़त्आ-

‘‘जी छूटा जंजाल मिटा फिर
पाने की किसको हाजत है
साथ निभाए भी कितने दिन
ग़ाफ़िल ये शानोशौकत है’’

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, August 19, 2018

मेरे हिस्से की मुझको दे ज़माने

आदाब दोस्तो! एक ग़ज़ल ऐसी भी हुई मतलब एक ही क़ाफ़िया, रदीफ़ और बह्र में सब क़त्आ ही-

पहला क़त्आ मयमतला-

"लगेगा हुस्न जब भी आज़माने
लगे सर किसका देखो किसके शाने
है फिर भी जिसके पास उल्फ़त की दौलत
वो आएगा ज़ुरूर उसको लुटाने"

दूसरा क़त्आ-

"ये शोख़ी यह अदा यह बाँकपन यह
सुरो संगीत ये मीठे तराने
करेगा क्या तू इतनी इश्रतों का
मेरे हिस्से की मुझको दे ज़माने"

तीसरा क़त्आ-

"मनाने का हुनर आता नहीं फिर
बताना तू ही जब आऊँ मनाने
बहरहाल आ भले ख़्वाबों में ही आ
किसी भी तौर कोई भी बहाने"

चौथा क़त्आ मयमक़्ता-

"मनाएँ क्यूँ न हम त्योहार जब भी
फ़सल कट जाए घर आ जाएँ दाने
अजल है ज़ीस्त का होना मुक़म्मल
तू ग़ाफ़िल ऐसे माने या न माने"

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, August 16, 2018

समझ सकते हैं मालिक आप जो व्यापार करते हैं

मेरा कुनबा भला टुकड़ों में क्यूँ सरकार करते हैं
वही तो आप भी करते हैं जो गद्दार करते हैं

सगे भाई ही हैं हम जाति मजहब से न कुछ लेना
हम इक दूजे को जाँ से भी ज़ियाद: प्यार करते हैं

कहाँ हम हिज्र के आदी हैं अब तक वस्ल है अपना
बिछड़ने को हमें मज़्बूर ही क्यूँ यार करते हैं

चला जाता नहीं है वैसे भी इन आबलों के पा
इधर हैं आप जो रस्ता हर इक पुरख़ार करते हैं

सनम का साथ भी छूटा ख़ुदा भी मिल नहीं पाया
फ़क़त रुस्वाइयों का आप कारोबार करते हैं

चमन अपना ये हिन्दुस्तान है ख़ुश्बूओं का जमघट
इसे आप अपनी करतूतों से बदबूदार करते हैं

भले ग़ाफ़िल हैं लेकिन नासमझ हरगिज़ नहीं हैं हम
समझ सकते हैं मालिक आप जो व्यापार करते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, August 15, 2018

तुझ बेवफ़ा से वैसे भी अच्छा रहा हूँ मैं

काटा किसी ने और गो बोता रहा हूँ मैं
दुनिया के आगे यूँ भी तमाशा रहा हूँ मैं

आया नहीं ही लुत्फ़ बगल से गुज़र गया
इतना कहा भी मैंने के तेरा रहा हूँ मैं

इल्ज़ाम क्यूँ लगाऊँ तुझी पर ऐ बेवफ़ा
ख़ुद से भी जब फ़रेब ही खाता रहा हूँ मैं

मुझसे किया न जाएगा तौहीने मर्तबा
कुछ भी नहीं कहूँगा के क्या क्या रहा हूँ मैं

ग़ाफ़िल हूँ मानता हूँ मगर तू ये जान ले
तुझ बेवफ़ा से वैसे भी अच्छा रहा हूँ मैं

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, August 13, 2018

क्या ये सच है के दार होता है

कौन अब ग़मग़ुसार होता है
ज़ेह्न पर बस ग़ुबार होता है

ख़ार जी में है फूल बातों में
यूँ ही दुनिया में यार होता है

हों न अश्आर दोगले क्यूँ जब
सर वज़ीफ़ा सवार होता है

आज के दौर में तो हाए ग़ज़ब
इश्क़ भी क़िस्तवार होता है

कू-ए-जाना के बाद ग़ाफ़िल जी
क्या ये सच है के दार होता है

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, August 11, 2018

मैं क्या हूँ आप क्या हो न ये तज़्किरा करो

होना तो चाहिए ही सलीक़ा के क्या करो
क्यूँ मैं कहूँ के आप भी ये फ़ैसला करो

मैं तो किया हूँ इश्क़ ये मर्ज़ी है आपकी
रक्खो मुझे जी दिल में के दिल से जुदा करो

रुस्वाइयों से चाहिए मुझको नहीं निजात
इतना मगर हो आप ही बाइस हुआ करो

दुनिया के रंगो आब में घुल मिल गए हैं सब
मैं क्या हूँ आप क्या हो न ये तज़्किरा करो

जब जानते हो आप भी ग़ाफ़िल की ख़ासियत
फिर क्या है यह के वक़्त पर आकर मिला करो

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, August 10, 2018

ख़याल इतना रहे लेकिन ज़ुरूरत भर पिघलना तुम

किसी से भी कभी भी मत किए वादे से टलना तुम
भले जलना पड़े ता'उम्र मेरे दिल तो जलना तुम

इधर चलना उधर चलना किधर चलना है क्या बोलूँ
जिधर भी जी करे उस ओर पर अच्छे से चलना तुम

मचलने का जो मन हो जाए सतरंगी तितलियों पर
न रोकूँगा दिले नादाँ मगर बेहतर मचलना तुम

सिफ़ारिश गर करे ख़ुद शम्अ कोई तो पिघल जाना
ख़याल इतना रहे लेकिन ज़ुरूरत भर पिघलना तुम

तुम्हें पहचान लूँ जब रू-ब-रू होऊँ कभी ग़ाफ़िल
है इस बाबत गुज़ारिश फिर नहीं चेहरा बदलना तुम

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, August 08, 2018

इश्क़ फ़रमाए मुझे अब इक ज़माना हो चुका है

सोचता हूँ यार मुझको इश्क़ माना हो चुका है
मेरे खो जाने का पर क्या यह बहाना हो चुका है

अब तो लग जाए मुहर दरख़्वास्त पर ऐ जाने जाना
इश्क़ फ़रमाए मुझे अब इक ज़माना हो चुका है

तू भी आ जाए के मुझको कल ज़रा आ जाए आख़िर
चाँद का भी रात के पहलू में आना हो चुका है

रश्क़ करने की है बारी मेरे अह्बाबों की मुझ पर
कूचे में तेरे मेरा जो आना जाना हो चुका है

और कुछ रुक जा मज़ा लेना अगर है और भी कुछ
सोच मत यह तू के ग़ाफ़िल जी का गाना हो चुका है

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, August 06, 2018

पर हुज़ूर मुस्कुराइए!


शिक़ाइतें गिले जो जी करे वो जुल्म ढाइए
मुझे नहीं है उज़्र पर हुज़ूर मुस्कुराइए

-‘ग़ाफ़िल’

सोच सकते हैं पा नहीं सकते

शख़्स जो डगमगा नहीं सकते
अस्ल रस्ते पर आ नहीं सकते

ज़िन्दगी इक हसीन गीत है गो
लोग पर गुनगुना नहीं सकते

ऐसी कुछ शै हैं जैसे तू है जिन्हें
सोच सकते हैं पा नहीं सकते

वस्ल का उनके ख़्वाब देखें क्यूँ
जिनको हम घर बुला नहीं सकते

हक़ है क्या तोड़ने का ग़ाफ़िल अगर
हम कोई गुल खिला नहीं सकते

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, August 03, 2018

जाने क्यूँ मेरा मर्तबा जाने

हर कोई बात क्यूँ ख़ुदा जाने
क्यूँ न इंसान भी ज़रा जाने

मुझको इक बार याद कर लेता
मैं भी आ जाता यार क्या जाने

मेरी बू तो फ़ज़ाओं में है सभी
शुक्र है मुझको दिलजला जाने

ग़म तो ये है के लोग मुझसे कहीं
जाने क्यूँ मेरा मर्तबा जाने

ग़ाफ़िल आएगा क़त्ल होने को कौन
जब वो इल्मो हुनर तेरा जाने

-‘ग़ाफ़िल’