अभी भी जो ये जी की बेख़ुदी जैसी की तैसी है
अभी भी शायद अपनी आशिक़ी जैसी की तैसी है
कभी शोले भड़क उट्ठे कभी पुरनम हुईं आँखें
निगाहों की मगर आवारगी जैसी की तैसी है
लगाता हूँ मैं गोता रोज़ उल्फ़त के समन्दर में
न जाने क्यूँ मगर तश्नालबी जैसी की तैसी है
बहुत जी को सँभाला कोशिशें कीं यूँ के अब शायद
बदल जाए ज़रा पर ज़िन्दगी जैसी की तैसी है
खुबी जाती हैं निश्तर सी तेरी बातें मेरे जी में
अरे ग़ाफ़िल अभी ज़िंदादिली जैसी की तैसी है
-‘ग़ाफ़िल’
अभी भी शायद अपनी आशिक़ी जैसी की तैसी है
कभी शोले भड़क उट्ठे कभी पुरनम हुईं आँखें
निगाहों की मगर आवारगी जैसी की तैसी है
लगाता हूँ मैं गोता रोज़ उल्फ़त के समन्दर में
न जाने क्यूँ मगर तश्नालबी जैसी की तैसी है
बहुत जी को सँभाला कोशिशें कीं यूँ के अब शायद
बदल जाए ज़रा पर ज़िन्दगी जैसी की तैसी है
खुबी जाती हैं निश्तर सी तेरी बातें मेरे जी में
अरे ग़ाफ़िल अभी ज़िंदादिली जैसी की तैसी है
-‘ग़ाफ़िल’