बाबते इश्क़ इतना समझाया गया था पर हुआ
उसपे तुर्रा यह के जिसको भी हुआ जी भर हुआ
जाँसिताँ ने जिस्म से जब खेंच ली है जान फिर
सोचना क्या यह के आख़िर क्यूँ न मैं जाँबर हुआ
रोज़ अपना चाँद खिड़की पर उतर आता मगर
हाय किस्मत! कू-ए-जाना में न अपना घर हुआ
कुछ गुलाब अपने चमन में मैंने रोपा था मगर
आस्तीं का साँप कोई कोई तो निश्तर हुआ
आग लग जाए है ग़ाफ़िल होए है जिस ठौर इश्क़
शुक्रिया कहिये के अपने शह्र के बाहर हुआ
-‘ग़ाफ़िल’
उसपे तुर्रा यह के जिसको भी हुआ जी भर हुआ
जाँसिताँ ने जिस्म से जब खेंच ली है जान फिर
सोचना क्या यह के आख़िर क्यूँ न मैं जाँबर हुआ
रोज़ अपना चाँद खिड़की पर उतर आता मगर
हाय किस्मत! कू-ए-जाना में न अपना घर हुआ
कुछ गुलाब अपने चमन में मैंने रोपा था मगर
आस्तीं का साँप कोई कोई तो निश्तर हुआ
आग लग जाए है ग़ाफ़िल होए है जिस ठौर इश्क़
शुक्रिया कहिये के अपने शह्र के बाहर हुआ
-‘ग़ाफ़िल’