Tuesday, July 30, 2019

तेरा अंदाज़े बयाँ औरों से कुछ और ही हो

तेरे ही पीछे ज़माना न चले तो कहना
हाँ मगर जाए जहाँ औरों से कुछ और ही हो

बात जो भी हो सुनी जाएगी लेकिन ग़ाफ़िल
तेरा अंदाज़े बयाँ औरों से कुछ और ही हो

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, July 29, 2019

कोई शख़्स अफ़साना मेरा न जाने

मेरे ही लिए क्यूँ के रस्ता न जाने
मैं हूँ वह के जो आबलो पा न जाने

तेरे सिम्त होता है अल्लाह क्या क्या
यहाँ पे तो होता है क्या क्या न जाने

नज़र की तेरी हो इनायत है ख़्वाहिश
तू मुझ पर से लेकिन हटाना न जाने

हिजाब इसलिए मेरे मुँह पर नहीं है
के तू ज़िश्तरू चाँद जैसा न जाने

नहीं गीत गाता हूँ मैं ताके ग़ाफ़िल
कोई शख़्स अफ़साना मेरा न जाने

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, July 23, 2019

🌙

इसके भी हाथ में उसकी भी छत पर चलता फिरता रहता चाँद
इश्क़ ने कितना चाँद रचा है सबका अपना अपना चाँद

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, July 20, 2019

बोली लगा रहे हो सभी बेज़ुबान की

आदाब दोस्तो! कल दिनांक 19-07-2019 को शाइर व कवि परम् आदरेय स्वर्गीय गोपालदास ‘नीरज’ जी की प्रथम् पुण्यतिथि के अवसर पर उनकी मशहूर ग़ज़ल, ‘‘ख़ुश्बू सी आ रही है इधर ज़ाफ़रान की, खिड़की कोई खुली है फिर उनके मक़ान की’’, की ज़मीन पर अपने हुए चंद अश्आर बतौर श्रद्धांजलि शाइर शिरमौर को समर्पित-

जो कर न पाए आज तक अपने मक़ान की
कैसे हो फ़िक़्र ऐसों को दुनिया जहान की

जिसके ज़ुबाँ हो उसकी लगाओ तो अस करूँ
बोली लगा रहे हो सभी बेज़ुबान की

कुछ भी न कह सकूँगा कभी उनके बरखि़लाफ़
उल्फ़त में जाग जाग के जिसने बिहान की

इसका नहीं भरम है के दुश्मन हुआ जहाँ
मुझको पड़ी है अपनी मुहब्बत के शान की

सूरज नहीं जो चाँद तो होगा ही ज़ेरे पा
ग़ाफ़िल अगर उड़ान रही आसमान की

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, July 19, 2019

तेरी उल्फ़त में क्या न कर गुज़रे

गर मुहब्बत भरा सफ़र गुज़रे
या ख़ुदा फिर तो उम्र भर गुज़रे

हो किसी ख़ुल्द की किसे ख़्वाहिश
तेरी सुह्बत में वक़्त अगर गुज़रे

एक तूफ़ान हमसे टकराया
हाँ उसी ठौर हम जिधर गुज़रे

जी गँवाया था जाँ गँवाई अब
तेरी उल्फ़त में क्या न कर गुज़रे

फूल की हो के राह काँटों की
ग़ाफ़िल आशिक़ हर एक पर गुज़रे

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, July 13, 2019

हाँ हूँ मैं शाद मुझे क्या ग़म है
आँख नम है तो मगर कम कम है
ढलकी रुख़सार पे फिर अश्क की बूँद
उट्ठा फिर ग़ुल के यही शबनम है

-‘ग़ाफ़िल’
(चित्र गूगल से साभार)

Wednesday, July 10, 2019

मेरी आँखों में लहराता समंदर देख सकता था

निग़ाहे लुत्फ़ गर होता न क्यूँकर देख सकता था
तू दामन में छुपा चुपके से नश्तर देख सकता था

तेरी मंज़िल निग़ाहों में तेरी होती अगर उसदम
यक़ीनन तू पड़े रस्तों के पत्थर देख सकता था

मेरा दीदार ही करना तुझे था तो, मेरी जानिब
नहीं थी रोशनी गर, दिल जलाकर देख सकता था

नहीं समझा ज़ुरूरी यार वरना बारिशों में भी
तू बेहतर मेरे जलते जी का मंजर देख सकता था

ज़ुबान अपनी रही पर्दे में अक़्सर क्यूँकि बेमतलब
कोई भी हुस्न उसका अदबदाकर देख सकता

जो होता लुत्फ़ तुझको तो ज़रा कोशिश पे ही ग़ाफ़िल
मेरी आँखों में लहराता समंदर देख सकता था

-‘ग़ाफ़िल’
(चित्र गूगल से साभार)

Tuesday, July 09, 2019

आपका मुस्कुराना मगर हो

हिज्र ही क्यूँ नहीं हमसफ़र हो
आपसे इश्क़ अल्लाह पर हो

और कुछ भी न हो तो चलेगा
आपका मुस्कुराना मगर हो

एक क़त्अ-

इक झलक देखना देखना क्या
देखना गर नहीं आँख भर हो
जी करे है मेरे जी के मालिक
आपके सिम्त अब रहगुज़र हो

खुल्द हो या के दोज़ख हो मंज़िल
आपका नाम ही राहबर हो

मेरे जैसे हज़ारों हैं ग़ाफ़िल
आपकी हर किसी पर नज़र हो

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, July 02, 2019

चाँद का देखना तो बहाना हुआ

हिज्र की धूप सर पे है जब जब चढ़ी
दर्द बढ़कर मेरा शामियाना हुआ
तेरा चेहरा ही देखा किए रात भर
चाँद का देखना तो बहाना हुआ

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, July 01, 2019

आपकी सुह्बत में रहकर हो गए

ख़्वाहिश ऐसी थी नहीं पर हो गए
शम्अ क्या देखी हम अख़्गर हो गए

है तसल्ली सब न तो कुछ ही सही
देवता राहों के पत्थर हो गए

चाहत अपनी थी के समझे जाएँ पर
शे’र ग़ालिब के हम अक़्सर हो गए

काम आईं हैं मुसल्सल कोशिशें
यूँ नहीं दर्या समन्दर हो गए

गो फ़क़त ग़ाफ़िल थे हम शाइर जनाब
आपकी सुह्बत में रहकर हो गए

(अख़्गर=पतिंगा)

-‘ग़ाफ़िल’