Saturday, March 26, 2016

मैंने क़दम ज़रा भी बहकने नहीं दिया

इल्ज़ाम हुस्ने यार पे लगने नहीं दिया
दिल चाक हो गया पै तड़पने नहीं दिया

ठोकर लगी हज़ार मगर देखिए ज़ुनूँ
मैंने क़दम ज़रा भी बहकने नहीं दिया

सरका अगर तो सरका है मेरा वज़ूद ही
दामन हया का मैंने सरकने नहीं दिया

जलने को था मैं आतिशे हिज़्राँ में बेतरह
उम्मीदे वस्ले यार ने जलने नहीं दिया

वो इस तरह से जमके तग़ाफ़ुल रहा था कर
तीरे नज़र भी जी में उतरने नहीं दिया

ग़ाफ़िल को फ़िक़्र थी न कहीं आप डूब जायँ
और आपने उसे ही सँभलने नहीं दिया

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, March 21, 2016

मार खानी है बहुत

इसलिए भी दिलसितां की याद आनी है बहुत
जूतियों की मेरे चेहरे पर निशानी है बहुत

और थोड़ी पीऊँगा है गोया कोटा फुल हुआ
वैसे भी घर जाके मुझको मार खानी है बहुत

आप जो हैं प्लेन से तो फिर जहन्नुम दूर क्या
मेरा क्या! है साइकिल वह भी पुरानी है बहुत

आजकल महफ़िल में चाँदी काटते हम रंगबाज़
ताल पे दे ताल शीला पर जवानी है बहुत

पढ़ गया पूरा, मगर ग़ाफ़िल जी कर देना मुआफ़
आपके दीवान में भी लंतरानी है बहुत

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, March 20, 2016

मुझे भी जानना है किस सिफ़त का अम्न होता है

ग़ज़ब यह है के अब दिल चौक पर नीलाम होता है
पड़े है फ़र्क़ क्या इससे के तेरा है के मेरा है

अरे बीमार हूँ क्या जो मुझे ऐसा लगे हरदम
के इस रंगीन दुनिया में मिला हर शख़्स अपना है

न जानूं है ये क्या जो हूँ उसी की तर्फ़दारी में
मुझे जिस शख़्स ने हरहाल में हर वक़्त लूटा है

ग़ज़लगोई है फ़ित्रत में लिहाज़ा हुस्नवालों का
मेरे ज़ेह्नो जिगर से क़ुद्रतन भी एक रिश्ता है

कभी जब मुस्कुराना तो मुझे भी इत्तिला करना
मुझे भी जानना है किस सिफ़त का अम्न होता है

है जज़्बा-ए-मुहब्बत जो बला की तंगहाली में
भी ग़ाफ़िल चाँद सूरज तोड़ लाने को मचलता है

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, March 18, 2016

ख़ुदा ख़ैर करना मेरे दुश्मनों की

मिली आज सौग़ात जो नफ़्रतों की
भला क्या ज़ुरूरत हो और आँधियों की

समन्दर किनारा तो दे ही दे लेकिन
पता उसको फ़ित्रत जो है बुज़्दिलों की

कोई मुस्कुराया मुझे देख कर फिर
ख़ुदा ख़ैर करना मेरे दुश्मनों की

वो रूठें हैं सुब और शब भर न माने
नज़ाक़त का मारा हूँ मैं कमसिनों की

कहूँगा नहीं यह के उसके ही निस्बत
मुझे याद आए है अमराइयों की

ये पक्का है ग़ाफ़िल मुहब्बत में है तू
न परवा है जो ख़ार के रास्तों की

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, March 13, 2016

छोड़ दे

आदाब!

क्यूँ कहे जाते हो ग़ाफ़िल प्यार का
गीत गाना गुनगुनाना छोड़ दे
गो फ़साना दिल के लुटने का है पर
बात यह क्या के सुनाना छोड़ दे

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, March 07, 2016

हम तो यूँ ही सनम मुस्कुराने लगे

लो सुनो होश क्यूँ हम गंवाने लगे
अब रक़ीब आपको याद आने लगे

इश्क़बाज़ी भी है इक इबादत ही तो
आप क्यूँ इश्क़ से मुँह चुराने लगे

उनके आने का हासिल है इतना फ़क़त
हिज़्र को सोच हम जी जलाने लगे

ये न समझो के है ये कोई दांव इक
हम तो यूँ ही सनम मुस्कुराने लगे

कू-ए-जाना में कुछ ख़ास तो है के जो
पा ज़हीनों के भी डगमगाने लगे

अब डराये हैं ख़ामोशियाँ आपकी
आप ग़ाफ़िल को यूँ आज़माने लगे

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, March 01, 2016

के हैं गुंचे खिले तितलियों के लिए

हम हुए जा रहे मुश्किलों के लिए
ख़ार के रास्तों, आबलों के लिए

खंज़रे चश्म से क़त्ल कर दे कोई
है ये पैग़ाम हर क़ातिलों के लिए

मेरे दिल का खज़ाना लुटा तो लुटा
ग़म यही है, लुटा बुज़्दिलों के लिए

राह पर कुछ ग़ज़ाले हैं तफ़रीह को
ख़ुश ख़बर है ये क्या भेड़ियों के लिए

हो न पाया मगर प्यार लिखता रहा
दाद तो दीजिए कोशिशों के लिए

सौहरे शब की मानिन्द रौशन है तू
फिर मचलता है क्यूँ जुगनुओं के लिए

यार ग़ाफ़िल बहार आ गयी तो भी यूँ
जूँ हों गुंचे खिले तितलियों के लिए

-‘ग़ाफ़िल’