Monday, May 25, 2015

तुझको मुबारक हो

मुझे अच्छा लगे है मेरा ग़ैरतमंद बीराना
तेरा पत्थर का बेग़ैरत शहर तुझको मुबारक हो
मेरी तारीक रातें भी मुझे लोरी सुनाती हैं
कड़कती चिलचिलाती दोपहर तुझको मुबारक हो

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, May 24, 2015

कुछ अलाहदा शे’र : कभी मंज़िल कोई चलकर किसी के दर नहीं आती

1.
रहे पुरख़ार पर दौड़ा के मेरे आबलों के पा,
करम करते रहो और आबले मिटते रहें मेरे।
2.
मिटे हैं फ़ासिले तब क़ाइदन कोशिश हुई है जब,
कभी मंज़िल कोई चलकर किसी के दर नहीं आती।
3.
हाय अब तक न लगा मुझ पे भला क्‍यूँ इल्‍ज़ाम,
आपका भी जी सफ़ाई से चुरा लेने का।
4.
दे रहा मंज़िल का धोखा राह का हर इक पड़ाव,
ज़िन्दगी चलते ही रहने का बहाना है फ़क़त।
5.
ऐ तारों इस तरह सिरहाने उसके ग़ुल मचाते हो,
हमारे चाँद की जो नींद टूटी तो बुरा होगा।
6-
मुझे भाने लगीं तन्हाइयाँ अब, कोई बतलाए
के है आग़ाजे़ उल्‍फ़त या के है अंज़ामे उल्‍फ़त यह
7-
आँखों से खेंच-खेंच पिलाती रही शराब,
कह-कहके यह के इसकी ख़ुमारी न जाएगी।