देखने वाले कभी गौर से, गर देखेंगे
इश्क़ के सामने ख़म हुस्न का सर देखेंगे
हैं अभी दूर हमें पास तो आने दे ज़रा
तेरे आरिज़ पे भी अश्क़ों के गुहर देखेंगे
इस तेरी हिक़्मते-फ़ुर्क़त का गिला क्या करना
इश्क़ हमने है किया हम ही ज़रर देखेंगे
लोग देखे हैं, फ़क़त हम ही रहे हैं महरूम
आज तो हम भी मुहब्बत का असर देखेंगे
गो के हैं और भी ग़म याँ पे मुहब्बत के सिवा
पर अभी आए हैं तो हम भी ये दर देखेंगे
तू जो ग़ाफ़िल है मुहब्बत से हमारी यूँ सनम
है अभी रात मगर हम भी सहर देखेंगे
(आरिज़=गाल, हिक्मते फ़ुर्क़त=ज़ुदा होने की तर्क़ीब, ज़रर=नुक़्सान)
-‘ग़ाफ़िल’