Monday, March 27, 2017

मगर लोगों के हाथों के कहाँ पत्थर बदलते हैं

कभी रस्ता बदलता है कभी रहबर बदलते हैं
पता क्या था यहाँ हर एक पल मंज़र बदलते हैं

बदल जाएँ भी गर हालाते ख़स्तः कुछ ज़माने के
नहीं बुज़दिल ये मानेंगे के हिम्मतवर बदलते हैं

छुपाते फिर रहे मुँह सोचकर गिरगिट यही शायद
के आदमजात उनसे रंग अब बेहतर बदलते हैं

बहुत मुश्किल बदल देना है गो आदत ख़राब अपनी
लगाकर जोर सारा आइए हम पर बदलते हैं

बदल जाते हैं मंजनू के यहाँ सर रोज़ ही कितने
मगर लोगों के हाथों के कहाँ पत्थर बदलते हैं

भला क्या हो सकेगा हुस्नवालों की इस आदत का
के वादे कर तो लेते हैं मगर अक़्सर बदलते हैं

रहे ख़ुशहाल उनकी ज़िन्दगी यह हो नहीं सकता
सरायों की तरह ग़ाफ़िल जो अपना घर बदलते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, March 25, 2017

लेकिन कोई तो है

तफ़रीह को था आया मगर जाँ पे आ गया
कैसा हसीन ख़्वाब निगाहों को भा गया

बदनाम कर सकूँगा न मैं लेकर उसका नाम
लेकिन कोई तो है जो मेरे जी पे छा गया

कहते बना तो कहके रहूँगा मैं एक दिन
जो भी सितमज़रीफ़ सितम मुझपे ढा गया

मेरा गया है चैनो सुक़ूँ याँ तलक़ के जी
उल्फ़त की रह में उसका बताए के क्या गया

उस चारागर का ज़िक़्र भी करना न जो मुझे
बस इक निग़ाह डालके पागल बना गया

रोका था कौन जाने को दिल के दयार से
ग़ाफ़िल जो जान से ही गया ख़ामख़ा गया

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, March 23, 2017

ज़माने में ऐसा तो होता नहीं है

उसे कैसे समझूँ के बहका नहीं है
जो ख़ुद को है कहता के क्या क्या नहीं है

अरे यार पालिश पे पालिश पे पालिश
लगे है के आशिक़ तू सच्चा नहीं है

नहीं आने की क़स्‍म का हो असर क्यूँ
तेरा वैसे भी आना जाना नहीं है

किया इश्क़ कैसा जो दावा है करता
के दिल अब तलक तेरा टूटा नहीं है

है गरजा तू बरसेगा भी मान लूुँ पर
ज़माने में ऐसा तो होता नहीं है

तू हो चाँद जिसका भी मेरी बला से
मेरे तो ज़बीं का सितारा नहीं है

ज़ुदा और से इसलिए तू है ग़ाफ़िल
के कू-ए-मुहब्बत में रुस्वा नहीं है

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, March 22, 2017

यह न पूछो के और पीना है?

इस नशेमन का यह सलीका है
कोई आता है कोई जाता है

आदमी छोड़ दे बस अपना ग़ुरूर
देख लेना के फिर वो क्या क्या है

क्या समझ कर हो लादे फिरते जनाब!
यह तो अरमानों का जनाज़ा है

ऐंठे रहते हो आपका भी मिज़ाज
मान लूँ क्या के हुस्न जैसा है

टूटने से बचोगे झुककर ही
आँधियों में शजर से सीखा है

बस पिलाते ही जाओ आँखों से जाम
यह न पूछो के और पीना है?

है जो ग़ाफ़िल दिलों का साथ हुज़ूम
इनको लूटा है या के पाया है

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, March 18, 2017

रब का नहीं तो तेरा ही चेहरा दिखाई दे

बन ठन के तू न यार तमाशा दिखाई दे
मैं चाहता हूँ जैसा है वैसा दिखाई दे

चाहेगा जिस तरह भी दिखाई पड़ूँगा मैं
पर तू कभी कभार ही अच्छा दिखाई दे

मिल पाएगा न ऐसे तो इंसाफ़ मेरे दिल
या जो सितम हुआ है ज़रा सा दिखाई दे

मझधार में ही नाव मेरी कब से है ख़ुदा
अब चाहिए मुझे भी किनारा दिखाई दे

लगता नहीं है फ़र्क़ ज़रा भी मुझे सनम
रब का नहीं तो तेरा ही चेहरा दिखाई दे

अच्छा लगेगा मुझको भी तुझको भी शर्तिया
मेरे वज़ूद का तू जो हिस्सा दिखाई दे

पत्थर उछालना के चला देना तेग़ ही
ग़ाफ़िल जो तेरे कू से गुज़रता दिखाई दे

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, March 16, 2017

यहाँ दिल का भी सौदा हो रहा है

नहीं पूछूँगा ये क्या हो रहा है
यहाँ जो भी तमाशा हो रहा है

मुझे उस होने से है इत्तेफ़ाक़
तेरे जी में जो जैसा हो रहा है

पता कैसे चलेगा यह के मेरा
नहीं तू हो रहा या हो रहा है

रहा जो ग़म का बाइस आज वो ही
सुक़ूने जी का ज़रिया हो रहा है

तेरे इस शह्र में गुर्दा जिगर क्या
यहाँ दिल का भी सौदा हो रहा है

गो है ग़ाफ़िल शराबे चश्म मुझसे
मगर फिर भी नशा सा हो रहा है

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, March 08, 2017

चलो ग़ाफ़िल हम अब अपनी दुआओं का असर ढूँढें

समझ में कुछ न आता है कहाँ जाएँ किधर ढूँढें
इधर ढूँढें, उधर ढूँढें के ख़ुद को दर-ब-दर ढूँढें

मिले जी को सुक़ूँ जिससे, फ़रेबों से तिही हो जो
नए अख़बार में आओ कोई ऐसी ख़बर ढूँढें

हुआ ग़ायब है जिनका जी उन्हें मिल जाएगा पक्का
वो अपना जी नहीं ऐ बेवफ़ा तुझको अगर ढूँढें

किसी वीरान सी शब में कभी दिल के दरीचे से
हमें देखी थी जो वह क्यूँ न उल्फ़त की नज़र ढूँढें

किसी भी चीज़ की गोया नहीं ख़्वाहिश रही अपनी
न जाने क्यूँ है कहता जी के हम तुझको मगर ढूँढें

चला होगा यक़ीनन, राह में गुम हो गया होगा
चलो ग़ाफ़िल हम अब अपनी दुआओं का असर ढूँढें

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, March 05, 2017

पानी

यह पता था के करेगा ही तमाशा पानी
चश्म से यूँ जो लगातार है बहता पानी

यह भी सच है के रहे बहता अगर तो अच्छा
ज़ह्र हो जाए है इक ठौर ही ठहरा पानी

मेरे जलते हुए जी को क्या तसल्ली देगा
कोई आवारा सी ज़ुल्फ़ों से टपकता पानी

देगा तरज़ीह भी अब कौन भला फिर उसको
शख़्स वह जिसकी भी आँखों का है उतरा पानी

हिज़्र के दिन हों के हो रात मिलन की ग़ाफ़िल
कोई भी हाल हो है चश्म भिगोता पानी

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, March 03, 2017

हम बोलेन तौ मुँह लटकाए बइठे हो

पता है का का पीये खाये बइठे हो
यही बदे का यार लजाए बइठे हो

कहै पियक्कड़ दुनिया तौ फिर ठीक अहै
हम बोलेन तौ मुँह लटकाए बइठे हो

इश्क़ जौ करबो तौ कुछ होइहैं रक़ीब भी
आपन दुसमन आप बनाए बइठे हो

दिल दरिया से किहे किनारा हौ तुम और
आँख से मै कै आस लगाए बइठे हो

अच्छा ख़ासा रहेव बियाहे के पहिले
अब जइसै थप्पड़ जड़वाए बइठे हो

होस मा होतेव प्यार केर बातें होतीं
हमैं देखि कै होस गँवाए बइठे हो

ग़ाफ़िल जी मुस्कानौ तुम्हरी है जइसै
चेहरे पै चेहरा चिपकाए बइठे हो

-‘ग़ाफ़िल’