Sunday, May 29, 2011

दूर क्यूँ मुझको लगा शख़्स वो मंज़िल की तरह

चाहा मैंने जो किसी को भी कभी दिल की तरह
दूर क्यूँ मुझको लगा शख़्स वो मंजिल की तरह

ज़िंदाँ-ए-ज़ुल्फ़ में हूँ क़ैद ज़माने से अब
कोई आ जाये मेरे वास्ते काफ़िल की तरह

उसकी है तीरे नज़र रू-ब-रू दिल है मेरा
पेश आये तो कभी हाय वो क़ातिल की तरह

उम्र का लम्बा सफ़र तय किया तन्हा मैंने
अब चले साथ कोई चाहे मुक़ाबिल की तरह

आज आवारगी-ए-दिल का मेरे सोहरा है
तेरे कूचे में जो भटके है वो ग़ाफ़िल की तरह

(ज़िंदाँ-ए-ज़ुल्फ़=ज़ुल्फ़ों का क़ैदखाना, काफ़िल=ज़ामिन)
                                                                    -ग़ाफ़िल