Thursday, December 27, 2012

कोढ़ियों के मिस्ल होगा यह समाज

ईलाज-

राख करने के सबब ज़ुल्मो-सितम
लाज़िमी है कुछ हवा की जाय और
उस लपट की ज़द में तो आएगा ही
शाह या कोई सिपाही या के चोर

एक जब फुंसी हुई ग़ाफ़िल थे हम
रोने-धोने से नहीं अब फ़ाइदा
अब दवा ऐसी हो के पक जाय ज़ल्द
बस यही तो क़ुद्रती है क़ाइदा

वर्ना जब नासूर वो हो जाएगी
तब नहीं हो पायेगा कोई इलाज
बदबू फैलेगी हमेशा हर तरफ़
कोढ़ियों के मिस्ल होगा यह समाज

-‘ग़ाफ़िल’


Tuesday, December 25, 2012

कवि तुम बाज़ी मार ले गये!

कवि तुम बाज़ी मार ले गये!
कविता का संसार ले गये!!

कविता से अब छन्द है ग़ायब,
लय है ग़ायब, बन्द है ग़ायब,
प्रगतिवाद के नाम पे प्यारे!
कविता का श्रृंगार ले गये!
कवि तुम...!

भाव, भंगिमा, भाषा ग़ायब,
रस-विलास-अभिलाषा ग़ायब,
शब्द-भंवर में पाठक उलझा
ख़ुद का बेड़ा पार ले गये!
कवि तुम...!

एक गद्य का तार-तार कर,
उसपर एंटर मार-मारकर,
सकारात्मक कविता कहकर
'वाह वाह' सरकार ले गये!
कवि तुम...!

पद की गरिमा को भुनवाकर,
झउआ भर पुस्तक छपवाकर,
पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनकर
‘ग़ाफ़िल’ का व्यापार ले गये!

कवि तुम बाज़ी मार ले गये!
कविता का संसार ले गये!!

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Thursday, December 20, 2012

मैं ग़ाफ़िल यूँ भी ख़ुश हूँ

(पृष्ठभूमि-चित्र गूगल से साभार)

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Wednesday, December 12, 2012

सोचना रोटी है आसाँ

सोचना रोटी है आसाँ पर बनाना है जटिल
ख़ूबसूरत राग है पर यह तराना है जटिल

क्या यही लगता है रोटी आज दे दोगे उसे
इस क़दर बेकस व बेबस फिर न देखोगे उसे

उसके हक़ में है कि यह त्रासद अवस्था झेल ले
हौसला दो राह के पत्थर को ख़ुद ही ठेल ले

यार ग़ाफ़िल! एक मौका भर उसे अब चाहिए
रोटियाँ ख़ुद गढ़ सके ऐसा उसे ढब चाहिए

-‘ग़ाफ़िल’

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Monday, December 03, 2012

हर बात निभा लेते हैं

अब तो हर बात निभा लेते हैं
आइए! साथ निभा लेते हैं
कुछ तो थे जिनको नहीं सुनते थे, अब
सारे नग्मात निभा लेते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

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Friday, November 23, 2012

शहर को जलते देखा

हुस्न को आज सरे राह मचलते देखा
एक शोला सा उठा शह्र को जलते देखा

-‘ग़ाफ़िल’

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Friday, November 02, 2012

वह बंजारे की रात कहाँ?

अबके इस आवारापन में उस आवारे की बात कहाँ
जो गाते-गाते गुज़री है उस बंजारे की रात कहाँ

चलते में सोयी सोयी सी, वह ख़्वाब में खोयी खोयी सी,
हँसते भी रोयी रोयी सी उस बेचारे की जात कहाँ

वह अल्हड़ शोख़ जवानी सी, बहती नदिया मस्तानी सी,
बिल्कुल जानी-पहचानी सी इकतारे की सौगात कहाँ

-‘ग़ाफ़िल’


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Friday, October 12, 2012

रात का सूनापन अपना था

रात का सूनापन अपना था।
फिर जो आया वह सपना था॥

नियति स्वर्ण की थी ऐसी के
उसको भट्ठी में तपना था।

दौरे-तरक्क़ी इंसाँ काँपे
जबकी हैवाँ को कँपना था।

गरदन तो बेजा नप बैठी
दुष्ट दस्त को ही नपना था।

ग़ाफ़िल त्राहिमाम चिल्लाया
गोया राम-नाम जपना था।

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Sunday, September 30, 2012

आईने पर कुछ तरस तो खाइए!

आइए तो इत्तिलाकर आइए!
जाइए तो बिन बताए जाइए!

दिल मेरा है साफ़ मिस्ले-आईना,
अपने चेहरे को तो धोकर आइए!

पाइए! जी पाइए! बेहद सुकूँ,
चश्म ख़म करके ज़रा मुस्काइए!

रूख़ को झटके से नहीं यूँ मोड़िए!
आईने पर कुछ तरस तो खाइए!

हुस्न है बा-लुत्फ़ जो पर्दे में हो,
आईने से भी कभी शर्माइए!

छोड़िए! 'ग़ाफ़िल' को उसके नाम पर,
आप तो ग़ाफ़िल नहीं हो जाइए!

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Saturday, September 01, 2012

हसीनो के नख़रे उठाया करो!

कभी ख़ुद की जानिब भी आया करो!
आईना देखकर मुस्कुराया करो!!

ग़फ़लतों का पुलिंदा उठाये न उट्ठे,
उसे रफ़्ता रफ़्ता घटाया करो!

जमाने की रंगत का है लुत्फ़ लेना
तो ख़ुद की भी रंगत मिलाया करो!

वो फिर मुस्कुराई तुझे देख करके
गरेबाँ तो रफ्फ़ू कराया करो!

छुपाकर है रक्खा मेरे दिल को तुमने
मैं तड़फा बहुत हूँ नुमाया करो!

मज़े ख़ूब होते हैं नखरों में ग़ाफ़िल!
हसीनो के नख़रे उठाया करो!!

Thursday, June 14, 2012

छुपा ख़ंजर नही देखा

बहुत दिन बाद आप क़द्रदानों की ख़िदमत में पेश कर रहा हूँ छोटी सी एक ताज़ा ग़ज़ल मुलाहिजा फ़रमाएं!

जो हर सर को झुका दे ख़ुद पे ऐसा दर नहीं देखा।
जो झुकने से रहा हो यूँ भी तो इक सर नहीं देखा।।

मज़ा मयख़ाने में उस रिन्द को आए तो क्यूँ आए,
जो साक़ी की नज़र में झूमता साग़र नहीं देखा।

लुटेरा क्यूँ कहें उनको चलो यूँ जी को बहला लें
वो मुफ़लिस हैं कभी आँखों से मालोज़र नहीं देखा।

क़यामत है के रुख़ भी और निगाहे-लुत्फ़ेे जाना भी,
मेरी जानिब ही हैंं गोया जिन्हें अक्सर नहीं देखा।

ज़रा सी चूक हाए बेसबब मारा गया ग़ाफ़िल
तेरी मासूम आँखों में छुपा ख़ंजर नही देखा।।

-‘ग़ाफ़िल’

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Wednesday, May 02, 2012

कुछ कुण्डलियाँ-

1-
नारी संग से क्यों डरे, नारी सुख कर धाम।
नारी बिन रघुपतिहुँ कर, होत अधूरा नाम।।
होत अधूरा नाम, कहन मां नाहिं सुहायी,
नारी नर-मन-कलुस पलक मह दूर भगाई,
खिला पुष्प बिन ना सुहाइ जइसै फुलवारी,
ग़ाफ़िल मन बगिया वइसै लागै बिन नारी।।
2-
घर का मुखिया करमठी, रचता नये पिलान।
विकसित हो यह घर सदा बढ़ै मान-सम्मान।।
बढ़ै मान-सम्मान, सबहि मिलि काम करैंगे।
हंसी-खुशी से सबकी झोली रोज़ भरैंगे।
कछुक स्वारथी डारे हैं मन बीच तफ़रका।
ग़फ़िलौ सोचै का होई अब गति यहि घर का।।
3-
बातहिं बात बनाइये, बात बने बनिजात।
देखा बातहिं बात मह, भिश्ती नृपति कहात।।
भिश्ती नृपति कहात, होत दिल्ली कर राजा।
सिक्का चाम चलाइ, बजावत आपन बाजा।
ग़ाफ़िल कहै बिचारि, बैठिहौं पीपल पातहिं।
बात बिगरि जौ जाय, तिहारो बातहिं बातहिं।।
                                                                        -ग़ाफ़िल

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Monday, April 16, 2012

क्षणिकाएँ-

1-
बस ज़रा सा
चश्म ख़म
ता'उम्र क़ैद।
2-
हुस्न था
बेपर्दगी थी
चुक गया।
3-
रास्ता
पुरख़ार था
डग सध गये।
4-
आशिक़ पे थूका!
शुक़्र है
इंसाँ पे नहीं।
5-
उफ़्‌! ये
रूहानी आहें?
उश्शाक़-वार्ड है।

(उश्शाक़=आशिक़ का बहुबचन, ढेर सारे आशिक़)
                                                                         -ग़ाफ़िल

Thursday, April 12, 2012

है अभी रात मगर हम भी सहर देखेंगे

देखने वाले कभी गौर से, गर देखेंगे
इश्क़ के सामने ख़म हुस्न का सर देखेंगे

हैं अभी दूर हमें पास तो आने दे ज़रा
तेरे आरिज़ पे भी अश्क़ों के गुहर देखेंगे

इस तेरी हिक़्मते-फ़ुर्क़त का गिला क्या करना
इश्क़ हमने है किया हम ही ज़रर देखेंगे

लोग देखे हैं, फ़क़त हम ही रहे हैं महरूम
आज तो हम भी मुहब्बत का असर देखेंगे

गो के हैं और भी ग़म याँ पे मुहब्बत के सिवा
पर अभी आए हैं तो हम भी ये दर देखेंगे

तू जो ग़ाफ़िल है मुहब्‍बत से हमारी यूँ सनम
है अभी रात मगर हम भी सहर देखेंगे

(आरिज़=गाल, हिक्मते फ़ुर्क़त=ज़ुदा होने की तर्क़ीब, ज़रर=नुक्‍़सान)

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, April 05, 2012

घर का न घाट का

आजकल पता नहीं क्यों लिखने से
मन कतराता है...घबराता है
फिर उलझ-उलझ कर रह जाता है
समझ नहीं आता कि
क्या लिखूँ!
कहां से शुरू करूँ और कहां ख़त्म
विचारों का झंझावात जोशोख़रोश से
उड़ा ले जा रहा है
और मैं उड़ता जा रहा हूँ
अनन्त में दिग्भ्रमित सा
न कहीं ओर, न कहीं छोर
पता नहीं है भी कोई
जो पकड़े हो इस पतंग की डोर
यह भी नहीं पता कि मैं कट गया हूँ
या उड़ाया जा रहा हूँ किसी को काटने के लिए
ख़ैर!
जो भी हो
ऊँचाइयां तो छू ही रहा हूँ
और ऊँचे गया तो लुप्त हो जाऊँगा
अनन्त की गहराइयों में
अवन्यभिमुखता पहुँचा तो देगी
अपनी धरती पर जहां हमारी जड़ है
हाँ अगर किसी खजूर पर अटका तो!
वह स्थिति भयावह होगी
फट-फट के टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा
यह दिल वाला पतंग
काल के हाथों नुचता-खुचता खो जाएगा।
घर का न घाट का
ग़ाफ़िल है बाट का
पर यही तो चालोचलन है
आवारापन का उत्कृष्टतम प्रतिफलन है
चलो यही सही
यारों का आदेश सर-आँखों पर
तो
बताओ जी! यह कैसी रही?
बेशिर-पैर, बिना तुक-ताल की कविता
कुछ आपके समझ में आयी!
या आपने अपना अनमोल वक्त और
अक्ल दोनों गंवाई!
मुआफ़ी!
आपका दिमाग़ी ज़रर हो
ऐसा मेरा इरादा भी न था
और याद रहे!
एक ख़ूबसूरत कविता सुनाने का
मेरा वादा भी न था।