Monday, April 30, 2018

ख़ुद ख़ुद को रास्ते का तमाशा बना लिया

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ग़ाफ़िल है तेरे इश्क़ का ऐसा नशा के मैं
ख़ुद ख़ुद को रास्ते का तमाशा बना लिया
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एक आत्मीय से आज ही हुई सहज वार्ता का प्रतिफलन कविता के साँचे में-

न राधा न मीरा
इनसे तो है मेरी वह ग़ज़ल वाली ही सही...
वही,
जिस पर मेरे तमाम अश्आर हैं निछावर,
जो है मेरी चाहतों का महावर

...अरे नहीं वह मेरी ग़ज़लों की मलिका है
वह बड़ी ख़ूबसूरत है
मुझे उसकी उसे मेरी ज़ुरूरत है
वह मेरे तसव्वुर की अल्पना है
वह मेरी कल्पना है

जिस रूप में, जिस रंग में, जहाँ सोचता हूँ मैं उसे
ठीक वैसे ही
वहीं सामने में आ खड़ी होती है वह मेरे
बिना परवाह किए किसी नदी, जंगल, पहाड़ व सहरा की

हम दोनों एक दूसरे को गलबहियाँ डाले पर्वतों की पगडंडियों पर चलते हुए अनायास न जाने कबतक बादलों के बगुलों को गिनते रहते हैं फिर थककर किसी देवदार नीचे बैठ स्वयं को विलीन कर देते हैं एक दूजे में
तब
न वह होती है न मैं होता हूँ... बस होते हैं मेरे अश्आर

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, April 22, 2018

देखना चाहेगा अंदाज़े वफ़ा और अभी

कम भी था क्या के तमाशा जो हुआ और अभी
बात कुछ और है लहजा है तेरा और अभी

और अभी मेरे तसव्वुर में तुझे रहना है
होना रुस्वा है तेरा अह्दे वफ़ा और अभी

इश्रतें हुस्न की तेरी हों मुबारक तुझको
अपनी तक़्दीर में है शिक्वा गिला और अभी

इश्क़ बेबाकियों का होता है मोहताज कहाँ
क्यूँ कहा फिर के तू आ खुलके ज़रा और अभी

इल्म तो होगा ही पर फिर भी बता क्या ख़ुद का
देखना चाहेगा अंदाज़े जफ़ा और अभी

तेग़ उठाया ही था वह पूछा मज़ा आया क्या
क़त्ल कर कहता है आएगा मज़ा और अभी

ऐसे अश्आर जो पचते ही नहीं हैं ग़ाफ़िल
लाख इंकार पे क्यूँ तूने कहा और अभी

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, April 21, 2018

गो हम आस पास होंगे

कभी मझको भूल जाना गो हम आस पास होंगे
कभी तुम न याद आना गो हम आस पास होंगे

अभी ख़्वाबों में तुम्हारे कई लोग आएँगे जी
मुझे अब न तुम बुलाना गो हम आस पास होंगे

कहीं जी मचल न जाए मैं न सुन सकूँगा अब और
यूँ तुम्हारा गुनगुनाना गो हम आस पास होंगे

कभी खिल भी जाएँ गुंचे हो भी ख़ुश्बुओं का मेला
ये न चाहेगा ज़माना गो हम आस पास होंगे

चले आज तीर ग़ाफ़िल नहीं आगे फिर लगे या
न लगे कभी निशाना गो हम आस पास होंगे

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, April 18, 2018

अक़्ल अपनी ठिकाने लगी

मैं उसे आज़माने लगा
वह मुझे आज़माने लगी
देख ताबानी-ए-रुख़ तेरी
अक़्ल अपनी ठिकाने लगी

-‘ग़ाफ़िल’

रात तन्हा मगर गुज़रती है

जिस्म जलता है जाँ तड़पती है
मौत आ जा कमी तेरी ही है

जिसको गाया नहीं कोई अबतक
वो ग़ज़ल ज़िन्दगी की मेरी है

जाके देखेगा होगा तब मालूम
है वो मंज़िल के उसके जैसी है

इतने अह्बाब हैं तेरे ग़ाफि़ल
रात तन्हा मगर गुज़रती है

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, April 17, 2018

है बड़ी चीज़ आप का होना

कोई कहता है आग सा होना
कोई कहता है जलजला होना
मैंने क्या क्या न हो के देख लिया
है बड़ी चीज़ आप का होना

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, April 16, 2018

सब तराने वो जो हम गाए थे

पास इतने भी कभी आए थे
यूँ के हम जाम भी टकराए थे
याद हों या के न हों तुमको अब
सब तराने वो जो हम गाए थे

-‘ग़ाफ़िल’

ग़ैर चाहे भी तो क्या लूटे हमें

फिर भी शिक़्वा है कहाँ उनसे हमें
गो गए छोड़ हर इक अपने हमें

साथ उनके ही शबे हिज़्र बहुत
उनके अश्वाक़ भी याद आए हमें

मेरे अपनों ने है ऐसे लूटा
ग़ैर चाहे भी तो क्या लूटे हमें

-‘ग़ाफ़िल’

(अश्वाक़=शौक़ का बहुवचन)

पाँवों पे वो सर रख दिए

पास उनके था बहुत ही शाद पर जाने वो क्यूँ
मेरे पल्लू में मेरा दिल आज लाकर रख दिए

मर्तबा अपना मुझे उस दम खिसकता सा लगा
जिस घड़ी रोकर मेरे पाँवों पे वो सर रख दिए

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, April 11, 2018

चारःगरी

चारःगरी ये हाय री चारःगरी ये हाय
चारःगरी ये हाय के बीमार कर दिया
वह शख़्स ही है वैसे मेरे दिल का डाक्टर
नज़रों का तीर दिल के था जो पार कर दिया

-‘ग़ाफ़िल’

भूत सेल्फ़ी का

सर पे है चढ़ा तेरे जो सेल्फ़ी का मेरी जाँ
ये भूत किसी तौर उतर जाए तो अच्छा

-‘ग़ाफ़िल’

आत्मविमुग्धता

आत्मविमुग्धता-

सोचा था हमसे होगी न रुस्वाई प्यार की
पर ख़ुद से ख़ुद का इश्क़ छुपाया नहीं गया

-‘ग़ाफ़िल’


Monday, April 09, 2018

प्यार का हो सके तो नशा कीजिए

क्यूँ कहूँ मैं के क्या हुस्न का कीजिए
हो सके इश्‍क़ का भी भला कीजिए

छा गये आप ज़ेह्नो जिगर पर भले
और अब कुछ न जी का बुरा कीजिए

मैं तो हँसता हूँ हालाते नाज़ुक पे भी
आप रो क्यूँ रहे हैं हँसा कीजिए

इसकी फ़ित्रत है कब ले ले आगोश में
हुस्न को देखते ही रहा कीजिए

रोकता है ज़़मीर और जी कह रहा
आप भी ज़िन्दगी में मज़ा कीजिए

हाँ ये माना नशा है बुरी चीज़ पर
प्यार का हो सके तो नशा कीजिए

आप हैं तो मगर ठीक यह भी नहीं
है के हर वक्‍़त ग़ाफ़िल रहा कीजिए

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, April 08, 2018

पर न ऐसा है के बेहतर हो गया हूँ

कह रहा क्यूँ तू के निश्तर हो गया हूँ
तेरी सुह्बत में वही गर हो गया हूँ

ज़ेह्नो दिल अपने भी पत्थर हो चुके मैं
हर तरह तेरा सितमगर हो गया हूँ

लग रहा मुझको भी मैं आशिक़ मुसल्सल
हिज़्र की आतिश में तपकर हो गया हूँ

सबके दिल में आना जाना क्या हुआ है
अपने ही दिल से मैं बाहर हो गया हूँ

तब न था मशहूर ऐसे ज़िन्दा था जब
जैसे मैं मशहूर मरकर हो गया हूँ

बढ़ गई होंगी मेरी रुस्वाइयाँ कुछ
पर न ऐसा है के बेहतर हो गया हूँ

ख़ुद से मैं ग़ाफ़िल था लेकिन होशियार अब
तेरे नक़्शे पा पे चलकर हो गया हूँ

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, April 03, 2018

इतने अरमाँ हुए शहीद जो महफ़िल एक सजाने में

बात है पल भर की ही तेरा मेरे जी तक आने में
बात बड़ी है ख़र्च हो जो ऐ ज़ालिम तुझे भुलाने में

अपने छत पर ही मैं अक़्सर चाँद बुला लेता हूँ पर
ख़तरा बहुत अधिक है यारो ऐसे उसे बुलाने में

सब कुछ पता है फिर भी तेरे मुँह से सुनना चाहूँगा
यह के हैं कितने झूठ जज़्ब जाने के तेरे बहाने में

अपना आना जाना गो हो जाता है अक़्सर वैसे
मुश्किल आती ही है किसी के दिल तक आने जाने में

सजी सजाई महफ़िल आखि़र अच्छी लगे न क्यूँ ग़ाफ़िल
इतने अरमाँ हुए शहीद जो महफ़िल एक सजाने में

-‘ग़ाफ़िल’