Monday, August 29, 2016

क्या आँच दे सकेंगे बुझते हुए शरारे

गुल सूख जाए हर इक या ग़ुम हों चाँद तारे
गाएंगे लोग फिर भी याँ गीत प्यारे प्यारे

ऐ अब्र! है बरसना तो झूमकर बरस जा
है गर महज़ टहलना तो फिर यहाँ से जा रे!

गोया के आ रहे हैं अब तक सँभालते ही
पागल नदी को फिर भी दिखते नहीं किनारे

डालो अलाव में जी! कुछ और अब जलावन
क्या आँच दे सकेंगे बुझते हुए शरारे

तुर्रा है यह के उल्फ़त ख़ंजर की धार सी है
और उसपे रक्स को हैं बेताब लोग सारे

वह बेल इश्क़ वाली सरसब्ज़ क्या रहेगी
ग़ाफ़िल रहेे जो तेरे शाने के ही सहारे

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, August 27, 2016

बवंडर

उठा है एक बवंडर जो आज सीने से
नहीं पता है के वह राह किस गुज़रता है
इन आँधियों का सफ़र देखना है ग़ाफ़िल अब
फ़क़त न घर ही, यहाँ क्या तबाह करता है

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, August 16, 2016

सुनाने वो ग़ाफ़िल को ताने चले हैं

बताओ जी क्या क्या बनाने चले हैं
अदब के जो याँ कारख़ाने चले हैं

जो हों कानफाड़ू जँचें बस नज़र को
अब ऐसी ही ख़ूबी के गाने चले हैं

न जिनको हुनर है बजाने का ढोलक
सितम है वो हमको नचाने चले हैं

गया है बिखर टूटकर दिल हमारा
जनाब अब उसे आज़माने चले हैं

चले तो सही तीर नज़रों के उनके
भले मेरे दिल के बहाने चले हैं

नहीं रेंगता जूँ है कानों पे जिनके
सुनाने वो ग़ाफ़िल को ताने चले हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, August 13, 2016

डर है के लुट न जाए यहाँ फिर कोई कभी

हो कुछ न और, फिर भी ये होके रहेगा यार
ले लेगी मेरी जान तेरी बेरुख़ी कभी
चर्चा नहीं करूँगा के मैं लुट गया, मगर
डर है के लुट न जाए यहाँ फिर कोई कभी

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, August 11, 2016

जो अपने थे कभी मुझको तो सारे याद रहते हैं

भले तुझको नहीं उल्फ़त के किस्‍से याद रहते हैं
मुझे हर बेमुरव्वत वक़्त गुज़रे, याद रहते हैं

कभी अपने नहीं थे जो उन्हें अब याद क्‍या करना
जो अपने थे कभी मुझको तो सारे याद रहते हैं

अगर भूला है तू कुछ तो मुहब्बत का सबक भूला
तुझे वैसे तो हर इक काम धन्धे याद रहते हैं

नहीं आता तुझे तारीफ़ का इक हर्फ़ भी लेकिन
ज़ख़ीरे के ज़ख़ीरे गालियों के याद रहते हैं

तबस्सुम ग़ैर के लब का जो भाये भी तो क्यूँ भाये
मुझे जब होंट तेरे मुस्कुराते याद रहते हैं

न कुछ भी याद आए पर न जाने क्यूँ मेरी ख़ातिर
तुझे ग़ाफ़िल ज़माने भर के फ़िक़रे याद रहते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, August 02, 2016

मुहब्बत का मेरे भी वास्ते पैग़ाम आया है

मिला चौनो क़रारो बेश्तर आराम आया है
सुना है जी चुराने में मेरा भी नाम आया है

न कोई राबिता था तब न कोई राबिता है अब
मगर फिर भी दीवाने याद तू हर गाम आया है

नहीं था इश्क़ तुझको गर तो फिर मेरे ही कूचे में
भला यह तो बता दे क्यूं तू सुब्हो शाम आया है

तू क्या जाने के मुझको भी ग़ुरूर अपना जलाना था
तेरा आतिश उगलना आज मेरे काम आया है

नहीं बेचैन करता है ख़याले ज़िश्तरूई अब
मुहब्बत का मेरे भी वास्ते पैग़ाम आया है

अरे ग़ाफ़िल! भले जैसा भी हो इक बार मिल तो ले
के तेरे आस्ताँ पर फिर दिले नाकाम आया है

(ख़याले ज़िश्तरूई=बदसूरती का विचार)

-‘ग़ाफ़िल’