Wednesday, November 29, 2017

स्वाती की इक बूँद

अब न चातक को रही स्वाती की इक बूँद की आस
था पता किसको ज़माना यूँ बदल जाएगा

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, November 24, 2017

हम अक़्सर देखे हैं

दर पर तेरे रोज़ रगड़ते पेशानी
हुस्न! हम कई शाह कलन्दर देखे हैं

संगमरमरी ताज की दीवारों पर भी
दाग़ खोजते लोग हम अक़्सर देखे हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, November 21, 2017

देखिए लेके कहाँ जाती है उल्फ़त मेरी

सच कहूँ जाऊँगा हर हाल नहीं छोड़ ये दर
पर दिखे इक भी तो जिसको हो ज़ुरूरत मेरी
मैं न घर का ही रहा और न ही घाट का अब
देखिए लेके कहाँ जाती है उल्फ़त मेरी

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, November 18, 2017

घर अपना

चाहता है हर कोई शह्र में हो घर अपना
पर हम आओ सहरा में आशियाँ बनाते हैं

-‘ग़ाफ़िल’
(चित्र गूगल से साभार)

Tuesday, November 14, 2017

इतना भी ग़ुरूर इश्क़ में अच्छा नहीं होता

होती न ख़लिश जी में तेरे तीरे नज़र की
पक्का है मेरी जान मैं ज़िन्दा नहीं होता
फिर भी न बहुत पाल भरम हुस्न के बाबत
इतना भी ग़ुरूर इश्क़ में अच्छा नहीं होता

-‘ग़ाफ़िल’
(चित्र गूगल से साभार)

Thursday, November 09, 2017

अपना वह रोज़गार अच्छा था

ख़ैर अब शे’र भी हैं मुट्ठी में
जब था ग़ाफ़िल शिकार अच्छा था
मरना शामो सहर हसीनों पर
अपना वह रोज़गार अच्छा था

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, November 07, 2017

तू न अब ऐसे लगे जैसे लगे लत कोई

जोर क्या दिल में मेरे आए भी गर मत कोई
जी करे गर तो करे मुझसे मुहब्बत कोई

नाम की उसके ही क्यूँ माला जपूँ रोज़ो शब
जो न महसूस करे मेरी ज़ुरूरत कोई

मैं भी देखूँ तो कोई रहता है मुझ बिन कैसे
कर दे हाँ आज अभी कर दे बग़ावत कोई

याद है लुत्फ़ का आलम वो के बरसात की रात
हम थे और हमपे टपकती थी टँगी छत कोई

रोज़ो शब जिसके तसव्वुर में गुज़ारी मैंने
हुस्न सी तेरे थी ऐ दोस्त वो आफ़त कोई

मैं भी रह लूँगा मेरी जाने ग़ज़ल तेरे बग़ैर
तू न अब ऐसे लगे जैसे लगे लत कोई

अब नहीं आती है ग़ाफ़िल जी मेरे जी में ये बात
के कभी मुझको लिखे मेरा सनम ख़त कोई

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, November 03, 2017

मगर इंसान डरकर बोलता है

नहीं मालूम क्यूँकर बोलता है
ये जो मेढक सा टर टर बोलता है

न थी चूँ करने की जिस दिल की हिम्मत
वो अब ज़्यादा ही खुलकर बोलता है

जवानी की तो किर्चें भी हैं ग़ायब
नशा फिर भी चढ़ा सर बोलता है

क़फ़स में शर्तिया है देख लो जा
परिंदा मेरे सा गर बोलता है

नहीं हैं तोप फिर भी बीवियों से
हर इक इंसान डर कर बोलता है

मज़ाक़ इससे भला क्या होगा अच्छा
तू कैसा है सितमगर बोलता है

करम फूटा था जो ग़ाफ़िल हुआ था
सुख़नवर मुझसा अक़्सर बोलता है

-‘ग़ाफ़िल’