Thursday, June 30, 2011

वो तेरी कब थी दीवानी

फ़ज़ाएं मस्त मदमाती, अदाएं शोख दीवानी।
ये हूरों की सी महफ़िल है नज़ारा है परिस्तानी।।

घनी काली घटाओं में खिला ज्यूँ फूल बिजली का,
घनेरे स्याह बालों में चमकते रुख हैं नूरानी।

कशिश कैसी के बेख़ुद सा चला जाए वहीं पर दिल,
जहाँ ललकारती सागर की हर इक मौज़ तूफ़ानी।

भला ये ज्वार कैसा है नशा-ए-प्यार कैसा है,
हुआ जो ज़ुल्फ़ ज़िन्दाँ में क़तीले-चश्म जिन्दानी।

ऐ ग़ाफ़िल ख़ुद के जन्नत से जहाँ को ख़ुद किया दोज़ख,
हुआ तू जिसका दीवाना वो तेरी कब थी दीवानी।।

(जिन्दाँ=क़ैदख़ाना, क़तीले-चश्म=नज़र से क़त्ल किया गया हो जो, ज़िन्दानी=क़ैदी)

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, June 27, 2011

वन्दहु सदा तुमहि प्रतिरक्षक

जै जै प्रतिरच्छक जै हे सोक निवारक!
जै हो तुम्हार हे सब नीचन के तारक।

तुम हो त्रिदेव कै रूप बुद्धि-बल खानी,
संग सूरसती लछमी औ रहति भवानी।

सब कहनहार चाहे जौ मुँह मा आवै,
ऊ बतिया चाहे केतनौ का भरमावै।

सब ठीकै है जौनै कुछ तुमहि सुहायी,
पानी पताल से की सरगे से आयी।

तुम आला हाक़िम हौ तुम्हार सब चाकर,
तुम सब केहू कै ईस सरबगुन आगर।

सब कुछ तुम्हकां छाजै जउनै कै डारौ,
मनई का पैदा करौ या मनई मारौ।

ई ग़ाफ़िल मूरख नाय जो अलग नसावै,
सबके साथे मिलि गुन तुम्हार ही गावै।
                                                       -ग़ाफ़िल

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Saturday, June 25, 2011

ख़ारों की हिफ़ाज़त लाज़िम

दिल हमारे जिसे हैवान कहा करते हैं।
हम तो उसको भी मिह्रबान कहा करते हैं।।

अब के और आदिमों के बीच फ़र्क़ बेमानी,
जिस्म से हट रहे बनियान कहा करते हैं।

तमाम उम्र परवरिश में गुज़ारी जिनकी,
फूल वे ही हमें नादान कहा करते हैं।

बामुरौवत को यहाँ मात मिली है हरदम,
बेमुरौवत को हमी डॉन कहा करते हैं।

गुलों से बेस्तर ख़ारों की हिफ़ाज़त लाज़िम,
कैक्टस को चमन की शान कहा करते हैं।

कैसी फ़ित्रत के मस्त होकर सो रहा ग़ाफ़िल!
तेरे जैसों को ही बेजान कहा करते हैं।।
                                                           -ग़ाफ़िल

Wednesday, June 15, 2011

ग़ाफ़िल का ढाबा (चीनी मिल परिसर, बभनान, में हुए कवि सम्मेलन की पुष्पिका)

आइए! हम आपको कविता जिमाते हैं।
हम कविता के पाकशास्त्री हैं,
बड़ी लज़ीज कविता बनाते हैं।।

क्या खाइएगा? वही न! जो हम पकाएंगे,
हम परोसेंगे और आप खाते ही जाएंगे।
क्योंकि हमारे परोसने का अन्दाज है निराला,
कविता भले ही कच्ची हो,

पर मजेदार होगा हर निवाला।।

ये मेरा दावा है कि आप नहीं होंगे बोर,
इत्मिनान रखिए! छन्दों के बर्त्तनों में
होता नहीं है शोर।
ये आपस में कभी-कभार टकराते तो जरूर हैं,
पर बड़े ही प्रेम से, आदत है, मगरूर हैं।।

दोहा, घनाक्षरी, चौपाई, पद हो या सवईया,
बड़े ही सुपाच्य हैं, हज़मुल्ला की जरूरत नहीं
बस खाइए भईया।।

इस घनाक्षरी की थाली में देश-भक्ति की पूरियां
जो कड़कड़ाती दिखायी दे रही हैं, घबराइए नहीं!
इसमें देशी घी का मोयन है जादा, मुँह में रखते ही
गल जाएंगी, आप मस्त हो जाएंगे ऐसा है मेरा वादा।।

हम नहीं कहते कि इसे खाकर आप 

भगत सिंह, हमीद और आज़ाद हो जाएंगे
पर इतना है कि पत्नी के आगे ही सही,
आपके बाजू, चाहे हवा में ही, ज़ुरूर फड़फड़ाएंगे।।

इसको ‘बौखल’ और ‘बौझड़’ की हास्य चटनी के साथ
खाइए, ‘वाहिद’ के साम्प्रदायिक सद्भाव के मिक्सवेज़
का भी लुत्फ़ उठाइए अथवा ‘सुरेश’ की यायावरी प्रवृत्ति
को अपनाना हो जरूरी, तो एक मुखौटा ‘विजय
का अवश्य
खरीदिए वर्ना यात्रा रह जाएगी अधूरी।।

अब चूँकि गेहूँ के दाने, चावल, और समस्त खद्यान्न

यहां तक कि जंगल, जानवर और जंगली उत्पाद
सब कुछ ‘आशू’ भाई के मुताबिक होने जा रहे हैं
लोरियों और कहानियों में, तो अभी भी समय है
चेत जाइए और आइए
ग़ाफ़िल के ढाबे में आइए!

‘सन्त’ समागम की भक्ति-प्रेम-रस पूरित तस्मयी का
मज़ा है कुछ और, हाँ!
ग़ाफ़िल के ढाबे की यह
‘व्याख्या’ गर समझ में न आए तो चुप-चाप
चले जाना मत करना कुछ शोर वर्ना
हम पाकशास्त्रीगण लाल-पीले हो जाएंगे
और आप हो जावोगे बोर।
                                                               -ग़ाफ़िल

तेरा नाम लिख रहा हूँ

सुबो-शाम लिख रहा हूँ, तेरा नाम लिख रहा हूँ।
मैं इबारते-मुकद्दस का जाम लिख रहा हूँ॥

ग़ैरों पे करम तेरे, और दिल पे सितम मेरे,
मैं ख़ुद पे आज इसका इल्जाम लिख रहा हूँ।

यूँ भी तेरी जफ़ाई, क्या-क्या न गुल खिलाई?
तेरे वास्ते भी अच्छा सा काम लिख रहा हूँ।

आया हूँ क्यूँ यहाँ पे? और जाऊँगा कहाँ पे?
इस बात से नावाक़िफ़ अंजाम लिख रहा हूँ।

ग़ाफ़िल, बे-होशियारी और बे-तज़ुर्बेकारी,
आल्लाहो-ईसा, साहिब-वो-राम लिख रहा हूँ॥
                                                                     -ग़ाफ़िल

Tuesday, June 14, 2011

अपनी है तरफ़दारी मग़र ग़ैर की करे

जी की उड़ान जैसे नक़्ल तैर की करे
है मेरा तर्फ़दारी मगर गैर की करे

जाना से यकज़बाँ मैं कभी हो नहीं सका
मैं सर की कहूँ और वो है पैर की करे

सीनःफ़िगार मुझसा और कौन हो भला
के वस्ल की शब बात भी वो ग़ैर की करे

वो जाँसिताँ है और मैं जाँबर नहीं हूँ यार!
देखें के कौन आके मेरी ख़ैर की करे

हुस्नो-हरम पे जाँनिसार हो रहा है क्यूँ
ग़ाफ़िल तू जाके सैर किसी दैर की करे

(तैर= परिन्दा, यकजबाँ= सहमत, जाना= प्रेमिका, बारहा= अक्सर, सीनःफ़िगार= टूटे हुए दिलवाला, वस्ल की शब= मिलन की रात, ग़ैर= दूसरा, जाँसिताँ= जान लेने वाली, जाँबर= जान बचाने का सामर्थ्य रखने वाला, हुस्न= सौन्दर्य, हरम= अन्तःपुर, जाँनिसार= जान न्योछावर कर देने वाला, दैर= बुतख़ाना, मूर्ति-घर)

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, June 11, 2011

मेरी तश्नगी

मेरी तश्नगी मुझे ही दीवाना न बना दे।
तश्नालबी ही मौत का गाना न बना दे॥

ये उम्र तो तेरे ही तसव्वुर में कट गयी,
मरने का कोई और बहाना न बना दे।

मेरे दिलो-दिमाग में तेरा ही फ़साना,
यह वक़्त कोई और फ़साना न बना दे।

इक चाँद ही ता'शब तो मेरे साथ रहा है,
डर है उसे भी कोई बेगाना न बना दे।

अब तक तो बेवफ़ा है जमाना मेरे लिए,
अब बेवफ़ा मुझे ये जमाना न बना दे।

तीरे-नज़र की तेरे ख़लिश से तड़प रहे
ग़ाफ़िल को कोई और निशाना न बना दे॥

( तश्नगी- प्यास, तश्नालबी- ओंठों का प्यासा होना अर्थात् सूख जाना )
                                                                    -ग़ाफ़िल

Saturday, June 04, 2011

तू भी है आदमजात क्या?

हारिश न हो जो हुस्न में तो इश्क़ की भी बात क्या?
आँखों से बरसे मै नहीं तो सावनी बरसात क्या?

वैसे तो हम शामो सहर मिलते हैं दौराने सफ़र
पर हो न जो बज्मे तरब तो फिर है मूलाक़ात क्या?

जज़्बातों का मेरे करम जो पाल रक्खा है भरम
वर्ना हो शब तारीक तो फिर चाँद की औक़ात क्या?

वो बाग की नाजुक कली सहमी हुई ये कह पड़ी
जो इस तरह घूरे मुझे तू भी है आदमजात क्या?

ऐ हुस्न की क़ातिल अदा! सुन इश्क़ की भी ये सदा
तुझको भी तो हो इल्म कुछ होती है ता’जीरात क्या?

ग़ाफ़िल गया जिस भी शहर वाँ हर गली हर मोड़ पर
पत्थर बरसते दर-ब-दर तो फिर हैं खुशहालात क्या?

(हारिश=अपने को बना-चुना कर दिखाने का शौक, बज़्मे-तरब=महफ़िल का आनन्द, तारीक=काली, ता’जीरात=कानून की वह किताब जिसमें दण्ड विधान निहित होता है)

-‘ग़ाफ़िल’