फ़ज़ाएं मस्त मदमाती, अदाएं शोख दीवानी।
ये हूरों की सी महफ़िल है नज़ारा है परिस्तानी।।
घनी काली घटाओं में खिला ज्यूँ फूल बिजली का,
घनेरे स्याह बालों में चमकते रुख हैं नूरानी।
कशिश कैसी के बेख़ुद सा चला जाए वहीं पर दिल,
जहाँ ललकारती सागर की हर इक मौज़ तूफ़ानी।
भला ये ज्वार कैसा है नशा-ए-प्यार कैसा है,
हुआ जो ज़ुल्फ़ ज़िन्दाँ में क़तीले-चश्म जिन्दानी।
ऐ ग़ाफ़िल ख़ुद के जन्नत से जहाँ को ख़ुद किया दोज़ख,
हुआ तू जिसका दीवाना वो तेरी कब थी दीवानी।।
(जिन्दाँ=क़ैदख़ाना, क़तीले-चश्म=नज़र से क़त्ल किया गया हो जो, ज़िन्दानी=क़ैदी)
-‘ग़ाफ़िल’
ये हूरों की सी महफ़िल है नज़ारा है परिस्तानी।।
घनी काली घटाओं में खिला ज्यूँ फूल बिजली का,
घनेरे स्याह बालों में चमकते रुख हैं नूरानी।
कशिश कैसी के बेख़ुद सा चला जाए वहीं पर दिल,
जहाँ ललकारती सागर की हर इक मौज़ तूफ़ानी।
भला ये ज्वार कैसा है नशा-ए-प्यार कैसा है,
हुआ जो ज़ुल्फ़ ज़िन्दाँ में क़तीले-चश्म जिन्दानी।
ऐ ग़ाफ़िल ख़ुद के जन्नत से जहाँ को ख़ुद किया दोज़ख,
हुआ तू जिसका दीवाना वो तेरी कब थी दीवानी।।
(जिन्दाँ=क़ैदख़ाना, क़तीले-चश्म=नज़र से क़त्ल किया गया हो जो, ज़िन्दानी=क़ैदी)
-‘ग़ाफ़िल’