Sunday, November 29, 2015

लगे क्यूँ मगर हम अकेले बहुत हैं

अगर देखिएगा तो चेहरे बहुत हैं
लगे क्यूँ मगर हम अकेले बहुत हैं

चलो इश्क़ की राह में चलके हमको
न मंज़िल मिली तो भी पाये बहुत हैं

ये माना के है ख़ूबसूरत जवानी
मगर पा इसी में फिसलते बहुत हैं

मज़ेदार है ज़िन्दगी क्यूँ के इससे
न हासिल हो कुछ पर तमाशे बहुत हैं

ये सच है के उल्फ़त निभाते हुए हम
उजालों में ही यार भटके बहुत हैं

रहे इश्क़ वैसे भी पुरख़ार है और
गज़ब यह के पावों में छाले बहुत हैं

उन्हें बैर था या मुसाफ़ात हमसे
वो जानिब हमारी जो आए बहुत हैं

भला ये क्या तुह्मत के जग जग के ता'शब
न जाने क्या ग़ाफ़िल जी लिखते बहुत हैं

मुसाफ़ात=दोस्‍ती

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, November 26, 2015

ख़ूबसूरत है फ़साना प्यार का

हो लगा तड़का अगर तकरार का
ख़ूबसूरत है फ़साना प्यार का

आँधियों में जब उड़ा पत्ता वो ज़र्द
सब कहे जाने दो है बेकार का

जाने दो जो वे तगाफ़ुल कर रहे
होगा ये उनका तरीक़ा प्यार का

क़त्ल करना माना तेरा है शग़ल
हाल भी पर ले दिले बीमार का

देखते जिसको अघाता मैं नहीं
ऐसा ही चेहरा है मेरे यार का

कौन से रँग में रँगा था तूने रब
रंग अब क्या है तेरे संसार का

लुत्फ़ उल्फ़त का न गुम हो इसलिए
लेते रह थोड़ा मज़ा इन्कार का

ठीक है फूलों भरी हो राह पर
मर्तबा कमतर नहीं है ख़ार का

हौसिला तो दे ख़ुदा ग़ाफ़िल को अब
नाज़नीं से इश्क़ के इज़हार का

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, November 22, 2015

गर तेरी आँखों का पैमाना न होगा

मै न होगी और मैख़ाना न होगा
गर तेरी आँखों का पैमाना न होगा
जुल्म यह के रुख़्सती है तै यहाँ से
और फिर वापस मेरा आना न होगा

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, November 18, 2015

कुछ अलाहदा शे’र : हो ही जाते हैं गुलाबी सब-के-सब चेहरे हसीन

1-
जो कैदी है ज़माने से वही तो है ज़मीर अपना
कभी सोचा है यारों के उसे भी अब छुड़ाना है?
2-
कमाई हैं सदियाँ जो दौलत वफ़ा की
उसे लम्हे चाहें रखें या उड़ा दें
3-
किस तर्ह बचे अस्मत अब सोच ज़रा ग़ाफ़िल
मजनू के सगे हैं सब जो साथ हैं डोले के
4-
अजब उलझी हवाओं की लटों को,
न पूछो किस तरह सुलझा रहा हूँ।
5-
ज़ख़्मे दिल पर इश्क़ का मरहम कोई
गर लगा दे फ़ाइदा हो जाएगा
6-
आज अह्बाब हँस रहे मुझ पर
इश्क़ का भी अजब करिश्मा है
7-
आज कोई वहीं नहीं मिलता
चाहिए था जिसे जहाँ होना
8-
महफ़िल की तेरे यार है ये कैसी ख़ासियत
आती ज़ुबान पर है तेरे बाद शा’इरी
9-
कुछ तो है जो बज़्म में ग़ाफ़िल के आते ही जनाब
हो ही जाते हैं गुलाबी सब-के-सब चेहरे हसीन
10-
जी मेरा जलाने की आदत न गयी उनकी
रंगीन तितलियों पे अब भी हैं मचल जाते

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, November 16, 2015

औ मुसन्निफ़ भी तो कोई व्यास होना चाहिए

फिर कोई इक कृष्ण सा बिंदास होना चाहिए
औ मुसन्निफ़ भी तो कोई व्यास होना चाहिए

मैं चला आऊँगा दौड़ा दे कोई आवाज़ पर
शर्त इतनी है के मक़सद ख़ास होना चाहिए

मौत भी मेरी ग़ज़ल बन जाएगी ये है यक़ीं
बस मेरा दिलदार मेरे पास होना चाहिए

ज़ोर तो जल्वानुमा होगा मुहब्बत का मगर
आदमीयत का हमें अहसास होना चाहिए

जी रहे अभिशप्त पादप से कई संसार में
क्या नहीं उनके लिए मधुमास होना चाहिए

ख़ूबसूरत आप हैं अहसास हो जाएगा बस
आईने पे आपका विश्वास होना चाहिए

आप ग़ाफ़िल जी कहो क्या इश्क़ करने के लिए
लाज़िमी है ज़ेब में सल्फ़ॉस होना चाहिए?

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, November 15, 2015

गर आ जाऊँ तो पैमाने न देना

सितम है मैकदे आने न देना
गर आ जाऊँ तो पैमाने न देना

बड़ी ग़ुस्ताख़ महफ़िल की हवा है
हिजाबे दिल को सरकाने न देना

है अच्छा इश्क़ पर इसकी सिफ़त है
सुक़ूँ जी को कभी पाने न देना

लगी पाबन्दियाँ मासूम लब पर
बड़ा है क़ुफ़्र मुस्काने न देना

है पा गर साफ़ तो फिर दिल भी देखो
उसे घर में अभी आने न देना

अभी ग़ाफ़िल को है उम्मीदे वस्लत
इसे बेमौत मर जाने न देना

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, November 12, 2015

जो हहहहहहहकलाते हैं

हम भी जब तुक से तुक कभी भिड़ाते हैं
बे मानी वाली ही ग़ज़ल बनाते हैं

हमको अच्छी लगती है उनकी बोली
जो हहहहहहहकलाते हैं

पेट सभी का त्यों ही दुखने लगता है
जैसे ही हम अपना कान खुजाते हैं

एक शेर सर्कस से भाग गया जंगल
ठहरो इक बिल्ले को शेर बनाते हैं

हँसने को मुहताज हुए पैसे वाले
कृपा हँसी की उन पर हम बरसाते हैं

सारे होशियार मिलकर हुशियारी की
मुफ़्तै में हमको माला पहनाते हैं

दास कबीरा की आटा चक्की का क्या
गेंहू सँग घुन अब भी ख़ूब पिसाते हैं

आज नहीं मिलने वाली है वाह हमें
शेर वेर हम अपना लेकर जाते हैं

कई चीटियाँ मिल हाथी को चट कर दीं
ग़ाफ़िल जी अब सबको यही बताते हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, November 10, 2015

पर कठिन है प्यार का इज़हार करना (2122 2122 2122)

है बहुत आसान यारो! प्यार करना
पर कठिन है प्यार का इज़हार करना

एक क्यूँ इस्रार कर कमतर हो ज़ाहिर
दूसरे की ज़िद हो जब इंकार करना

वाक़ई में तोड़ देना आईने को
ख़ुद की ही सूरत को है बेकार करना

शम्स भी तो सोचता होगा, किसी दिन
मौज़ करना, ठाट से इतवार करना

क़ाइदन बेपर्दगी अच्छी नहीं पर
हो सके तो बरहना रुख़सार करना!

मिह्रबाँ है रब के अब तक शाद हूँ मैं
गो है फ़ित्रत आपकी बीमार करना

क्या भला ग़ाफ़िल सा होगा और कोई
आपको, इक था न ख़िदमतगार करना?

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, November 09, 2015

याद तेरी है तो दीवाली है

फ़र्क़ क्या है के रात काली है
याद तेरी है तो दीवाली है

मद भरे चश्म का तसव्वुर कर
मैंने भी तिश्नगी मिटा ली है

पा मेरे तब ही लड़खड़ाए हैं
जब भी तूने निगाह डाली है

रू-ब-रू है मेरा दिले नादाँ
और तेरी नज़र दुनाली है

अक्स तेरा उभर रहा हर सू
शायद अब नींद आने वाली है

आईने पर नज़र न कर ग़ाफ़िल
क्यूँकि तेरी नज़र सवाली है

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, November 08, 2015

मेरे घर उस रात का मौसम सुहाना हो गया

चाँद का जिस रात भी खिड़की पे आना हो गया
मेरे घर उस रात का मौसम सुहाना हो गया

लग रहा है फिर फ़ज़ाओं में है लैला की महक़
क्यूँके यारो कैस अपना फिर दीवाना हो गया

आदतन मैं मुस्कुरा देता हूँ बस इतने से तुम
बारहा क्यूँ मान लेते हो मनाना हो गया

जैसे तैसे हुस्न के वन में यक़ीं की झाड़ पर
इश्क़ का मेरे भी लो अब आशियाना हो गया

शोख़ नज़रों ने ही कुछ मुझको किया बर्बाद और
अब उन्हीं से जी का जी लगना लगाना हो गया

क्या पता ग़ाफ़िल ज़माने से है ग़ाफ़िल या के फिर
आज कल ग़ाफ़िल से ही ग़ाफ़िल ज़माना हो गया

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, November 06, 2015

एक ग़ाफ़िल की हैं यूँ भी दुश्वारियाँ

आतिशे इश्क़ ज़ारी रहे दरमियाँ
इस सबब है जला फिर मिरा आशियाँ

आज फिर इश्क़बाज़ों की चाँदी हुई
आज फिर गुल हुईं शह्र की बत्तियाँ

लज़्ज़ते इश्क़ का शौक गर है तुझे
माफ़ करती रहे मेरी ग़ुस्ताख़ियाँ

अब रहा एक बस ख़्वाब का आसरा
वस्ल में गर रहीं यूँ परेशानियाँ

बल्लियों मैं उछलना गया भूल, जब
देख उसको उछलने लगीं बल्लियाँ

क्यूँ किसी को सुनाई नहीं पड़ रहीं
आ रहीं जो उजालों से सिसकारियाँ

जब चला उसके दर छींक कोई दिया
एक ग़ाफ़िल की हैं यूँ भी दुश्वारियाँ

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, November 05, 2015

भइया जी यद्यपि परधानिउ हारे हैं

कयू कलट्टर यसपी का दुत्कारे हैं
नेता जी की आँखों के हम तारे हैं

यक थाना के गारद कै दूने गारद
नेता जी के अगुआरे पिछुआरे हैं

बड़े भागशाली हौ की तुम्हरे घर पे
वोट बदे भइया जी ख़ुदै पधारे हैं

तबौ कबीना मंत्री हैं तक़दीरै है
भइया जी यद्यपि परधानिउ हारे हैं

हर किसान कै फटी ज़ेब, पेटौ खाली
अपनी अपनी किस्मत के बटवारे हैं

कहैं मिठाई लाल कि ग़ाफ़िल सुगर भवा
दीवाली मा फूटे भाग हमारे हैं

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, November 04, 2015

पर जली है जो चिता वह थी मेरे अरमान की

लोग समझे थे के है वो फ़ालतू सामान की
पर जली है जो चिता वह थी मेरे अरमान की

असलियत में इश्क़ फ़रमाना बहुत आसाँ नहीं
है यहाँ बाज़ी लगी रहती जिगर-ओ-जान की

देखकर नाज़ो अदा तेरी बड़ी उलझन में हूँ
लाज़ रख पाऊँगा कैसे धर्म-ओ-ईमान की

ख़्वाब में महबूब का दीदार करवा कर ख़ुदा
मंज़िले उल्फ़त की मेरी राह क्या आसान की

मैंने सोचा था के तू यादों में ही, पर आएगा
जब नहीं आना है जा यह भी ख़ुशी क़ुर्बान की

अब मुझे ही खोज पाना है कठिन मेरे लिए
धज्जियाँ इस क़द्र बिखरी हैं मेरी पहचान की

ठीक है ग़ाफ़िल पे फ़िक़रे जी करे जितना, कसो
पर ये क्या टोपी उछाले हो दिले नादान की

-‘ग़ाफ़िल’

आदाब!लोग समझे थे के है वो फ़ालतू सामान कीपर जली है जो चिता वह थी मेरे अरमान कीअसलियत में इश्क़ फ़रमाना बहुत आसाँ नहीं...
Posted by Chandra Bhushan Mishra Ghafil on 3 नवंबर 2015