Sunday, March 30, 2014

असहयोग आन्दोलन

एक बात बताऊँ कान में! मुझे मेरे बहते लहू को रोकना आसान लगा बनिस्बत मेरे बहते आँसू के, क्योंकि लहू बहने से रोकने में मेरा ख़ुद सहयोग कर रहा था जमकर पर आँसू ज़िद्दी पूरा असहयोग आन्दोलन पर आमादा था

Saturday, March 29, 2014

क्या खोया? क्या पाया?

        दो सगे भाई थे। दोनों आशिक़ थे। दोनों की अपनी-अपनी मा’शूक़ा थीं। दोनों उनसे बहुत प्यार करते थे और उनकी मा’शूक़ाएं भी उनपर दिलो-जान से न्योछावर थीं। अपने-अपने आशिक़-मा’शूक़ा को देखे बिना किसी के जी में कल न आती थी। न मिलने पर बेचैनी और मिलने पर बिछड़ जाने की बेचैनी क्या बड़े सुहाने दिन गुज़र रहे थे। एक दिन लोगों ने सोचा कि हम शादी क्यों न करके एक दूजे के हो जायें और सारी उम्र साथ ही गुज़ारें, यह छिप-छिपकर मिलना, दुनिया से नज़रें चुराना, ये बेचैनियों के जख़ीरे अब बरदाश्त नहीं। सो अपने-अपने अभिवावकों से प्रेमियों ने बात की और अभिवावकों की सहमति से उन सबकी विधिवत् शादी कर दी गयी। अर्सा पाँच साल से प्रेमीगण बतौर मिंयाँ-बीवी साथ-साथ रह रहे हैं।
        आज अचानक छोटा भाई दौड़ा-दौड़ा बड़े भाई के पास गया। अन्यमनस्क और उद्विग्न छोटे भाई को देखकर बड़े भाई ने कुशल पूछा तो छोटे भाई के मुंह से अनायास यह सवाल निकला- ‘‘भईया हमारी एक एक मा’शूक़ा थी वह वह बीवियों में नहीं दिखती कहां गयी?’’ बड़े भाई ने सवाल को तपाक से लपकते हुए बोला- ‘‘छोटे! पिछले तीन साल से हमें यही सवाल घुन की तरह चाटे जा रहा है जिसका हल मैं नहीं खोज पाया। ऐसा करते हैं चलो फ़क़ीर साहब से पूछते हैं ’’
        फिर दोनों फ़क़ीर साहब कि पास गये और अपना सवाल दुहराया। सवाल सुनकर फ़क़ीर साहब बिना देर लगाए ही बोल उठे कि- ‘‘बच्चा! तुम दोनों की मा’शूक़ा अब बीबियों में तब्दील हो चुकी हैं उसमें मा’शूक़ा न तलाशो, एक ही समय में एक ही औरत बीबी और मा’शूक़ा दोनों नहीं हो सकती इसी तरह पुरुषों पर भी लागू होता है और यही सवाल तो कल तुम्हारी बीवियाँ भी पूछने आई थीं मुझसे। अब आप सब केवल और केवल मिंयाँ-बीवी हो, एक सामाजिक समझौता और उससे मुताल्लिक़ फ़र्ज़ को ख़ुशी-ख़ुशी निभाओ! उम्र यूँ भी कट जाती है।’’
        अब दोनों के सामने सवाल यह है कि क्या खोया? क्या पाया? जिसका हल शायद वे ता’उम्र तलाशते रहें हम उनके सेहतमंद और सुखी शादीशुदा ज़िन्दगी की कामना करते हैं। आमीन।

Sunday, March 23, 2014

एक मौक़ा तो हो तक़दीर आजमाने को

कोई जो देख ले इस रूप के ख़ज़ाने को
न क्यूँ मचल उठे वह शख़्स इसे पाने को
ये और बात है के इखि़्तयार हो के न हो
एक मौक़ा तो हो तक़दीर आजमाने को

-‘ग़ाफ़िल’

Saturday, March 15, 2014

जेब भर खाली होगी

यह शहरे-ग़ाफ़िल है अदा भी निराली होगी
वक़्ते-इश्तक़बाल हर ज़ुबान पर गाली होगी

रुख़े-ख़ुशामदी ही खिलखिलाएगा अक्सर
और तो ठीक है पर बात ही जाली होगी

होगी होली भी और हीलाहवाली होगी
भरी दूकान होगी जेब भर खाली होगी

जिसकी दरकार जहां होगा दरकिनार वही
पुश्त में बीवी होगी रू-ब-रू साली होगी

रोज़ होगा सियाह और शब उजाली होगी
दिखेगा सब्ज़ मगर झमकती लाली होगी

नहीं मिसाल और होगा अहले दुनिया में
के क़ैस गोरा होगा लैला ही काली होगी

-‘ग़ाफ़िल’

Sunday, March 09, 2014

अब आई जान में जान

चलो!
ले दे के गहमी गहमा के बीच
हो ही गया नारी-दिवसावसान
आज पूरा दिन अति सतर्क रहा
मेरा आत्मसम्मान
मित्रों!
सच यह है कि
अब आई जान में जान
क्योंकि
संयोग से
मैं भी हूँ एक नारी-शुदा इंसान