Monday, October 17, 2022

ज़िन्दगी पुरशबाब होती है


क्या कहूँ क्या जनाब होती है
जब भी वो मह्वेख़्वाब होती है

शाम सुह्बत में उसकी जैसी भी हो
वो मगर लाजवाब होती है

उम्र की बात करने वालों सुनो
ज़िन्दगी पुरशबाब होती है

वैसे पढ़ने का अब चलन न रहा
वर्ना हर शै किताब होती है

ख़ुद ही बन जाती है दवा ग़ाफ़िल
पीर जब बेहिसाब होती है

-‘ग़ाफ़िल’

Thursday, September 29, 2022

कभी उधार की नज़रों से मत निहार मुझे (1212 1122 1212 22)

किए हैं वैसे तो रुस्वा हज़ार बार मुझे
समझ रहे हैं मगर दोस्त ग़मग़ुसार मुझे

बहुत यक़ीन है नज़रों पे तेरी जानेमन
कभी उधार की नज़रों से मत निहार मुझे

मिले न इश्क़ में थोड़ा भी है दुआ लेकिन 
मिले अगर तो मिले दर्द बेशुमार मुझे

मुझे है इल्म के खाली है जेब या के भरी
ये ठीक है के तू समझे नसीबदार मुझे

भले न ख़ुश्बू हो खिलता है बारहा ग़ाफ़िल
नहीं है उज़्र तू कह तो सदाबहार मुझे

-‘ग़ाफ़िल’