दर्द लिक्खूँ मैं या दवा लिक्खूँ
सूरते-नाज को क्या क्या लिक्खूँ
ख़ुद को देखा न बारहा जिसमें
तेरा चेहरा वो आईना लिक्खूँ
ना मचलने दे ना तड़पने दे
तेरा वादा भी अब सज़ा लिक्खूँ
मैं लगाया मगर चढ़ी ही नहीं
तुझको बेरंग सी हिना लिक्खूँ
-‘ग़ाफ़िल’
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (16-04-2014) को गिरिडीह लोकसभा में रविकर पीठासीन पदाधिकारी-चर्चा मंच 1584 में "अद्यतन लिंक" पर भी है।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब आदरणीय!
ReplyDeleteअजब कशमकश है -क्या छोड़ दूँ और क्या लिक्खूँ !
ReplyDeleteलाजबाब उम्दा प्रस्तुति ...!
ReplyDeleteRECENT POST - आज चली कुछ ऐसी बातें.
बहुत सुन्दर ...!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शब्द आदरणीय श्री गाफ़िल साब
ReplyDelete