चाँद खिला है बस्ती बस्ती मेरे छत पर काली रात।
मैं क्या जानूं कैसी होती है कोई मतवाली रात।।
अपने हिस्से की लेते तो मुझको उज़्र नहीं होता,
पर यह क्या तुमने तो ले ली मेरे हिस्से वाली रात।
रात चुराकर ऐ तारे जो तीस मार खाँ बनते हो,
दूजा आसमान रच दूँगा होगी जहाँ उजाली रात।
अब के मेरी रात सुहाने सच्चे सपनों वाली है,
तारों! सुबह जान जाओगे हुई तुम्हारी जाली रात।
ग़ाफ़िल को चकमा देकर जो दिल का सौदा करते हो,
दिल के सौदागर क्या जानो क्या होती दिलवाली रात।।
-‘ग़ाफ़िल’
वाह ।
ReplyDeleteशुक़्रिया जोशी जी
Deleteसुन्दर बहुत ही सुन्दर
ReplyDeleteरात चुराकर ऐ तारे जो तीस मार खाँ बनते हो,
ReplyDeleteदूजा आसमान रच दूँगा होगी जहाँ उजाली रात।
...वाह...बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...सभी अशआर बहुत उम्दा...
सुंदर ग़ज़ल
ReplyDeleteवाह ! बहुत सुन्दर
ReplyDeleteनौ रसों की जिंदगी !
शास्त्री जी को प्रणाम और आभार
ReplyDeleteधन्यवाद Anusha जी!
ReplyDeleteआप सभी का बहुत-बहुत आभार
ReplyDeleteदूजा आसमान रच दूंगा
ReplyDeleteहोगी जहां उजाली रात
बहुत खूब...
दूजा आसमान रच दूंगा होगी जहां उजाली रात
ReplyDelete.. ....हौसला हो तो सब संभव है.
बहुत खूब!
अपने हिस्से की लेते तो मुझको उज़्र नहीं होता,
ReplyDeleteपर यह क्या के तुमने ले ली मेरे हिस्से वाली रात।
..बहुत खूबसूरत अलफ़ाज़ ग़ाफ़िल साब