Saturday, June 21, 2014

चाँद खिला है बस्ती बस्ती मेरे छत पर काली रात

चाँद खिला है बस्ती बस्ती मेरे छत पर काली रात।
मैं क्या जानूं कैसी होती है कोई मतवाली रात।।

अपने हिस्से की लेते तो मुझको उज़्र नहीं होता,
पर यह क्या तुमने तो ले ली मेरे हिस्से वाली रात।

रात चुराकर ऐ तारे जो तीस मार खाँ बनते हो,
दूजा आसमान रच दूँगा होगी जहाँ उजाली रात।

अब के मेरी रात सुहाने सच्चे सपनों वाली है,
तारों! सुबह जान जाओगे हुई तुम्हारी जाली रात।

ग़ाफ़िल को चकमा देकर जो दिल का सौदा करते हो,
दिल के सौदागर क्या जानो क्या होती दिलवाली रात।।

-‘ग़ाफ़िल’

12 comments:

  1. सुन्दर बहुत ही सुन्दर

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  2. रात चुराकर ऐ तारे जो तीस मार खाँ बनते हो,
    दूजा आसमान रच दूँगा होगी जहाँ उजाली रात।
    ...वाह...बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...सभी अशआर बहुत उम्दा...

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  3. सुंदर ग़ज़ल

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  4. शास्त्री जी को प्रणाम और आभार

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  5. दूजा आसमान रच दूंगा
    होगी जहां उजाली रात

    बहुत खूब...

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  6. दूजा आसमान रच दूंगा होगी जहां उजाली रात
    .. ....हौसला हो तो सब संभव है.
    बहुत खूब!

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  7. अपने हिस्से की लेते तो मुझको उज़्र नहीं होता,
    पर यह क्या के तुमने ले ली मेरे हिस्से वाली रात।
    ..बहुत खूबसूरत अलफ़ाज़ ग़ाफ़िल साब

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