यारो दीवाना कोई जब ख़ुद पे आया है
होता इक इतिहास मुक़म्मल मैंने देखा है
वो चन्दा मामा भी अब मुझसे है रूठा सा
जो तब रोज़ कटोरा भर भर दूध पिलाया है
वैसे तो महफ़िल में होते हैं कुछ जूँ अपने
लेकिन मिलते ही नज़रें क्यूँ होता धोखा है
इश्क़ मुझे है तुमसे ऐसा भरम नहीं पालो
फ़ित्रत है इसकी जो ये दिल मचला करता है
हार चुके हो बाज़ी उल्फ़त की अब ज़िद कैसी
इन खेलों में यार कहाँ मिलता हर्ज़ाना है
मेरे अह्बाबों को मुझसे कुछ भी गिला नहीं
ग़ाफ़िल दुनिया में क्या सचमुच होता ऐसा है
-‘ग़ाफ़िल’
No comments:
Post a Comment