Tuesday, October 30, 2018

मुनासिब है मेरी ग़ज़ल गुनगुनाए

अब इक और यह भी सितम हमपे हाए!
हुआ एक अर्सा न तुम याद आए!!

कहूँ क्यूँ के मुझको गले से लगा लो
भले जान अपनी अभी छूट जाए

भले सेंंकनी थी तुम्हें लेकिन आतिश
थे हम ही जो दामन में अपने लगाए

हुआ कुछ तो हासिल मुहब्बत से ग़ाफ़िल
सनम बेवफ़ा है यही जान पाए

न जीने का हो और जिसके वसील:
मुनासिब है मेरी ग़ज़ल गुनगुनाए

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, October 05, 2018

मुझे तू कह ले मेरी जान कुछ भी

सफ़र है इसलिए भी अपना आसाँ
नहीं है पास जो सामान कुछ भी

मैं हूँ आशिक़ मगर ग़ाफ़िल के कुछ और
मुझे तू कह ले मेरी जान कुछ भी

-‘ग़ाफ़िल’