अब इक और यह भी सितम हमपे हाए!
हुआ एक अर्सा न तुम याद आए!!
कहूँ क्यूँ के मुझको गले से लगा लो
भले जान अपनी अभी छूट जाए
भले सेंंकनी थी तुम्हें लेकिन आतिश
थे हम ही जो दामन में अपने लगाए
हुआ कुछ तो हासिल मुहब्बत से ग़ाफ़िल
सनम बेवफ़ा है यही जान पाए
न जीने का हो और जिसके वसील:
मुनासिब है मेरी ग़ज़ल गुनगुनाए
-‘ग़ाफ़िल’
हुआ एक अर्सा न तुम याद आए!!
कहूँ क्यूँ के मुझको गले से लगा लो
भले जान अपनी अभी छूट जाए
भले सेंंकनी थी तुम्हें लेकिन आतिश
थे हम ही जो दामन में अपने लगाए
हुआ कुछ तो हासिल मुहब्बत से ग़ाफ़िल
सनम बेवफ़ा है यही जान पाए
न जीने का हो और जिसके वसील:
मुनासिब है मेरी ग़ज़ल गुनगुनाए
-‘ग़ाफ़िल’
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