Thursday, July 21, 2011

या ख़ुदा याँ पे कोई हमसफ़र नहीं होता

मैं तेरे चश्म के ज़ेरे- असर नहीं होता।
दिल में पेवस्त जो तीरे- नज़र नहीं होता॥

तेरे कूचे की सिफ़त संगज़ार की सी है,
आता अक्सर जो सफ़र पुरख़तर नहीं होता।

क्यूँ जमाने की है इस मिस्ल हौसला-पस्ती,
या ख़ुदा याँ पे कोई हमसफ़र नहीं होता।

शम्अ-ए-हुस्न में मेरी तरह लाखों अख़्ग़र,
रोज जलते हैं मग़र कुछ ज़रर नहीं होता।

मुझको बरबाद किया यह शहर रफ़्ता- रफ़्ता,
गोया इल्जाम कभी इसके सर नहीं होता।

इक नज़र देख ले इस सिम्त भले नफ़्रत से,
यूँ भी ग़ाफ़िल पे मिह्रबाँ क़मर नहीं होता॥

(अख़्गर=पतिंगा, क़मर=चाँद)
                                                              -ग़ाफ़िल

21 comments:

  1. बहुत खूबसूरत अशरार

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  2. मुझको बरबाद किया यह शहर रफ़्ता- रफ़्ता,
    गोया इल्जाम कभी इसके सर नहीं होता।

    -वाह!! बेहतरीन शेर निकाले हैं सभी....

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  3. बहुत खूबसूरत

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  4. aapki ghazalen ek se badhkar ek hoti hain.firse ek umda ghazal.badhaai.

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  5. बहुत ही बेहतरीन गजल

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  6. शम्अ-ए-हुस्न में मेरी तरह लाखों अख़्ग़र,
    रोज जलते हैं मग़र कुछ ज़रर नहीं होता।
    bahut hi acchi ghazal , sabhi sher bahut acche hain...

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  7. वाह.क्या बात है.
    बहुत खूब.

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  8. बहुत सुन्दर गजल भाई गाफ़िल जी बधाई

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  9. सरक-सरक के निसरती, निसर निसोत निवात |
    चर्चा-मंच पे आ जमी, पिछली बीती रात ||

    http://charchamanch.blogspot.com/

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  10. शम्अ-ए-हुस्न में मेरी तरह लाखों अख़्ग़र,
    रोज जलते हैं मग़र कुछ ज़रर नहीं होता।
    क्या बात कही ग़ाफ़िल साहब आपने। आज तो हर शे’र पर दिल में एक टीस सी भर गई है।

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  11. इक नज़र देख ले इस सिम्त भले नफ़्रत से,
    यूँ तो ग़ाफ़िल पे निगाहे- क़मर नहीं होता॥
    --
    ग़ाफ़िल साहब आपने बहुत सुन्दर अशआरों से सजी हुईग़ज़ल पेश की है!
    आभार!

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  12. मुझको बरबाद किया यह शहर रफ़्ता- रफ़्ता,
    गोया इल्जाम कभी इसके सर नहीं होता।

    बेहतरीन गज़ल.
    aur bhi kuchh shabdo ke arth jaruri lage.

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  13. क्या बहर पकड़ी है फाइलातुन मुफ़ाईलुन मुफाइलुन फइलुन
    कठिन होता है इस बहर पर शेर कहना| आपने बखूबी अंज़ाम दिया है| बधाई स्वीकार करें|

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  14. गाफिल जी बहुत खूब लिखा है .बधाई

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  15. रोज जलते हैं मग़र कुछ ज़रर नहीं होता
    beautiful gazal

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  16. मुझको बरबाद किया यह शहर रफ़्ता- रफ़्ता,
    गोया इल्जाम कभी इसके सर नहीं होता।

    ..bahut badiya gajal...

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  17. मुझको बरबाद किया यह शहर रफ़्ता- रफ़्ता,
    गोया इल्जाम कभी इसके सर नहीं होता।


    सटीक बात...सुंदर विचार। बेहतरीन गज़ल.....गहन चिन्तन के लिए बधाई।

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  18. क्यूँ जमाने की है इस मिस्ल हौसला- पस्ती,


    waah-waah-waah---------

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  19. आदरणीय चन्द्र भूषण मिश्र गाफ़िल जी
    सादर प्रणाम !

    निहाल हो गया आपके यहां आ'कर ...
    बहुत खूब लिखते हैं आप
    शम्अ-ए-हुस्न में मेरी तरह लाखों अख़्ग़र,
    रोज जलते हैं मग़र कुछ ज़रर नहीं होता


    हर शे'र के लिए ... पूरी ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद !

    हार्दिक शुभकामनाएं !

    -राजेन्द्र स्वर्णकार

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  20. sir,
    bahut khub likha hai aapne....

    men bhi kafi kuchh seekh paaunga aapke blog se...

    shukriya.....

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