बहुत दिन बाद आप क़द्रदानों की ख़िदमत में पेश कर रहा हूँ छोटी सी एक ताज़ा ग़ज़ल मुलाहिजा फ़रमाएं!
जो हर सर को झुका दे ख़ुद पे ऐसा दर नहीं देखा।
जो झुकने से रहा हो यूँ भी तो इक सर नहीं देखा।।
मज़ा मयख़ाने में उस रिन्द को आए तो क्यूँ आए,
जो साक़ी की नज़र में झूमता साग़र नहीं देखा।
लुटेरा क्यूँ कहें उनको चलो यूँ जी को बहला लें
वो मुफ़लिस हैं कभी आँखों से मालोज़र नहीं देखा।
क़यामत है के रुख़ भी और निगाहे-लुत्फ़ेे जाना भी,
मेरी जानिब ही हैंं गोया जिन्हें अक्सर नहीं देखा।
ज़रा सी चूक हाए बेसबब मारा गया ग़ाफ़िल
तेरी मासूम आँखों में छुपा ख़ंजर नही देखा।।
-‘ग़ाफ़िल’
कमेंट बाई फ़ेसबुक आई.डी.
बहुत बढ़िया गज़ल गाफिल जी....
ReplyDeleteसादर.
अनु
क़त्ल होने को यहाँ तैयार बैठे हैं |
ReplyDeleteइश्क में हम हार मनमार बैठे हैं |
मासूम कातिल आज क्या खूब ऐंठे हैं -
खुद के गले पर फेरते तलवार बैठे हैं ||
बहुत सुंदर
ReplyDeleteबहुत ही बेहतरीन गजल है सर...
ReplyDeleteअंतिम पंक्तिया तो बहुत ही गजब है..
सुन्दर....
सबसे अंतिम शेर तो ... गजब का है भाई
ReplyDeleteहो चुका क़त्ल अब रोने से और धोने से क्या होगा?
चश्मे-मासूम में ग़ाफ़िल छुपा खंजर नही देखा
बहुत दिनों के बाद ही सही,
ReplyDeleteआपने मुकम्मल ग़ज़ल तो कहीं।
बहुत खूब!
ReplyDeleteसादर!
मज़ा मयख़ाने में उस रिन्द को आए तो क्यूँ आए?
ReplyDeleteके साक़ी की नज़र में जो कभी साग़र नहीं देखा।
हो चुका क़त्ल अब रोने से और धोने से क्या होगा?
चश्मे-मासूम में ग़ाफ़िल छुपा खंजर नही देखा
दोनों शेर बहुत सुन्दर हैं ,
गाफ़िल को करे कत्ल ,वो खंजर नहीं देखा
बहुत खूब .. वाह
ReplyDeleteशानदार गजल....
ReplyDeleteसादर।
फिर से चर्चा मंच पर, रविकर का उत्साह |
ReplyDeleteसाजे सुन्दर लिंक सब, बैठ ताकता राह ||
--
शुक्रवारीय चर्चा मंच ।
मज़ा मयख़ाने में उस रिन्द को आए तो क्यूँ आए?
ReplyDeleteके साक़ी की नज़र में जो कभी साग़र नहीं देखा।
बहुत खूब .... सुंदर गजल
जो हर सर को झुका दे ख़ुद पे ऐसा दर नहीं देखा।
ReplyDeleteजो झुकने से रहा हो यूँ भी तो इक सर नहीं देखा।।
पहुँच जाता कोई वाँ पे जहां ईसा का रुत्बा है,
कोई बिस्तर नहीं छोड़ा के वो बिस्तर नहीं देखा।
चंद्रभूषण मिश्र जी गाफ़िल आपकी ग़ज़लों में कुछ खास होता है जो हमेशा दिल और दिमाग के बीच रस्साकस्सी को निमंत्रण देता है।
हो चुका क़त्ल अब रोने से और धोने से क्या होगा?
ReplyDeleteचश्मे-मासूम में ग़ाफ़िल छुपा खंजर नही देखा।।
वाह,,,, बहुत सुंदर बेहतरीन गजल ,,,,,
MY RECENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: विचार,,,,
gafil ji jabardast. . dil khush kar diya aapne :)
ReplyDeleteहो चुका क़त्ल अब रोने से और धोने से क्या होगा?
ReplyDeleteचश्मे-मासूम में ग़ाफ़िल छुपा खंजर नही देखा।।
बहुत सुंदर गज़ल ...!!
शुभकामनायें
जो हर सर को झुका दे ख़ुद पे ऐसा दर नहीं देखा।
ReplyDeleteजो झुकने से रहा हो यूँ भी तो इक सर नहीं देखा।।
वाह ..बहुत खूब .
शानदार गजल
ReplyDeleteमज़ा मयख़ाने में उस रिन्द को आए तो क्यूँ आए?
ReplyDeleteके साक़ी की नज़र में जो कभी साग़र नहीं देखा।
बहुत ही उम्दा गजल पढने मिली, आभार
बहुत ही बढ़िया..
ReplyDeleteक्या बात......पंक्ति पंक्ति भा गया
ReplyDeleteमज़ा मयख़ाने में उस रिन्द को आए तो क्यूँ आए?
ReplyDeleteके साक़ी की नज़र में जो कभी साग़र नहीं देखा।
...बहुत खूब....बेहतरीन गज़ल..
हो चुका क़त्ल अब रोने से और धोने से क्या होगा?
ReplyDeleteचश्मे-मासूम में ग़ाफ़िल छुपा खंजर नही देखा।।
gajab,
shandar ghazal
bahut hee acchi ghazal...aanand aa gaya sir...padha to kai baar par internet kee wahi beemeri sath chhod dene kee comment nahi kar paa raha tha..baise main aapki ghazal padhata bhee kai baar hoon sadar badhayee ke sath
ReplyDeleteहो चुका क़त्ल अब रोने से और धोने से क्या होगा?
ReplyDeleteचश्मे-मासूम में ग़ाफ़िल छुपा खंजर नही देखा।।
शानदार ग़ज़ल !
हैं लड़ते सत्य के ही वास्ते दिन-रात झूठों से
ReplyDeleteकहे जो सत्य ये है,झूठ ऐसा इक नहीं देखा!
हो चुका क़त्ल अब रोने से और धोने से क्या होगा?
ReplyDeleteचश्मे-मासूम में ग़ाफ़िल छुपा खंजर नही देखा।।
..........बहुत ही बढ़िया
हो चुका क़त्ल अब रोने से और धोने से क्या होगा?
ReplyDeleteचश्मे-मासूम में ग़ाफ़िल छुपा खंजर नही देखा।।
लाजवाब....
बड़ी बारीक सी कहन है....बहुत खूब...
बहुत ही बेहतरीन और प्रशंसनीय प्रस्तुति....
ReplyDeleteइंडिया दर्पण पर भी पधारेँ।
लुटेरा क्यूँ कहें उनको चलो यूँ जी को बहला लें!
ReplyDeleteवो मुफ़लिस हैं कभी आँखों से मालोज़र नहीं देखा।
चले जाना, चले जाना, अजी इतनी है जल्दी क्यूँ
सबब ये रोकने का है , अभी जी भर नहीं देखा ||
हो चुका क़त्ल अब रोने से और धोने से क्या होगा?
ReplyDeleteचश्मे-मासूम में ग़ाफ़िल छुपा खंजर नही देखा।।
हो चुका क़त्ल अब रोने से और धोने से क्या होगा?
चश्मे-मासूम में ग़ाफ़िल छुपा खंजर नही देखा।।
वाह गाफ़िल साहब बहुत दिनों के बाद पढ़ा आपको .काबिले तारीफ़ ग़ज़ल .और फिर १०-११ हजार मीटर की ऊंचाई पे उड़ते हुए टिपण्णी करने का लुत्फ़ भी अलग आ रहा है .
अंध महासागर के ऊपर देत्रोइत और फ्रेंफार्ट के बीच कहीं .
चश्मे मासूम में गाफ़िल छुपा खंजर नहीं देखा "
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत पंक्ति |अच्छी रचना के लिए साधुवाद |
आशा
मज़ा मयख़ाने में उस रिन्द को आए तो क्यूँ आए?
ReplyDeleteके साक़ी की नज़र में जो कभी साग़र नहीं देखा।
क़ियामत है के रुख़ भी और निगाहे-लुत्फ़ भी उनका,
मेरी जानिब ही है गोया जिसे अक्सर नहीं देखा।
WAH MISHR JI GAHARI TALKHIYON SE SARABOR KR DIYA .....LAJABAB GAZAL KI TAREEF ME SHABD KM PAD RAHE HAIN .
जो हर सर को झुका दे ख़ुद पे ऐसा दर नहीं देखा।
ReplyDeleteजो झुकने से रहा हो यूँ भी तो इक सर नहीं देखा।।बढ़िया ग़ज़ल है भाईसाहब हमें आप अकसर खपाए चलतें हैं ,हम खपने को तरस्तें हैं .चर्चा मंच पर बिठाने के लिए आपका आभारी हूँ ... veerubhai1947.blogspot.com ,43,309 ,Silver Wood DR,CANTON,MI,48,188
001-734-446-5451
वीरुभाई .
shandaar
ReplyDeleteमज़ा मयख़ाने में उस रिन्द को आए तो क्यूँ आए?
ReplyDeleteके साक़ी की नज़र में जो कभी साग़र नहीं देखा।
बहुत खूब...
शुक्रिया ज़नाब का चर्चा में शरीक करने के लिए .
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
ReplyDeleteआखिरी ख्याल तक आते आते मुझे तो अपना बना गये हो !
ReplyDeleteलुटेरा क्यूँ कहें उनको चलो यूँ जी को बहला लें!
ReplyDeleteवो मुफ़लिस हैं कभी आँखों से मालोज़र नहीं देखा।
हो चुका क़त्ल अब रोने से और धोने से क्या होगा?
चश्मे-मासूम में ग़ाफ़िल छुपा खंजर नही देखा।।
कमाल का लिखते हैं गाफिल साहब ।
बहुत सुँदर
ReplyDeleteचश्मे मासूम में खंजर यूँ ही छुपाते हैं
चलाते नहीं कत्ल नजर से कर जाते हैं !
"katilo ko sath le chalne ki adat ho gye, khudkashi sahil pe ki din ke ujale me,kishmat hi daga de gyee kabhi majhdhar na dekha.shaki ne kabhi mujhko n kyo pyar se dekha, edhar dekha udhar dekha samandar par bbhi dekha,jab vehad gaur se deka to khanjar es par se us par dekha, khe kya ab en bechare katilo ko,jinhe dekha sabhi ke cheharo par ek naye asar dekha........hua jab faishla kishmt ka mere khudiko katio ke sath dekha...."
ReplyDeleteकाफी दिन से आपका लिखा कुछ नया नहीं पढ़ा ,आज आप आये तो याद आया ,खैरियत तो है सब ?
ReplyDeleteआप से कुछ नया प्रतीक्षित ,शुक्रिया .कृपया यहाँ भी पधारें -
ReplyDeleteram ram bhai
रविवार, 26 अगस्त 2012
एक दिशा ओर को रीढ़ का अतिरिक्त झुकाव बोले तो Scoliosis
एक दिशा ओर को रीढ़ का अतिरिक्त झुकाव बोले तो Scoliosis
कई मर्तबा हमारी रीढ़ साइडवेज़ ज़रुरत से ज्यादा वक्रता लिए रहती है चिकित्सा शब्दावली में इसे ही कहा जाता है -Scoliosis .
24 हड्डियों (अस्थियों )की बनी होती है हमारी रीढ़ (स्पाइन )जिन्हें vertebrae कहा जाता है .रीढ़ की हड्डी की गुर्री का एक अंश है ये vertebra जिसे कशेरुका भी कहा जाता है .रीढ़ वाले प्राणियों को कहा जाता है कशेरुकी जीव (vertebrate ).
ये कशेरुका एक के ऊपर एक रखी होतीं हैं .रीढ़ को सामने से पीछे की ओर देखने पर वह सीधी (ऋजु रेखीय )ही दिखलाई देती है .
बेशक रीढ़ एक दम से सीधी नहीं होतीं हैं और ऐसा होना एक दम से सामान्य बात है.नोर्मल ही समझा जाता है .लेकिन जब यही रीढ़ आढ़ी तिरछी टेढ़ी मेढ़ी ज़रुरत से ज्यादा होती है तब यह असामान्य बात है ,एक रोगात्मक स्थिति भी हो सकती है यह जिसका आपको ज़रा भी भान (इल्म )नहीं है .
http://veerubhai1947.blogspot.com/
ReplyDeleteहो चुका क़त्ल अब रोने से और धोने से क्या होगा?
चश्मे-मासूम में ग़ाफ़िल छुपा खंजर नही देखा।।
GREAT Expression !
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ReplyDeleteलुटेरा क्यूँ कहें उनको चलो यूँ जी को बहला लें!
वो मुफ़लिस हैं कभी आँखों से मालोज़र नहीं देखा।
आदरणीय चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ जी
कई दिन बाद आया हूं आपके यहां …
अच्छी ग़ज़ल पढ़ कर आना सार्थक हुआ है …
बहुत ख़ूब !
आपकी लेखनी से सदैव ही ऐसे ही सुंदर भाव और विचारों से युक्त सुंदर रचनाओं का सृजन होता रहे ,
यही कामना है …
शुभकामनाओं सहित…